यूनाइटेड नेशंस की एक रिपोर्ट बताती है कि भारत में एक दलित महिला औसत सवर्ण महिला के मुकाबले 14 .6 साल पहले मर जाती है. उन्हें विशेष संरक्षण की जरूरत है. ऐसा ही संरक्षण महिलाओं के तमाम और समूहों को चाहिए.
फेमिनिज्म के शुरुआती दौर में, जब दुनिया में पहली बार महिलाओं के मुद्दे उठाए गए, तो ऐसा कहा गया कि सब महिलाएं एक जैसी होती है, और सभी पुरुषसत्ता/पितृसत्ता की शिकार होती है. उनके मसले भी एक जैसे है. यहां औरत और मर्द का द्वैत यानी बाइनरी देखने की कोशिश की गई, जिसे प्रसिद्ध महिला लेखिका सिमॉन द बुआ “अदर” कहती हैं. यानी जो पुरुष नहीं हैं, वे सब पुरुषों की सत्ता से पीड़ित हैं, उनके उत्पीड़न की कहानियां एक जैसी हैं, वे सभी हाशिए पर हैं और जो भी इन सवालों को उठाता है, उन्हें सनकी करार दिया जाता है.
इसलिए महिला मुद्दों पर एक व्यापक एकता की कल्पना भी की गई. गौर करने की बात है कि महिलाओं की यह समानता पुरुषों द्वारा भी स्थापित की गई. महिलाओं का कमजोर होना, मानसिक रूप से दुर्बल होना, प्रशासनिक पदों के लिए अयोग्य होना, परिवार चलाने में अक्षम होना जैसे स्टीरियोटाइप हर तरह की महिलाओं पर थोपे गए. पुरुष विमर्श में सारी महिलाएं एक ही तराजू पर तोली जाती हैं.
इस तरह की बातें अक्सर सोशल मीडिया पर भी पढ़ने को मिल जाती है कि क्या अपरकास्ट या शहर की महिला का रेप नहीं होता? क्या दोनों के साथ हिंसा नहीं होती? क्या अमीर और गरीब दोनों तरह की महिलाएं पारिवारिक हिंसा की शिकार नहीं हैं, क्या दोनों तरह की महिलाओं को संपत्ति के अधिकार से वंचित नहीं किया जाता है? ये बात सही भी लगती है. जहां गांव की औरतों और दलित औरतों पर हिंसा होती है तो शहर, अपरकास्ट और अमेरिका या यूरोप के संदर्भ में श्वेत महिलाओं के साथ भी तो हिंसा होती है. चाहे वो पारिवारिक हो या परिवार से बाहर.
समाजशास्त्र की प्रोफेसर मैत्रयी चौधरी ने 1930 की एक भारतीय नारीवादी को कोट करते हुए लिखा है कि सारी साड़ी पहनने वाली बहनें हैं. लेकिन सवाल उठता है कि क्या सारी बहनें एक जैसी हो सकती है? क्या उनके साथ होने वाला शोषण एक जैसा होता है? क्या शोषण से बच निकल जाने के मौके एक गरीब और अमीर महिला के एक जैसे हो सकते है?
क्या अमेरिका की एक ब्लैक महिला के संघर्ष सिर्फ उतने ही है जितने वहां की व्हाइट महिला के? क्या भारत की एक दलित महिला की वही चुनौतियां हैं, जो अपरकास्ट महिला की हैं? क्या शहर की लड़की की वही चुनौतियां है जो गांव की लड़की की? क्या आदिवासी महिला के हकों की बात अलग ढंग से किये बिना महिला अधिकारों की बात की जा सकती है? क्या एक लेस्बियन महिला के संघर्ष वही है जो स्ट्रेट महिला के या फिर ट्रांसजेंडर के सवालों को अलग से उठाने की जरूरत नहीं है?
क्या इन अलग अलग किस्म की और पृष्ठभूमि की महिलाओं के अलग किस्म के सवालों को यह कहकर दबा दिया जाए कि ऐसे करने से महिलाओं की एकता कमजोर होती है और इससे पुरुषों को फायदा होगा?
सच्चाई तो यही है कि समाज में एक परत के नीचे होती है कई सारी परतें. और जब ऊपर से नीचे की तरफ जाएंगे तो हर परत पहली परत से गहरी होती जाती है. बिल्कुल ऐसा ही समाज के ऊपरी तबके से नीचे की तरफ आने पर पता चलता है कि मसले गहरे और गंभीर होते जाते है. शहर की औरत की सब समस्याएं गांव की औरत की भी है, लेकिन गांव की औरत की सब समस्याएं शहर की औरत की नहीं होंगी.
गांव की औरतें स्त्री पुरुष संबंधों में वो सब तो झेलती ही हैं, जो शहर की महिलाओं की समस्याएं हैं, लेकिन साथ में वे गांव के सामंतवाद का एक अतिरिक्त बोझ उठाती हैं. इसी तरह दलित और पिछड़ी जातियों की महिलाएं पितृसत्ता के साथ जातिसत्ता का दोहरा बोझ उठाती हैं. एक ग्रामीण दलित महिला इन दो बोझ के अलावा गांव के सामंतवाद का एक और बोझ ढोती हैं.
जब हम महिला अधिकारों की बात करते है तो एक हिस्से की बात करके नहीं रह सकते. हमें सभी महिलाओं की बात करनी होगी. और उनकी बातचीत करते समय उनकी विशिष्ट स्थितियों का ख्याल रखना होगा. मिसाल के तौर पर यूनाइटेड नेशंस की रिपोर्ट Turning promises into action: gender equality in the 2030 Agenda बताती है कि भारत में दलित महिला एक अपर कास्ट महिला के मुकाबले 14.6 साल पहले मर जाती है.
यानि उनकी एवरेज लाइफ 14.6 साल कम है. ऐसे में जरूरी है कि दलित महिलाओं के कुपोषण को दूर करने के लिए कुछ अतिरिक्त उपाय किए जाएं. उनके स्वास्थ्य के लिए भी अलग से बंदोबस्त होने चाहिए. इसी तरह भारत में पुरुषों की साक्षरता दर 82 फीसदी है और महिलाओं की साक्षरता दर 65 फीसदी है. इस मामले में सभी महिलाओं पर एक साझा बोझ है.
लेकिन दलित महिलाओं की साक्षरता दर 56 फीसदी और आदिवासी महिलाओं में यह दर 50 फीसदी है. जाहिर है कि दलित और आदिवासी महिलाओं को साक्षर बनाने के लिए कुछ अतिरिक्त उपाय करने की जरूरत है. ऐसे अलग उपायों की मांग करने से महिला आंदोलन कमजोर नहीं हो जाएगा. बल्कि इसकी अनदेखी की गई तो महिला आंदोलन में दलित महिलाओं की उपस्थिति सुनिश्चित करना मुश्किल हो जाएगा या फिर वे आएंगी भी तो बेमन से.
यह भी पढ़ें: घरेलू हिंसा से मुक्ति चाहिए तो खरीदिए अपने नाम पर मकान
बोनी जी स्मिथ अपनी किताब विमेंस स्टडीज : द बेसिक्स में ये बताती है कि इंडियन फेमिनिस्ट्स इस बात का सबसे ज्यादा विरोध करती है कि सब महिलाओं के मुद्दे समस्याएं एक जैसे नहीं है. यह भारतीय नारीवादी लेखिकाओं की एक बड़ी समस्या है. भारतीय नारीवादी आंदोलन, नारीवादी शिक्षिकाएं और लेखिकाएं आम तौर पर सवर्ण और शहरी हैं. इसलिए वे उन सवालों से या तो वाकिफ नहीं हैं, जो अन्य महिलाओं के लिए महत्वपूर्ण हैं. या फिर वे जानबूझकर उनकी अनदेखी करती हैं. दोनों ही स्थितियां ठीक नहीं हैं.
यह भी पढ़ें: स्टीयरिंग संभालती औरतें सड़कों को सुरक्षित बना रही हैं
(क्विंट हिन्दी, हर मुद्दे पर बनता आपकी आवाज, करता है सवाल. आज ही मेंबर बनें और हमारी पत्रकारिता को आकार देने में सक्रिय भूमिका निभाएं.)