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पाकिस्तान (Pakistan) के नवनिर्वाचित प्रधानमंत्री शहबाज शरीफ (Shehbaz Sharif) कम से कम विदेश नीति के मामले में पटरी पर लौट आए हैं. वो पिछले नेताओं के नक्शेकदम पर चलते हुए अपनी पहली विदेश यात्रा पर सऊदी अरब गए, जिसे पाकिस्तानी राजनीति और प्रतिष्ठा का गॉडफादर कहा जाता है. इमरान खान और उनके विदेश मंत्री ने इस बात पर जोर देकर कि कश्मीर पर सऊदी कार्रवाई करें नहीं तो..., के जरिए उस प्रतिष्ठा को गंभीर रूप से कमजोर किया व नुकसान पहुंचाने का काम किया है.
जैसा कि देखा गया, अंतत: अति उत्साही इमरान खान का निष्कासन होता है और शांत-संयमित शहबाज खान की एंट्री होती है. शहबाज एक ऐसे शख्स हैं विनम्र हैं, अति उत्साही इमरान खान की तरह नहीं. उस संयम का इनाम भी मिल रह है. यहां तक कि रियाद न केवल अपने द्वार खोल रहा है बल्कि पाकिस्तान को भी ऐसा करने के लिए प्रोत्साहित करने के संकेत दे रहा है.
पाकिस्तान में किसी भी नए नेता के लिए सऊदी हमेशा पहला पड़ाव रहा है. ऐसा नहीं है कि वे (सऊदी) केवल संयुक्त अरब अमीरात (UAE) के साथ मिलकर पाकिस्तानी सरकार को प्रभावी ढंग से आर्थिक क्षति पूर्ति या वित्तपोषित करते हैं. ऐसे कई अन्य कारक हैं जो सऊदी और पाकिस्तान, दोनों को एक साथ बांधते हैं. उन कारकों में से कुछ ज्यादा प्रसिद्ध हैं और अन्य उतने प्रसिद्ध नहीं हैं. इसके अलावा एक तथ्य यह भी है कि रियाद इस्लाम का केंद्र है और जो कोई भी पाकिस्तान में एक विश्वसनीय नेता के रूप में पहचाना जाना चाहता है, उसे रियाद का समर्थन व आशीर्वाद प्राप्त करने की आवश्यकता होगी.
सऊदी लंबे समय से पाकिस्तान को सहायता प्रदान करता रहा है. 1943 में सऊदी ने अकाल से पीड़ित बंगाल के लोगों को राहत प्रदान करने के लिए मोहम्मद अली जिन्ना को 10,000 पाउंड की सहायता दी थी. यह किसी भी मुल्क द्वारा पाकिस्तान को प्रदान की गई पहली सहायता थी. यह सहायता 1998 के परमाणु परीक्षणों के बाद पाकिस्तान (और भारत) के आर्थिक अलगाव के बाद भी जारी रही. रियाद ने न केवल पाकिस्तान को परीक्षणों के लिए बधाई दी बल्कि तत्कालीन प्रधान मंत्री नवाज शरीफ को 50,000 बैरल प्रतिदिन कच्चा तेल भी प्रदान किया. इसके लिए पाकिस्तान को धीरे-धीरे भुगतान करना था.
इसके बाद जाहिर तौर पर सऊदी अरब और पाकिस्तान के रिश्तों में कड़वाहट आ गई.
फिलहाल तो ऐसा प्रतीत हो रहा है कि रियाद ने फिर से अपनी उदारता या दरियादिली को बढ़ा दिया है. संयुक्त बयान में जिन बातें का जिक्र है वे इस तरह से हैं : 'अवधि विस्तार या अन्य किसी भी माध्यम से केंद्रीय बैंक के पास 3 बिलियन डॉलर की जमा राशि को बढ़ाना, पेट्रोलियम उत्पादों के वित्तपोषण को और बढ़ाने के लिए विकल्पों की खोज करना और पाकिस्तान और वहां की जनता के हित के लिए आर्थिक संरचनात्मक सुधारों का समर्थन करना.'
पाकिस्तानी अर्थव्यवस्था सीधे सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात दोनों पर निर्भर करती है. दोनों (सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात) का नवंबर 2021 में लगभग 1 बिलियन डॉलर का योगदान था. यह विदेशी मुद्रा के स्रोत का एक महत्वपूर्ण हिस्सा था, जो अर्थव्यवस्था को सहारा देने लिए अहम है.
बिजनेस यानी व्यापार की तरह, अंतरराष्ट्रीय संबंधों (इंटरनेशनल रिलेशन) में फ्री लंच नहीं होते हैं. सऊदी ने वर्षों से पाकिस्तानी परमाणु कार्यक्रम को आभासी तौर पर संरक्षण दिया है. 1970 के दशक में जब भारत ने पहली बार अपना 'शांतिपूर्ण परमाणु परीक्षण' किया था तब से सऊदी ने पाकिस्तान की परमाणु कार्यक्रम में सहायता प्रदान की थी. सऊदी रक्षा मंत्री ने 1999 में एक यात्रा के दौरान कहुता में संवर्धन सुविधाओं का दौरा किया. जिसको लेकर अमेरिकी अधिकारियों की 'भृकुटी निश्चित तौर पर तन गई थीं.' और उन्होंने सऊदी परमाणु हथियार की आशंका जताई थी, जो पाकिस्तन से उन्हें मिल सकते थे. 2014 में लगभग 1.5 बिलियन डॉलर के एक गुमनाम तोहफे के साथ जैसे-जैसे सऊदी सहायता बढ़ी उसको देखते हुए प्रधान मंत्री नवाज शरीफ ने घोषणा की कि "सऊदी अरब के लिए किसी भी खतरे को पाकिस्तान से एक जबरदस्त प्रतिक्रिया का सामना करना पड़ेगा."
इन सबके बावजूद तेजी से बढ़ते हुए खतरनाक अफगान संघर्ष में पाकिस्तान को अपने पक्ष में रखने के इरादे से अमेरिका ने इस ओर इशारा किया था कि चीन की मदद से सऊदी अरब द्वारा मिसाइल बनाई जा रही है. उसने (सऊदी) बीजिंग से CSS-2 मिसाइलें खरीदी थीं, ऐसे में मिसाइल बनने की बात एक लंबी छलांग थी. हालांकि यह रिश्ता त्रिकोणीय हो गया था, लेकिन उस समय पाकिस्तान कनेक्शन को गुप्त रखा गया था, जैसा कि अब किया गया है.
द्विपक्षीय संबंधों का एक पहलू पाकिस्तानी सेना है. 1979 में मक्का की पवित्र मस्जिद पर चरमपंथी कब्जे को रोकने के लिए पहली बार वहां पाकिस्तानी सेना को तैनात गया था. बाद में इराक युद्ध के दौरान साम्राज्य की रक्षा के लिए कई हजार सैनिकों को भेजा गया था, जिसमें से एक छोटा सैन्य दल वहीं रुक गया था.
उन्होंने 'आतंकवाद से लड़ने के लिए इस्लामी सैन्य गठबंधन' का नेतृत्व करने के लिए जनरल (सेवानिवृत्त) राहील शरीफ की नियुक्ति का समर्थन करने से इनकार कर दिया. हालांकि भेजे गए सैनिकों को सऊदी धरती से बाहर नहीं निकलने और किसी अन्य मुस्लिम देश के खिलाफ किसी भी ऑपरेशन का हिस्सा नहीं होने के रूप में वर्णित किया गया था.
एक दिन पहले चुपचाप पाकिस्तान के सेनाध्यक्ष (COAS) जनरल कमर जावेद बाजवा ने ईरानी राजदूत से मुलाकात की थी जिससे ईरानी संदेह दूर हो गए. इस बीच भले ही वर्तमान और अतीत के सेना प्रमुख इस महत्वपूर्ण संबंध को सामान्य बनाने की दिशा में काम कर रहे हों लेकिन परिचालन और प्रशिक्षण, दोनों मिशनों में पाकिस्तानी सैनिकों की निरंतर उपस्थिति इसके साथ ही आतंकवाद विरोधी भूमिका के लिए उनकी संभावित अतिरिक्त तैनाती राज्य में एक महत्वपूर्ण भूमिका को दर्शाती है.
इस इतिहास को देखते हुए, इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि सऊदी और इसके साथ-साथ UAE पाकिस्तानी प्रधान मंत्री का ज्यादा स्वागत करते हैं. बड़े भाई नवाज शरीफ ने भी साम्राज्य के साथ रहे घनिष्ठ संबंधों का आनंद लिया है.
यह रियाद की 100 अरब डॉलर की निवेश योजना और भारत पर इसके दबाव की व्याख्या करता है, जो सऊदी अरब के शीर्ष तेल आयातकों में से एक है. कश्मीर के लिए एक 'शांतिपूर्ण' प्रस्ताव के संयुक्त बयान के बार-बार दोहराये जाने का कारण भी यही है.
पाकिस्तान को 2019 में 20 बिलियन डॉलर के निवेश की पेशकश की गई थी. न केवल इमरान खान की खराब नीतियों के कारण, बल्कि तकनीकी प्रतिभा, बुनियादी ढांचे, और उचित आर्थिक व सामाजिक ताकत जैसे सभी मुद्दों पर क्या इस्लामाबाद काम कर सकता है? इस संदेह के कारण वह निवेश नहीं हुआ. ये वही मुद्दे थे जिनका सामना चीन भी पाकिस्तान में कर रहा है. यदि यह (निवेश) आता है तो इस्लामाबाद को बांसुरी की धुन पर चलने की उम्मीद करनी चाहिए और अचानक से तुर्की जैसे देशों में प्रवेश नहीं करना चाहिए, जिनके पास ऑफर करने के लिए ज्यादा कुछ नहीं है. इसके बावजूद भी पाकिस्तान को ईरान के साथ कठिनाइयों का सामना करना पड़ सकता है क्यों ईरान की नजर इस पर है कि सऊदी इस्लामाबाद के सामने केक पेश करेगा या रोटी. यह एक कठिन काम है, खासतौर पर तब जब पूर्व प्रधान मंत्री जितना संभव हो सके उतनी कठिनाई या समस्या पैदा करने के लिए सड़कों पर उतरते हैं.
इन सब के बीच भारत के पास चिंतित होने का कोई कारण नहीं है. इसका अपना हित न केवल 'आत्मनिर्भर' प्रोग्राम में सऊदी निवेश को सुचारू रूप से सुनिश्चित करने में है, बल्कि यह भी है कि इस क्षेत्र में रियाद की अपनी योजनाएं ठीक ढंग से पूरी हों. यह नहीं भूलना चाहिए कि इस विशेष पहल की अध्यक्षता स्वयं प्रिंस कर रहे हैं और उन्हें रुकावट पसंद नहीं है. पाकिस्तान-सऊदी संबंधों से यही 'सबक' सीखा जाना चाहिए.
(डॉ. तारा कार्था Institute of Peace and Conflict Studies (IPCS) में एक प्रतिष्ठित फेलो हैं. उनका ट्विटर हैंडल @kartha_tara है. ये ओपिनियन आर्टिकल है और इस लेख में व्यक्त किए गए विचार लेखिका के निजी विचार हैं. क्विंट का उनसे सहमत होना जरूरी नहीं है.)
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Published: 06 May 2022,05:38 PM IST