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आइए जरा हम अपनी कल्पनाओं को खुला छोड़ दें और एक ऐसी काल्पनिक तस्वीर के बारे में सोचे, ठीक सुपरहिट दीवार फिल्म के एक दृश्य तरह, जहां यूपी चुनाव अपने क्लाइमेक्स पर है, इसके दो किरदार जिसमें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, शशि कपूर की भूमिका निभा रहे हैं और समाजवादी पार्टी के उम्मीदवार अखिलेश यादव अमिताभ का किरदार.
अब फिल्म अपने आइकॉनिक सीन पर पहुंच चुकी है, जहां एक मशहूर संवाद के दृश्य में अमिताभ की तरह अखिलेश यादव, प्रधानमंत्री मोदी से टकराते हैं और पूछते हैं, "तुम्हारे पास क्या है..." अपने बारे में ये सोचते हुए कि मेरे पास नाराज लोगों का भरोसा है... कोविड त्रासदी की यादें हैं. अनगिनत लोग जिनके अपनों की जानें चली गई और महामारी को संभालने में सरकार की अक्षमता, लोगों की खाली जेंबें, अचानक बिना किसी तैयारी के कुछ घंटों की मोहलत पर थोपे गए लॉकडाउन से हजारों किलीमीटर पैदल चलने वाले लोगों का गुस्सा, और भी बहुत कुछ लेकिन, ‘तुम्हारे पास क्या है?’
मोदी अपने चिरपरिचित अंदाज में अखिलेश यादव की तरफ देखते हैं जवाब देते हैं, "मेरे पास राम और डमरू हैं", जिसको प्रधानमंत्री मोदी ने अपने काशी दौरे पर बजाया.. वो गूंजने लगती है.
इस काल्पनिक दृश्य में राम को बस यूं ही नहीं रखा गया है, बल्कि ये एक मेटाफर है. अयोध्या में बन रहा भव्य राम मंदिर और इसे हासिल करने में दशकों का आंदोलन और सबको जोड़ने वाला आइडिया है. इसके साथ ही ये भी कि ये अभी लगातार चलने वाले प्रोजेक्ट का हिस्सा है, जिसमें अभी अभी पूरा किया गया काशी कॉरिडोर का निर्माण है. साथ ही मथुरा में शाही ईदगाह को हटाने का वादा.
इस चुनाव में बिना किसी संशय के हिंदुत्व, भारतीय जनता पार्टी के चुनावी कैंपेन का केंद्रीय आधार था। गलती ना करें, 2014 के बाद खासकर जबसे नरेंद्र मोदी का उभार हुआ है, तब से राज्य में ये अब तक का सबसे ज्यादा ध्रुवीकरण वाला चुनाव था. इसको भुनाने के लिए पार्टी को अब किसी नेता की जरूरत नहीं है.
आर्थिक मुद्दों पर सरकार से लड़ते हुए खासकर किसानों के संघर्ष के सवाल पर उन्होंने ‘वो’ के साथ एक सामंजस्य बनाया, लेकिन उनके बड़े हिस्से ने चुनाव में धर्म और जातीय पहचान के आधार पर वोट दिया.
मंच से कम्यूनिल पिच को पहले से ज्यादा ऊपर उठाने की योगी आदित्यनाथ की कुछ कोशिशों के बाद भी, सावर्जनिक मंचों से दिए भाषणों को देखें तो ये चुनावी कैंपेन साल 2014, 2017 और 2019 की कम्यूनिल पिच से आगे नहीं बढ़ पाया.
यहां तक कि अमित शाह ने अपनी सावर्जनिक रैलियों की शुरुआत नवंबर में जुमे की नमाज के मजाक के साथ की, जब गुरुग्राम में विवाद बढ़ रहा था.
लेकिन मोदी पिछली चुनावों की तरह इस बार बहुत लाउड नहीं दिखे थे, बल्कि दिसंबर में काशी विश्वनाथ टेंपल कॉरिडोर के उद्घाटन के वक्त उन्होंने तो बहुत ‘सभ्य अंदाज’ में बातें की, या अपनी अंतिम चुनावी भाषण में.
फिर भी, चुनाव भारी ध्रुवीकरण वाला था, क्योंकि मोदी और BJP ने अपने बांटने वाले विर्मश को सामान्य बना दिया है. जैसे कि पार्टी ना सिर्फ ये समझाने में लोगों को कामयाब रही कि योगी आदित्यनाथ के शासन में कानून-व्यवस्था सुधरी है, बल्कि मुसलमान और गुंडे को एक दूसरे का पर्याय बना दिया.
साल 2012-2017 के बीच मुस्लिम-यादव समीकरण को अखिलेश ने बढ़ाया और इसका समाजवादी पार्टी और सहयोगियों को पूरा साथ मिला, लेकिन इसने बीजेपी को वोट कंसोलिडेट करने में काफी मदद की.
नतीजा ये हुआ कि लोगों के दिमाग में ‘फर्क’ पूरी तरह से बैठ गया है कि मुसलमानों के होश ठिकाने लगा दिए गए हैं और सरकार भले ही कई मोर्चों पर फेल हुई, कम से कम मुसलमानों को तो ठीक कर ही दी.
बीजेपी को उत्तराखंड और यूपी में जोरदार जनसमर्थन इस बात की पुष्टि करता है कि अब लोगों ने संघ परिवार के दशकों पुराना तर्क कि ये ‘हमारा राष्ट्र’ है को मंजूर कर लिया है, या फिर जैसा कि मोहन भागवत अक्सर कहते हैं कि ये ‘हिंदू राष्ट्र ‘ है जहां एक नागरिक के तौर पर अल्पसंख्यकों का स्वागत है लेकिन उनको अनिवार्य तौर पर अपने आप को एक अलग समुदाय के तौर पर मानना होगा. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने अक्सर कहा है कि ‘समाज’ का लक्ष्य संघ बनना है या फिर भगवा समुदाय. उत्तर प्रदेश और इसका पड़ोसी उत्तराखंड का ये जनादेश, संघ के इसी लक्ष्य के बेहद करीब आया है.
यूपी में बीजेपी के चुनावी कैंपेन पर इस बात के लिए सवाल, पार्टी के भीतर उठाए गए थे कि ये मॉडल, दूसरे बीजेपी राज्यों से अलग है. हालांकि, ‘डबल इंजन सरकार’ मुहावरे का इस्तेमाल दूसरे राज्यों की तरह यहां भी किया गया, लेकिन यूपी में इसका मतलब कुछ और था, क्योंकि करिश्माई नेता के तौर पर अपने बूते योगी आदित्यनाथ का जोरदार उभार राज्य और केंद्र में बीजेपी के कुछ कद्दावर नेताओं की उम्मीद से कहीं ज्यादा था.
हालांकि, “मोदी के बाद कौन?“ अभी तक इस पर बहुत शांत स्वर में चर्चा हुई है लेकिन अब ये ज्यादा मुखर हो सकता है. क्योंकि कोई भी राजनीतिक नेता उन्हें और उनकी महत्वकांक्षा को रोक नहीं सकते. आदित्यनाथ ने अब तक सीधे तौर पर मोदी के नेतृत्व को 'चुनौती' नहीं दी है.लेकिन उनमें, भगवा समुदाय के धड़ों को मोदी के बाद टॉप पॉजिशन के लिए एक उम्मीदवार दिखाई देता है.
बीजेपी के पास 'उत्तराधिकार का सिद्धांत' भी नहीं है, लेकिन जब साल 2025 में मोदी 75 वर्ष के हो जाएंगे तो इसको देखने की आवश्यकता होगी. ये कैंपेन निश्चित तौर पर भगवा के अलग-अलग रंगों के बीच आपसी मुकाबले का भी था. अब राज्य में वो लोग जो हिंदुत्व की तरफ बहुत बढ़े हुए नहीं हैं, वो महत्वपूर्ण बन जाएंगे.
(नीलांजन मुखोपाध्याय लेखक और पत्रकार हैं. उनकी नई किताबें हैं: Sikhs: The Untold Agony of 1984 और Narendra Modi: The Man, The Times. उन्हें ट्विटर पर @NilanjanUdwin पर फॉलो किया जा सकता है. इस आलेख में प्रकाशित विचार उनके अपने हैं. आलेख के विचारों में क्विंट की सहमति होना जरूरी नहीं है.)
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Published: 12 Mar 2022,03:18 PM IST