advertisement
पाकिस्तान (Pakistan) में जब नए प्रधानमंत्री शाहबाज शरीफ (Pakistan Prime Minister Shehbaz Sharif) के नाम की आधिकारिक घोषणा हुई तब चारों ओर से तालियों की गड़गड़ाहट सुनाई दे रही थी, पीएम की पीठ थपथपाई जा रही थी, वहां मौजूद चेहरों पर मुस्कान और हंसी दिखाई दे रही थी. लेकिन इन सबके बीच पाकिस्तान के नए प्रधान मंत्री शाहबाज शरीफ इस बात से भी भली-भांति परिचित थे कि उनके लिए आगे की राह आसान नहीं होने वाली है. आगे उनके सामने कई मुश्किल काम है. पहले के सत्ताधारी पाकिस्तानी संसद के बाहर हंगामा कर रहे थे, लेकिन केवल प्रतिद्वंद्वी से निपटने की ही एकमात्र चुनौती उनके सामने नहीं है. बल्कि यह इससे कहीं बढ़कर है जिसका सामना खुद शाहबाज शरीफ, उनकी पार्टी और उनका मुल्क कर रहा है. ये चुनौतियां और बाधाएं इतनी ज्यादा और बड़ी हैं कि यह पता लगाना मुश्किल होगा कि आखिर शुरुआत कहां से करें.
सबसे पहले बात करते हैं खुद शाहबाज की, शाहबाज शरीफ हमेशा अपने भाई नवाज शरीफ के ताकतवर राजनीतिक करियर और उनके बच्चों जैसे कि मरियम शरीफ की छत्र छाया में रहे हैं. मरियम को पब्लिक ऑफिस संभालने के लिए तैयार किया है. उनमें भीड़ को अपनी ओर करने की करिश्माई ताकत है.
नवाज और शाहबाज दोनों शरीफों के खिलाफ कई मामले हैं जिनका उनको सामना करना पड़ रहा है. जैसा कि एक आरोप बिलावल भुट्टो ने ही उनके खिलाफ फेक अकाउंट के मामले में लगाया, जिसमें उन पर एक बिजनेस से 1 बिलियन रुपये ट्रांसफर करने का आरोप है, उस बिजनेस में वह एक शेयरहोल्डर थे.
सितंबर 2020 में शाहबाज को लगभग 7 बिलियन डॉलर के मनी लॉन्ड्रिंग मामले में न केवल हिरासत में लिया गया था बल्कि जिस दिन उन्हें शपथ दिलाई जानी थी उसी दिन उन्हें इस मामले में अदालत के समक्ष पेश होना था.
इस मामले का जो ऑफिसर इन चार्ज था उसने महौल को भांपते हुए समझदारी से निर्णय लिया और छुट्टी पर चला गया. ऐसे में शाहबाज और इस मामले में सह आरोपी रहे उनके बेटों को किसी प्रकार का कोई नोटिस नहीं दिया जा सका. शाहबाज का एक बेटा हजमा पंजाब के मुख्यमंत्री पद के लिए संघर्ष कर रहा है वहीं दूसरा बेटा सुलेमान लंदन में रह रहा है.
ऐसे में अगर आप यह सोच रहे हैं कि शाहबाज को कानूनी बाधाओं के कारण चुना गया है तो ऐसा बिल्कुल भी नहीं है. बल्कि उन्हें इसलिए चुना गया है क्योंकि कोई भी प्रमुख राजनीतिक खिलाड़ी उस सरकार का प्रधानमंत्री नहीं बनना चहेगा जो कि जनवरी 2023 में कानूनी तौर पर खत्म हो जाएगी. और हां अगर इस बीच इमरान खान कुछ बड़ी ऊठापटक कर दें तो शायद हमारी सोच के पहले ही कुछ देखने को मिल जाए.
इसके अलावा इस बिंदु पर एक और बात जो सबसे महत्वपूर्ण है वह विपक्षी एकता है. मौलाना फजल-उर-रहमान सहित सभी के लिए शाहबाज एक आम सहमति वाले उम्मीदवार हैं. क्योंकि हर कोई जानता है कि उनका कोई राष्ट्रीय कद नहीं है और और भविष्य में उनकी व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाएं खतरे में नहीं पड़ेंगी.
शाहबाज की निजी जिंदगी के बारे में काफी कुछ लिखा जा चुका है. ऐसे में इस बात का उल्लेख पर्याप्त होगा कि 70 वर्षीय शाहबाज अपने आप में एक बहुत धनी व्यक्ति हैं, उन्होंने एक चतुर और कुशल प्रशासक के रूप में अपनी प्रतिष्ठा बनाई है. इसके साथ ही इन्होंने बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की पाकिस्तान यात्रा के दौरान खुद को "इस्लामिक समाजवादी" के रूप में बताया था.
पंजाब में उनकी कड़ी मेहनत को सरकार में सुधार और बुनियादी ढांचे के निर्माण की इच्छा के रूप में वर्णित किया गया है, जिसने पंजाब को पाकिस्तान की अन्य जगहों की गिरावट से काफी हद तक अलग रखा है.
अपने भाई नवाज शरीफ की तुलना में शाहबाज काफी कम विवादित नजर आते हैं. यह भी कहा जाता है कि नवाज की तुलना में शाहबाज के साथ सेना भी काफी सहज है. पीछे जाकर देखें तो हम पाएंगे कि तत्कालीन चीफ ऑफ आर्मी स्टाफ यानी आर्मी प्रमुख (COAS) जनरल कयानी एक गुप्त बैठक में शाहबाज के पास गए थे ताकि पार्टी को तत्कालीन राष्ट्रपति जनरल परवेज मुशर्रफ के खिलाफ मामलों को आगे बढ़ाने के लिए दबाव न डालने के लिए राजी किया जा सके. दरअसल सेना प्रमुख उनसे नियमित तौर पर चुपचाप मिलते रहते थे.
कुला मिलाकर छोटे शरीफ को देश की बागडोर देने की बात से सेना को नाराजगी नहीं होगी. लेकिन दूसरी ओर शाहबाज ने अपने भाई नवाज शरीफ के प्रति अटूट वफादारी दिखाई है. हाल ही में उन्होंने इस बारे में जानकारी दी थी कि कैसे जनरल कमर जावेद बाजवा ने नवाज की सराहना की थी.
पाकिस्तान में ऐसे बहुत कम प्रधानमंत्री रहे हैं जिन्होंने सबसे खराब स्थिति का समाना किया है.
व्यक्तिगत स्तर पर देखें तो नेशनल अकाउंटैबिलिटी ब्यूरो (NAB) का लचीलापन देखते हुए शहबाज या उनके भाई के खिलाफ मामलों को आसानी से बंद किया जा सकता है. लेकिन आने वाले महीनों में इमरान अपनी छवि बनाने के लिए इन्हीं मुद्दों का इस्तेमाल करेंगे.
पार्टी स्तर पर देखें तो बिलावल के विदेश मंत्री बनाने का विरोध पहले से ही उनकी अपनी पार्टी और PPP (पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी) दोनों के द्वारा किया जा रहा है, यह गठबंधन को स्थिर बनाए रखने में संभावित चुनौतियों को उजागर करता है.
सिंध की प्रमुख पार्टी मुत्ताहिदा कौमी महाज (पाकिस्तान) को कुछ 'इनाम' देना होगा क्योंकि यह पूर्व सरकार की सहयोगी पार्टी थी और इसने अपना समर्थन वापस लेकर इमरान सरकार को गिरा दिया. अगर इस पार्टी को लाभ दिया जाएगा तो पीपीपी के कार्यकर्ता इसका विरोध करेंगे.
ये तो सिर्फ शुरुआती चुनौतियां हैं. राष्ट्रीय स्तर पर सबसे बड़ी चुनौती इकनॉमी (अर्थव्यवस्था) और महंगाई होगी. इस समय पाकिस्तान में महंगाई दर 12.72 फीसदी के आंकड़े को छू रही है, जो कि पिछले वर्ष इसी अवधि के दौरान 10.72 के आंकड़े पर थी.
इस बीच नई सरकार ने सार्वजनिक तौर पर अपनी घरेलू और अंतरराष्ट्रीय प्राथमिकताओं की घोषणा भी कर दी है. अंतरराष्ट्रीय मोर्चे पर न केवल कश्मीर बल्कि मित्र देशों की सूची को चीन, ईरान, संयुक्त अरब अमीरात, ब्रिटेन और सऊदी अरब तक सीमित रखने का भी जिक्र किया गया है. वहीं अमेरिका के तिरस्कार से यह स्पष्ट तौर पर पता चलता है कि इमरान खान की विदेश नीति किस हद तक जहरीली हो गई है.
शरीफ पहले से ही लिबरल एजेंडे से काफी दूर थे. हालांकि इस्लामवादियों को इमरान खान का समर्थन करने से रोकने के लिए वह खुद को दक्षिण (राइट) की ओर ले जाएंगे.
शांति के लिए भारत की सबसे अच्छी उम्मीद शाहबाज हैं. हालांकि कश्मीर मामले पर वे शांति से काफी दूर हैं. वे अक्सर कहते रहे हैं कि कश्मीर को पाकिस्तान का हिस्सा होना चाहिए. इस बात को समझने के लिए कि उनके मुल्क (पाकिस्तान), विशेष रूप से उनके प्रांतों को समृद्ध होने के लिए भारत के साथ व्यापार मार्ग खोलने की जरूरत है, उन्होंने खुद को काफी ज्यादा व्यावहारिक बना लिया है.
नए व्यापार मार्ग खोलने के लिए समझौतों पर हस्ताक्षर करने के मामले में शाहबाज किसी भी अन्य पाकिस्तानी नेता से आगे निकल गए हैं. 2013 में उन्होंने भारत के प्रकाश सिंह बादल के साथ संयुक्त घोषणा पत्र पर हस्ताक्षर किए थे. इसके एक साल बाद उन्होंने आगाह किया कि दोनों पक्षों की सुरक्षा एजेंसियां विकास में बाधा डाल रही हैं. कुछ ऐसा ही विचार उनके भाई का भी था जो अक्सर इस बात को कहते थे कि जब भी भारत और पाकिस्तान बातचीत के लिए आगे आते हैं, तो आतंकवाद या सीमा पार से गोलीबारी बढ़ जाती है.
हालांकि आशावादी इस साल इस्लामाबाद सिक्योरिटी डायलॉग में पाक आर्मी चीफ बाजवा के उन बयानों की ओर इशारा करेंगे, जिसमें उन्होंने पिछले साल की तरह एक "शांत" दक्षिण एशिया की वकालत की थी और इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि उन्हाेंने आतंकवादियों को सीमा पार करने से रोकने की बात कही थी. अब जब आप इसमें हाफिज सईद की 32 साल की सजा को जोड़ देते हैं तो यह आशावादी होने का एक और कारण हो सकता है. इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि नियंत्रण रेखा (LoC) पर करीब एक साल से शांति है.
संक्षेप में कहें तो शाहबाज की प्राथमिकता में सबसे ऊपर अपने देश विशेषकर अर्थव्यवस्था को स्थिर करना होगा. ऐसा करने के लिए, उन्हें पाकिस्तान को एक सच्चे "रणनीतिक स्थान" में बदलना होगा, जो कि आतंकवाद और उग्रवाद की खाई के बजाय क्षेत्रीय व्यापार के लिए एक जंक्शन के तौर पर कार्य करता है और जिसने वर्षों से इसकी नीतियों को चिह्नित किया है.
शहबाज और उनके सहयोगी शायद ही इस तरह के बदलाव का समर्थन करेंगे. लेकिन इनके सामने अपदस्थ प्रधान मंत्री के रूप में सबसे बड़ी मुसीबत खड़ी हो जाएगी, जो इस तरह के हर कदम को 'जनता' के साथ विश्वासघात के रूप में दिखाने की कोशिश करेंगे. इतना ही नहीं ग्राउंट पर शाहबाज के स्थिर प्रदर्शन की तुलना में इमरान खान बतौर विरोधी ज्यादा आकर्षक होंगे. यही क्षेत्रीय राजनीति का सार है. यही वजह है कि दक्षिण एशिया अभी भी बेसहारा व गरीब बना हुआ है.
(डॉ. तारा कार्था Institute of Peace and Conflict Studies (IPCS) में एक प्रतिष्ठित फेलो हैं. उनका ट्विटर हैंडल @kartha_tara है. ये ओपिनियन आर्टिकल है और इस लेख में व्यक्त किए गए विचार लेखिका के निजी विचार हैं. क्विंट का उनसे सहमत होना जरूरी नहीं है.)
(क्विंट हिन्दी, हर मुद्दे पर बनता आपकी आवाज, करता है सवाल. आज ही मेंबर बनें और हमारी पत्रकारिता को आकार देने में सक्रिय भूमिका निभाएं.)
Published: 13 Apr 2022,08:00 PM IST