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देश की एक चौथाई से अधिक आबादी की बजट में हिस्सेदारी केवल 5.92%,इस बार क्या होगा?

आंकड़े बताते हैं कि अनुसूचित जाति के 54.6% और जनजातियों के 35.65% लोग भूमिहीन होने के साथ मजदूरी पर निर्भर हैं.

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आगामी एक फरवरी को संसद में वित्तमंत्री द्वारा पेश किया जाने वाला बजट सरकार प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी(PM Modi) के नेतृत्व वाली सरकार का नौवां बजट होगा. पिछले आठ सालों में वित्तमंत्री ने सबका बजट (2015-16), विकास का बजट, बेहतर भारत का बजट, नए भारत का बजट, जन जन का बजट और पिछले साल आत्मनिर्भर भारत का बजट पेश किया है. सुंदर शब्दों और मंतव्यों वाले यह बजट क्या देश के सबसे पिछड़े, दलित और आदिवासी समुदायों की अकांक्षाओं पर खरे उतरे हैं?

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अनुसूचित जातियों और जनजातियों की जमीनी हालत के मामले में जस्टिस अरुण मिश्रा, जस्टिस एमआर शाह और जस्टिस बीआर गवई की पीठ का अनुसूचित जाति, जनजाति अत्याचार (निवारण) एक्ट पर दिए गए फैसले का उल्लेख करना अनुचित नहीं होगा. इस फैसले के अनुसार “समानता के लिए अनुसूचित जाति और जनजातियों का संघर्ष देश में अभी खत्म नहीं हुआ है.” इस पीठ ने यह भी कहा कि समाज में अभी भी इस वर्ग के लोग छुआछूत और अभद्रता का सामना सामना कर रहे हैं और वे बहिष्कृत जीवन गुजारते हैं. अदालत ने कहा, “संविधान के अनुच्छेद-15 के तहत अनुसूचित जाति और जनजातियों के लोगों को संरक्षण प्राप्त है, लेकिन इसके बावजूद उनके साथ भेदभाव हो रहा है.”

आंकड़े बताते हैं कि अनुसूचित जाति के 54.6% तथा जनजातियों के 35.65% लोग भूमिहीन व मजदूरी पर निर्भर हैं. एक रिपोर्ट के मुताबिक अनुसूचित जातियों में 53.2% लोग गरीब हैं, जिनमें 5.71 करोड़ लोग अत्यंत गरीब हैं. अनुसूचित जनजातियों के 74.1 फीसद लोग गरीब या बेहद गरीब हैं. सामाजिक-आर्थिक जातिगत जनगणना, 2011 के अनुसार 83.56% अनुसूचित जातियों तथा 86.53% आदिवासियों की आमदनी 5 हज़ार रूपये से कम थी. अगड़ी जातियों के 35.3% अमीर लोगों के मुकाबले अनुसूचित जातियों में यह संख्या मात्र 9.5% है.

इन दोनों ही समुदायों की शिक्षा के आंकड़े भी काफी चिंताजनक हैं. वर्ष 2011 की जनगणना के आंकड़ों के अनुसार आदिवासियों की कुल 10.45 करोड़ आबादी में 5.28 करोड़ लोग निरक्षर थे, जिसमें 2.24 करोड़ पुरुष तथा 3.04 करोड़ महिलाएं थीं. अनुसूचित जतियों में 43.51% लोग निरक्षर थे.

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अनुसूचित जातियों और जनजातियों की सामाजिक स्थिति का अंदाज़ा उनपर होने वाले अत्याचारों की संख्या से आसानी से लगाया जा सकता है. पिछले 25 सालों में अनुसूचित जतियों पर 834591 अत्याचार की घटनाएं हुई हैं, जिनमें उनकी 16792 हत्याएं, 35,845 बलात्कार, 87,207 गंभीर रूप से घायल करने, 9616 आगजनी की घटनाएं और 4,83,146 अत्याचार की अन्य घटनाएं शामिल हैं.

इसी दौरान आदिवासियों पर 1,17,822 अत्याचार की घटनाएं हुईं, जिनमें उनकी 3350 हत्याएं, 13,937 बलात्कार, 15,828 गंभीर रूप से घायल करने, 1027 आगजनी की घटनाएं और 69772 अत्याचार की अन्य घटनाएं शामिल हैं.

आजाद भारत के अमृत महोत्सव में यह बताना अनुचित न होगा भारत का पहला केन्द्रीय बजट (1947-48), मात्र 197.38 करोड़ रुपये का था. इसके मुक़ाबले 2021-22 के केन्द्रीय बजट की राशि 17,647 गुना से भी अधिक 34,83,236 रुपये करोड़ थी. निश्चित तौर पर इतने विशाल संसाधनों वाला बजट अनुसूचित जातियों और जनजातियों के सशक्तिकरण की जरूरतों, उनकी सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों, विकास की अपेक्षाओं और आकांक्षाओं को पूरा करने में सक्षम है. लेकिन, इसके लिए इन समुदायों के विकास और सामाजिक-आर्थिक जरूरतों के लिए संसाधनों का न्यायोचित बजटीय आबंटन जरूरी है.

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पिछले आठ सालों में अनुसूचित जातियों और जनजातियों के लिए किए गए बजट आबंटन और वास्तविक खर्च के आंकड़े नीचे दिये गए हैं. न केवल इन आठ सालों में, अपितु इनके पहले वाले किसी भी साल में अनुसूचित जातियों और जनजातियों का आबंटन सरकारों की तमाम नीति, नीयत और घोषणाओं के बावजूद उनकी जरूरतों और जनसंख्या के अनुपात से कोसों दूर हैं. 2021-22 के बजट में अनुसूचित जातियों और जनजातियों के बजट में अभूतपूर्व 69,592 करोड़ रुपए की वृद्धि स्वागत योग्य कदम है, लेकिन देश की एक चौथाई से अधिक आबादी के लिए केवल 5.92% के आबंटन को किसी भी आधार पर न्यायोचित नहीं ठहराया जा सकता.

अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों का बजट

आंकड़े बताते हैं कि अनुसूचित जाति के 54.6% और जनजातियों के 35.65% लोग भूमिहीन होने के साथ मजदूरी पर निर्भर हैं.

एक तो अनुसूचित जातियों और जनजातियों को आबंटित बजट उनकी जरूरतों और अपेक्षाओं के अनुरूप नहीं है, दूसरी ओर आबंटित बजट राशि के आबंटन के तरीके और उसके उपयोग में भी सुधार की बहुत गुंजाइश है. दलित एवं आदिवासी संगठनों के दबाव के चलते अनेक सालों से सरकारें अनुसूचित जातियों और जनजातियों के बजट के विवरण को क्रमश: सारणी 10क और 10ख के रूप में शामिल करती हैं, लेकिन देखा गया है कि अनुसूचित जातियों के सशक्तिकरण के लिए उत्तरदाई सामाजिक अधिकारिता और सशक्तिकरण मंत्रालय और आदिवासियों के विकास के लिए उत्तरदाई आदिवासी मामलों के मंत्रालय का अपने-अपने मंत्रालयों के बजट से इतर अनुसूचित जाति या जनजाति के विकास या लाभ के लिए अन्य विभागों या मंत्रालयों द्वारा आबंटित राशि पर कोई व्यावहारिक नियंत्रण नहीं होता.

उदाहरण के लिए 2021-22 के अनुसूचित जातियों के कुल 1,26,259 करोड़ रुपये के बजट में सामाजिक अधिकारिता और सशक्तिकरण मंत्रालय का बजट केवल 7751.62 करोड़ रुपये था. इसी तरह अनुसूचित जनजातियों के कुल 79941 करोड़ रुपये के बजट में आदिवासी मामलों के मंत्रालय का बजट मात्र 7524.87 करोड़ रुपये था.

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अधिकांश मंत्रालयों और विभागों में अनुसूचित जातियों और जनजातियों के बजट के क्रियान्वयन का कोई ढांचा नहीं है. उदाहरण के लिए 2021-22 में अनुसूचित जातियों के लिए किए गए निम्न आबंटन को देखिये.

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ये सारणी बताती है कि अनुसूचित जातियों को सशक्त बनाने वाली शिक्षा में उनका आबंटन काफी कम है, और उनकी प्रत्यक्ष जरूरतों से अपेक्षाकृत कम संबंध वाले कृषि, सहकारिता और कृषक कल्याण, एवं ग्रामीण विकास विभाग, में आबंटन काफी अधिक रखा गया है.

अनुसूचित जातियों और जनजातियों के लिए आबंटित बजट की इन गंभीर खामियों को बजट निर्माताओं और प्रशासनिक अमला इन समुदायों के संगठनों, सामाजिक कार्यकर्ताओं और प्रतिनिधियों के साथ नियमित विचार-विमर्श की प्रक्रिया के साथ-साथ प्रत्येक विभाग में “अनुसूचित वर्ग सशक्तिकरण सेल” बनाकर दूर किया जा सकता है.

(लेखक नेशनल कॉन्फ़ेडरेशन ऑफ दलित एन्ड आदिवासी आर्गेनाईजेशन्स (नैक्डोर) के अध्यक्ष हैं, ये लेखक के अपने विचार हैं इनसे क्विंट का सहमत होना जरूरी नहीं है.)

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