“मैं क्यों वोट करूं जब कोई इसके लिए पूछने तक नहीं आता”
चेहरे पर बेरुखी दिखाते हुए ऐसा कह रहे हैं फौजदार. फौजदार एक किसान हैं और उनकी उम्र लगभग 50 के आसपास होगी.
फौजदार के गांव पचीसा के ज्यादातर लोग भी उनकी तरह ही सोचते हैं. उत्तरप्रदेश के सीतापुर जिले से लगभग 80 किलोमीटर दूर इस गांव में 350 परिवारों की बसावट होगी. ये गांव दो नदियों शारदा और घाघरा से घिरा है.
इस गांव की लोकेशन इसे लगभग अदृश्य बनाती है. यहां तक कि स्थानीय प्रशासन का भी ध्यान इसपर नहीं जाता है.
इस गांव तक सिर्फ नाव के जरिए ही पहुंचा जा सकता है. हमने सीतापुर से लगभग 2 घंटे तक का सफर गाड़ी से तय किया फिर एक पक्के रास्ते से होते हुए और आधे घंटे का सफर किया. इसके बाद 20 मिनट पैदल चलने पर हम नाव लगने की जगह तक पहुंच पाए.
कभी-कभी नदी नाव के भीतर भी दिख जाती है. “नाव की पेंदी’ में थोड़ी गड़बड़ी है इसलिए पानी अंदर आ जाता है”. शांति से पुतीराम बताते हैं.
“इस नदी को पार करने में लगभग एक घंटे का समय तो लग जाएगा. नदी के पार 4 एकड़ में मसूर की खेती है.” छिछले पानी में नाव खेते हुए सुरेश बता रहा है.
350 परिवारों के गांव में सुरेश 11 उन लोगों में एक है जिसके पास नाव है.
360 व्यू: द क्विंट से आकिब रजा खान और नीरज गुप्ता नाव से गांव पचीसा की ओर.
“इस गांव में आपको कैसी दिक्कतों का सामना करना पड़ता है?”
“सैगर हई. कइसन बताईं? (बहुत सी हैं कैसे बताऊं?)“
“क्या मैं आपका नाम जान सकता हूं?”
“हमारे गांव में औरतें अपना नाम नहीं बताती.”
“मैं क्यों वोट करुं जब कोई इसके लिए पूछने तक नहीं आता.”
फौजदार तल्खी से कहता है.
“क्या ये टाॅर्च काम करता है?”
“नहीं भईया. ई खराब पड़ा है.”
फौजदार जानकारी देता है.
“मेरे 6 बेटे, 3 बेटियां, 3 बहुएं, 4 पोते और पति हैं. मेरे पास भी नाव थी. लेकिन बाढ़ से सब खत्म हो गया. नाव हमारी एकमात्र सहारा थी.”
फोटो क्लिक कराने के लिए साड़ी ठीक करती हुई छूटकू ये सब बताती हैं.
“मैं किसी को भी वोट दे दूंगी जो मुझे रहने के लिए थोड़ी ऊंची जगह दे दे. मैं लगातार अपने बच्चों के ठिकाने को लेकर चिंता में रहती हूं. मुझे डर है कि वो किसी दुर्घटना में डूब न जाएं. बरसात में तो और भी बुरी हालत हो जाती है.” चारों तरफ से अपने बच्चों से घिरी 35 साल की गुलाब रानी कहती है. राज करण (2), सोनी (6), अंकित (12) गुलाब के बच्चे हैं.
ये बच्चे स्कूल नहीं जाते क्योंकि स्कूल नदी की दूसरी तरफ पड़ता है. वहां आने-जाने के लिए कोई सुरक्षित रास्ता नहीं है.
360 व्यू: पसीचा गांव के रामपरसाद की झोंपड़ी.
दिनभर मछली पकड़ने के बाद फुरसत से खाना खाते हुए रामपरसाद कहता है- “मैं खुश हूं. थोड़ा मुश्किल है पर हम काट लेते हैं.” रामपरसाद के चेहरे पर मुस्कुराहट दिखती है.
“वोटर के तौर पर मेरा नाम दर्ज है पर मेरे पास वोटर कार्ड नहीं है. जब मैं बूथ पर वोट डालने जाता हूं तो ले जाने वाले लोग हमें पर्ची देते हैं. कभी-कभी राजनीतिक पार्टी हमें लेकर जाते हैं.” परसाद कहता है.
गांव में बिजली नहीं है. लोग जुगाड़ से काम चलाते हैं जैसे रिचार्जेबल बैटरी.
परसाद कहता है- “हम छोटे सोलर पैनल से बैटरी रिचार्ज करते हैं.”
“आपके पास मोबाइल फोन भी है?” मैंने रामपरसाद से पूछा.
“अरे, आपको इस गांव में लोगों से ज्यादा मोबाइल फोन दिखेगा.” हंसते हुए रामपरसाद कहता है.
कई चुनाव आए और गए लेकिन पसीचा अबतक अछूता रहा है विकास से. नदी के साथ रह रहे लोगों की जान हमेशा जोखिम में रहती है.
धारा के इस ‘गुप्त गांव’ को एक राजनीतिक इच्छाशक्ति की जरुरत है जो इसके भाग्य को बदल सके.
क्या 2017 का यूपी चुनाव इनके लिए उम्मीद लेकर आएगा?
(यह फोटो स्टोरी पहली बार द क्विंट पर छपी थी. इसका हिंदी अनुवाद कौशिकी कश्यप ने किया है.)
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