खबरें आ रही हैं कि देश की दूसरी सबसे बड़ी आईटी सर्विसेज कंपनी इंफोसिस में सीईओ और संस्थापकों के बीच घमासान छिड़ गया है. ऐसे समय में जब डोनाल्ड ट्रंप के अमेरिकी राष्ट्रपति बनने के बाद से देश की आईटी सर्विसेज कंपनियों के लिए मुसीबतें लगातार बढ़ रही हैं, क्या यह ताजा विवाद कंपनी की मुसीबतें और बढ़ा नहीं देगा?
आखिर संस्थापकों को किससे गुस्सा है और दोनों ओर से तलवारें क्यों खिच गई हैं?
विवाद की जड़
एनआर नारायणमूर्ति और दूसरे संस्थापकों की आपत्तियों की एक लंबी लिस्ट है. लेकिन तीन मामले बड़े हैं. पहला है कंपनी के सीईओ की लगातार बढ़ती सैलरी. संस्थापकों की तरफ से यह बात उठ रही है कि जब कंपनी के मुनाफे तेजी से नहीं बढ़ रहे हैं, ऐसे में क्या कंपनी के चीफ एक्जीक्यूटिव की तनख्वाह इतनी तेजी से बढ़नी चाहिए.
दूसरा विरोध कंपनी छोड़कर जाने वालों को दी जाने वाली मोटी रकम पर है. हाल में कंपनी से सीएफओ ने नौकरी छोड़ी, तो उन्हें 23 करोड़ रुपये का पैकेज दिया गया.
तीसरा विरोध कंपनी के बोर्ड के कामकाज को लेकर है. फाउंडर का कहना है कि बोर्ड ने कंपनी के फैसलों पर सही तरीके से निगरानी नहीं रखी है.
क्या सीईओ को जाना होगा
इंफोसिस में फाउंडर्स की हिस्सेदारी 13 फीसदी से कम है. ऐसे में बाकी निवेशकों का भरोसा जब तक सीईओ को मिलता रहेगा, उनकी कुर्सी बची रहेगी. एक बड़े निवेशक ने तो खुलेआम सीईओ के समर्थन का ऐलान भी कर दिया है. हां, इस विवाद से कंपनी की साख को जरूर धक्का लगेगा.
क्या कंपनी मैनेजमेंट में फाउंडर फिर से वापसी का रास्ता बना रहे हैं
नारायणमूर्ति इंफोसिस में पहले भी एक बार रिटायर होने के बाद वापसी कर चुके हैं. हाल के दिनों में रतन टाटा ने भी सायरस मिस्त्री को हटाकर टाटा संस की खुद कमान संभाल ली. ऐसे में फिर से चर्चा हो रही है कि क्या इंफोसिस के फाउंडर्स एक प्रोफेशनल मैनेजमेंट को आत्मसात नहीं कर पा रहे हैं?
लेकिन नारायणमूर्ति ने साफ कर दिया है कि उन्हें कंपनी के सीईओ विशाल सिक्का की क्षमता पर पूरा भरोसा है और उनकी कंपनी के कामकाज में दखल देने की कोई दिलचस्पी नहीं है.
ऐसे में लगता है कि इंफोसिस में टाटा-मिस्त्री विवाद का एक्शन रिप्ले होगा, इसकी संभावना काफी कम है. हां, एक बात साफ हो गया है कि आगे भी प्रोफेशनल मैनेजमेंट और कंपनी के फाउंडर्स के बीच तनाव देखा जाएगा.
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