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औरतें ममता और करियर की पतली डोरी पर गिरती-पड़ती ही आगे बढ़ती हैं

औरतें बाई डीफॉल्ट केयरगिवर बन जाती हैं, लेकिन बच्चे की जिम्मेदारी पूरे परिवार की होती है.

माशा
नजरिया
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वर्किंग मदर्स की यह आम समस्या होती है कि बच्चे का क्या किया जाए
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वर्किंग मदर्स की यह आम समस्या होती है कि बच्चे का क्या किया जाए
(फोटो : iStock)

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अगर इस लेख को पढ़ने वाली कोई औरत है तो उसे केन्या की सांसद जुलेखा हसन से हमदर्दी हो सकती है. जुलेखा इसी महीने की 7 तारीख को अपने पांच महीने के बच्चे को लेकर संसद पहुंच गईं, क्योंकि बच्चे को घर पर देखने वाला कोई नहीं था. जुलेखा चाहतीं तो उस दिन की छुट्टी ले सकती थीं. लेकिन उन्हें दूसरा तरीका मुफीद लगा. वह बच्चे के साथ घर पर रहने की बजाय उसे लेकर संसद आ गईं. वह अपना काम नहीं छोड़ना चाहती थीं. लेकिन स्पीकर ने उन्हें संसद से बाहर कर दिया, क्योंकि संसद में अजनबियों के लिए कोई जगह नहीं.

केन्या की सांसद जुलेखा हसन पांच महीने के बच्चे को लेकर संसद पहुंच गईं(फोटो: ट्विटर)

बच्चे को कहां छोड़कर दफ्तर जाएं?

संभव है, पुरुष पाठकों को जुलेखा के इस विकल्प पर ऐतराज हो. अगर हर औरत अपने बच्चे लेकर काम करने वाली जगह पर आने लगी, तो काम की जगहें सर्कस या पिकनिक स्पॉट बन जाएंगी. काम का माहौल बिगड़ेगा और प्रोडक्टिविटी पर असर होगा. यूं वर्किंग मदर्स की यह आम समस्या होती है कि बच्चे का क्या किया जाए. अगर रोजाना का जरा सा अरेंजमेंट बिगड़े तो बच्चे को कहां छोड़कर दफ्तर जाएं. अक्सर अरेंजमेंट न होने पर औरतों को काम ही छोड़ देना पड़ता है.

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जुलेखा की समस्या, हर कामकाजी मां की समस्या है. इसे केन्या क्या, भारत की औरतें भी समझ सकती हैं.

क्रेश की सुविधा हर कामकाजी औरत को उपलब्ध नहीं

हमारे देश में 2017 में मातृत्व लाभ अधिनियम (मेटरनिटी बेनेफिट एक्ट) बना है. इसमें एक प्रावधान कहता है कि 50 या 50 से ज्यादा कर्मचारियों वाले प्रत्येक प्रतिष्ठान को एक निर्धारित दूरी पर क्रेश की सुविधा मुहैया करनी होगी. महिला कर्मचारियों को क्रेश में चार बार जाने की मंजूरी भी देनी होगी. यह बात अलग है कि इस अधिनियम में असंगठित सेक्टर की महिला कर्मचारी नहीं आतीं. यह संगठित सेक्टर के लिए है. इसीलिए अधिकतर महिला कर्मचारियों को काम करने की जगह के आस-पास क्रेश की सुविधा नहीं मिलती.

कानून अगर पक्की तरह से लागू कर दिया गया तो भी यह संभव नहीं है. औरतों को बच्चों को लेकर इस तरह की परेशानियां झेलनी ही पड़ती हैं.
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चर्चा में रहीं भारत की 'मॉम कॉप'

यूं ऐसा एक किस्सा भारत में भी हुआ था. पिछले साल सोशल मीडिया पर झांसी की कॉन्स्टेबल अर्चना जयंत के वीडियो की खूब धूम रही. इस वीडियो में अर्चना थाने में अपनी दुधमुंही बच्ची को डेस्क पर लिटाकर अपना काम निपटा रही थीं. चूंकि बच्ची छह महीने की थी, इसलिए मां के दूध पर निर्भर थी. घर पर उसे रखने वाला कोई नहीं था. सोशल मीडिया ने इस वीडियो को खूब चमकाया. उन्हें 'मॉम कॉप' कहा. मातृ शक्ति का उदाहरण दिया. कहा, कैसे औरतें हर मोर्चे को आसानी से निभाती हैं. जहां-तहां ममता और करियर की पतली डोरी पर गिरती-पड़ती, आगे बढ़ती हैं. सब वारि-वारि हो गए. कम से कम केन्या की जुलेखा की तरह उन्हें डांट कर घर नहीं भेज दिया गया. उनका ट्रांसफर ऐसी जगह कर दिया गया, जहां उनकी बच्ची की देखभाल के लिए कोई परिजन मौजूद था. इसके उलट, जुलेखा को जो अपमान झेलना पड़ा, वह कइयों को बुरा लगा.

झांसी की कॉन्स्टेबल अर्चना जयंत के फोटो और वीडियो सोशल मीडिया पर खूब वायरल हुए(फोटो: ट्विटर)

फुलटाइम मदर बनने के लिए प्रोफेशन छोड़ना पड़ता है

बुरा इस बात का भी लगा कि जुलेखा के पास दूसरा विकल्प क्यों नहीं. क्यों बच्चे को पालने की जिम्मेदारी सिर्फ मां पर आ पड़ती है. पुरुष कैसे इससे किनारा कर देते हैं. एसोचैम का 2015 का एक सर्वे कहता है कि भारत में पढ़ी-लिखी शहरी औरतें ज्यादा से ज्यादा संख्या में फुल टाइम मदर बनने के लिए अपनी प्रोफेशनल लाइफ छोड़ रही हैं. बच्चों को पालने के साथ-साथ करियर संभालना मुश्किल काम होता है. तभी 2013 में विश्व बैक की एक स्टडी में कहा गया था कि भारत में 15 साल से ऊपर की सिर्फ 27% औरतें काम करती हैं. यह ब्रिक्स देशों में सबसे कम दर है. यह भी कम दिलचस्प नहीं है कि 2017 में मिस वर्ल्ड बनी मानुषी छिल्लर ने सार्वजनिक तौर पर कहा था कि मदरहुड ऐसा प्रोफेशन है जिसमें सबसे ज्यादा वेतन मिलना चाहिए.

मतलब हम, बलिदान को मदरहुड से जोड़कर एक त्रुटिपूर्ण परिभाषा गढ़ते हैं. करियर और अपनी च्वाइस को छोड़ने वाली मां को अधिक सम्मान देते हैं, तो हम यह भी बताना चाहते हैं कि जो ऐसे बलिदान नहीं करती, वह मां अच्छी मां नहीं हो सकती.

अच्छी मां वही, जो सब कुछ संभाल सके. कभी संतुलन बनाए- कभी संतुलन को छोड़कर एक किनारा धर ले. मदरहुड हमारे यहां विकल्प नहीं, अनिवार्यता है. फिर बच्चे की देखभाल पूरी तरह से मां की जिम्मेदारी मानी जाती है. मेटरनिटी बेनेफिट एक्ट 2017 कामकाजी माताओं के लिए तो छुट्टी का समय 26 हफ्ते तय करता है. पर पिता की छुट्टी की कोई बात नहीं करता.

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मेटरनिटी लीव ने सेरेना विलियम्स की रैंकिंग 1 से 491 पहुंचाई

बच्चे संभालते-संभालते औरत के करियर का कब सत्यानाश हो जाता है, यह कोई सेरेना विलियम्स जैसी मशहूर टेनिस स्टार के केस से समझ सकता है. बच्ची पैदा करने से पहले उनकी वर्ल्ड रैंकिंग 1 थी, और मेटरनिटी लीव से लौटकर आने के बाद 491 पर धड़ाम से गिरी थीं. इसके बावजूद कि आठ हफ्ते की गर्भावस्था के साथ सेरेना ऑस्ट्रेलियन ओपन जीत चुकी थीं. तब कोई जानता भी नहीं था कि वह गर्भवती हैं.

आठ हफ्ते की गर्भावस्था के साथ सेरेना ऑस्ट्रेलियन ओपन जीत चुकी थीं(फोटो: इंस्टाग्राम)

नॉर्वे का डैडीज कोटा

यहां नॉर्वे का उदाहरण लिया जा सकता है. वहां एक नीति लागू है- डैडीज कोटा. वहां 1 जुलाई, 2018 के बाद पिता बनने वाले पुरुष कर्मचारियों को 15 हफ्ते की नॉन ट्रांसफरेबल पेरेंटल लीव मिलती है. 1993 में वहां ऐसे कोटे की शुरुआत हुई थी. यूज इट ऑर लीव इट पेरेंटल कोटा के उस दौर में सिर्फ 3% पुरुषों ने यह छुट्टी ली थी. लेकिन धीरे-धीरे इस नीति से औरतों के लिए काम पर लौटना आसान हुआ और पुरुषों ने बच्चा संभालना सीखा. 2012 में छोटे बच्चे वाली 83% मांएं काम कर रही थीं, यह प्रतिशत बिन बच्चे वाली कामकाजी औरतों के बराबर ही था.

हालांकि औरतें बाई डीफॉल्ट केयरगिवर बन जाती हैं. लेकिन बच्चे की जिम्मेदारी पूरे परिवार की होती है. परिवार यानी पति, ससुराली, मायके वाले, प्रशासन तक की. बच्चे सिर्फ मां के लिए एसेट नहीं होते. यह पूरे समाज के लिए एसेट होते हैं. उनके अच्छे लालन-पालन का दायित्व सभी का है. जुलेखा जैसों की दुविधा का इलाज तभी निकाला जा सकता है.

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