मेंबर्स के लिए
lock close icon
Home Created by potrace 1.16, written by Peter Selinger 2001-2019Voices Created by potrace 1.16, written by Peter Selinger 2001-2019Opinion Created by potrace 1.16, written by Peter Selinger 2001-2019राहुल-प्रियंका को ‘शुभचिंतक’ क्यों दे रहे सलाह-मोदी पर हमला न करें

राहुल-प्रियंका को ‘शुभचिंतक’ क्यों दे रहे सलाह-मोदी पर हमला न करें

ऐसा जहर उगलने वाले वही लोग हैं जो खुद को भारतीय जनता पार्टी की हिंदुत्व की राजनीति का धुर विरोधी बताते हैं.

भारत भूषण
नजरिया
Updated:
‘शुभचिंतक’ राहुल-प्रियंका को क्यों दे रहे सलाह-मोदी पर हमला न करें
i
‘शुभचिंतक’ राहुल-प्रियंका को क्यों दे रहे सलाह-मोदी पर हमला न करें
(फोटो: द क्विंट/कामरान अख्तर)

advertisement

मीडिया इन दिनों यकायक राहुल और प्रियंका गांधी को सलाह दे रहा है कि उन्हें कांग्रेस से अपनी पकड़ ढीली कर देनी चाहिए. यह भी कहा जा रहा है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर ‘सनकी की तरह’ हमला करके उन्होंने अपनी राजनीतिक मंदबुद्धि को दर्शाया है, इसीलिए उन्हें इससे बाज आना चाहिए. कुछ विश्लेषकों ने तो राहुल गांधी को यह सुझाव भी दे डाला था कि उन्हें बचकानी हरकतों से बचना चाहिए और इस बात के लिए उनकी आलोचना की कि वह हठीलेपन और राजनीतिक अपरिपक्वता का परिचय दे रहे हैं.

ऐसा जहर उगलने वाले वही लोग हैं जो खुद को जाहिर तौर पर भारतीय जनता पार्टी की हिंदुत्व की राजनीति का धुर विरोधी बताते हैं. क्या इन आलोचकों को यह याद नहीं रखना चाहिए कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनके सेवादारों का व्यक्तित्व, उसकी राजनीति से बहुत अलग नहीं.

राहुल गांधी बनाम कांग्रेस के ‘बूढ़े सिपहसालार’

राहुल-प्रियंका की आलोचना में कांग्रेस के कथित ‘बूढ़े सिपहसालार’ की चिंताएं साफ प्रकट होती हैं. वे कांग्रेस का अतीत हैं, लेकिन भविष्य भी बनना चाहते हैं. सार्वजनिक रूप से राहुल गांधी पर हमला उस समय किया जा रहा है, जब उनके कांग्रेस अध्यक्ष बनने की उम्मीद की जा रही है. अधिकतर पुराने कांग्रेसियों की उम्र 75 साल से ज्यादा है. एक बार राहुल या प्रियंका ने कांग्रेस की कमान संभाली तो उनके भविष्य पर काले बादल मंडराने लगेंगे. राहुल पहले भी कांग्रेस की कायाकल्प करने की कोशिश कर चुके हैं. उनका नजरिया कमजोर है या नहीं, यह तो आने वाला वक्त ही बताएगा.

वैसे राहुल-प्रियंका कई मौकों पर कह चुके हैं कि पुराने कांग्रेसियों ने आम चुनावों में पार्टी की हार का सारा ठीकरा उन पर फोड़ा है, खुद हर जिम्मेदारी से बचते रहे हैं. अब वे उन्हें सार्वजनिक तौर पर सलाह दे रहे हैं कि प्रधानमंत्री पर हमला न किया जाए- यह एक तरह से पॉलिटिकल सुसाइड करने जैसा है. क्योंकि इसके अभाव में भाजपा को खुला चुनावी मैदान मिल जाएगा.

दरअसल राहुल और प्रियंका गांधी के खिलाफ सिर्फ कुछ लोग ही नहीं खड़े हैं. यह परस्पर हित वाला एक गुट है जोकि कांग्रेस पर राजनीतिक और वित्तीय नियंत्रण चाहता है.

कुछ के लिए प्रवर्तन निदेशालय ने मुसीबतें खड़ी की हैं- जो इस बात का संकेत है कि सत्ता में रहने के दौरान वे किस तरह अपने पद का दुरुपयोग करते हैं, अपना और अपने परिवार के लोगों का हित साधते हैं. अगर वे लोग राजनीतिक स्तर पर अप्रासंगिक हो गए तो उनके लिए पार्टी के पद का इस्तेमाल करना मुश्किल हो जाएगा. इसीलिए वे अपने खिलाफ किसी भी कार्रवाई को राजनीतिक उत्पीड़न बताते हैं. राहुल और प्रियंका गांधी पर हमला इसीलिए जरूरी है क्योंकि यह उनके अपने अस्तित्व के लिए अहम है.

आखिर पुराने कांग्रेसियों ने क्या कमाया है

पुराने कांग्रेसियों को ऐसा क्यों लगता है कि मीडिया के जरिए राहुल और प्रियंका गांधी की आलोचना करने से वे खुद बच जाएंगे. क्योंकि इनमें से शायद ही किसी का कोई जनाधार हो. संसद और सरकार में लंबा समय बिताने के बावजूद जिन राज्यों से वे चुनकर आते हैं, वहां तक अपनी जड़ें नहीं जमा पाए हैं. फिर भी पार्टी पर अपना कब्जा जमाए रखना चाहते हैं. अगर पार्टी जीतती है तो कामयाबी का सेहरा बांध लेते हैं, हार जाती है तो बलि का बकरा तलाशने लगते हैं. कुछ को तो पार्टी में उच्च पद सिर्फ इसीलिए मिले हुए हैं क्योंकि वे वक्तव्य लिखने में माहिर हैं. कुछ अपने वक्तृत्व के कौशल का लाभ उठा रहे हैं और एक महिला नेता सिर्फ इसीलिए प्रासंगिक बनी हुई हैं क्योंकि उन्हें एक खास भाषा बोलनी आती है.

इनमें से शायद ही किसी को चुनावी जीत मिली हो. सच्चाई तो यह है कि इनमें से अधिकतर लोकसभा चुनाव लड़ते तक नहीं. वे पार्टी की सदाशयता का लाभ उठा रहे हैं- और राज्यसभा की शोभा बढ़ा रहे हैं.

यह समझ से परे हैं कि प्रवासी संकट या देश की सुरक्षा के मुद्दे पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की आलोचना किसी का राजनीतिक बचकानापन कैसे है. दोनों मोर्चों पर प्रधानमंत्री से भयानक चूक हुई है. अगर भारतीय राष्ट्रवाद और हिंदुत्व के घालमेल पर भाजपा की आलोचना को उतावलापन कहा जाएगा तो इसका मायने यही होगा कि हम युद्धकालीन जर्मनी में नाजीवाद के उभार को भूल गए हैं. वास्तव में, हर धर्म निरपेक्ष भारतीय का यह कर्तव्य है कि वह अपनी संविधान प्रदत्त ‘धृष्टता’ का इस्तेमाल कर इसका विरोध करे.

बूढ़े सिपहसालार टकराव से बचने की वकालत क्यों कर रहे हैं

राहुल गांधी ने रक्षा संबंधी संसदीय स्थायी समिति की बैठक में हिस्सा नहीं लिया. इस बात की आलोचना करने वालों को पूछना चाहिए कि क्या सरकार ने इस संबंध में कोई प्रासंगिक जानकारी साझा की थी. क्या राहुल के बैठक में मौजूद होने पर लद्दाख में चीनी घुसपैठ रुक सकती थी. भाजपा ने तो अपने खुद के वरिष्ठ सांसद सेवानिवृत्त मेजर जनरल बी. सी. खंडूरी को समिति की अध्यक्षता से हटा दिया, जब उन्होंने रक्षा संबंधी तैयारी पर सवाल खड़े किए.

भला विपक्ष को यह सवाल क्यों नहीं करना चाहिए कि क्या चीन ने लद्दाख में घुसपैठ की थी? कांग्रेस को यह सवाल क्यों नहीं करना चाहिए कि गलवान घाटी में चीन के दो किलोमीटर पीछे हटने के वादे पर जीत का जश्न क्यों मनाया जा रहा है?

पहले तो सरकार ने दावा किया था कि कोई घुसपैठ हुई ही नहीं. क्या यह दुखद नहीं कि भारत वह पहला देश है जिसने एक उत्पाती पड़ोसी के साथ शांति कायम करने के लिए अपने ही परिक्षेत्र में ‘बफर जोन’ बनाया है.

पुराने कांग्रेसी कह रहे हैं कि हमें टकराव से बचना चाहिए. लेकिन इससे न तो देश में लोकतांत्रिक विपक्ष की कमजोर नींव मजबूत होगी, और न ही कांग्रेस का पुनर्जन्म होगा. इसके अलावा, जिन लोगों ने पार्टी में लोकतंत्र की धज्जियां उड़ाई हैं, संगठन को खोखला किया है, उनसे यह उम्मीद नहीं की जा सकती कि वे कांग्रेस में नई जान फूकेंगे.

कांग्रेस को राहुल गांधी को नहीं, अपने संगठनात्मक आधार को दुरुस्त करना चाहिए

कांग्रेस को सबसे पहले अपनी संगठनात्मक शक्ति को पुनर्जीवित करना चाहिए- बूथ स्तर पर और एआईसीसी यानी अखिल भारतीय कांग्रेस समिति के स्तर पर. जब तक ये संगठन सक्रिय नहीं होंगे, उनमें जोश नहीं आएगा, उनकी नियमित बैठकें नहीं होंगी, तब तक पार्टी के प्रदर्शन की जवाबदेही तय नहीं होगी. अगर एआईसीसी की नियमित बैठकें नहीं होंगी, तो कांग्रेसी अपने विचारों को कैसे प्रकट करेंगे- पार्टी के संविधान में हर छह महीने में बैठक करना अनिवार्य है लेकिन वहां तो साल में एक बैठक तक नहीं होती.

कांग्रेस कार्य समिति की बैठक यदा-कदा ही होती है और प्रदेश कांग्रेस समितियां और ब्लॉक स्तर की इकाइयां तो कागजी ही हैं. जैसा कि पुराने कांग्रेसी फिलहाल करते हैं, उन्हें भी आने वाले समय में मीडिया में प्रॉक्सी के जरिए बोलने को मजबूर होना पड़ेगा.

दरसअल बैठकों के दौरान ही पार्टी के कायाकल्प पर चर्चा होनी चाहिए और क्रोनिज्म से मुकाबला करने के लिए नई प्रतिभाओं की पहचान की जानी चाहिए. सेनापति के तौर पर राहुल गांधी अच्छे हैं या बुरे, यह इस बात पर निर्भर करता है कि उनकी सेना कैसी है. पुरानी पीढ़ी के सिपहसालार कमान अपने हाथों में रखना चाहते हैं पर उनके पास न तो सेना है और न हथियारों का जखीरा. वे बस यही चाहते हैं कि जो भी सब कुछ दुरुस्त करना चाहता है, उसे भरसक रोका जा सके.

(लेखक दिल्ली स्थित वरिष्ठ पत्रकार हैं. यह एक ओपनियन लेख है. ये लेखक के निजी विचार हैं. द क्विंट का उनसे सहमत होना जरूरी नहीं है)

(क्विंट हिन्दी, हर मुद्दे पर बनता आपकी आवाज, करता है सवाल. आज ही मेंबर बनें और हमारी पत्रकारिता को आकार देने में सक्रिय भूमिका निभाएं.)

अनलॉक करने के लिए मेंबर बनें
  • साइट पर सभी पेड कंटेंट का एक्सेस
  • क्विंट पर बिना ऐड के सबकुछ पढ़ें
  • स्पेशल प्रोजेक्ट का सबसे पहला प्रीव्यू
आगे बढ़ें

Published: 11 Jul 2020,05:06 PM IST

ADVERTISEMENT
SCROLL FOR NEXT