गुड्स एंड सर्विस टैक्स यानी जीएसटी (GST) के पांच साल पूरे हो गए हैं. बीते पांच सालों में जीएसटी ने काफी कुछ देखा है. कलेक्शन से लेकर बिलिंग तक, स्लैब से लेकर राज्यों की क्षतिपूर्ति तक कई ऐसे मुद्दे रहे हैं जिसको लेकर जीएसटी सुर्खियों में रहा है. आइए जानते हैं बीते पांच वर्षों में गुड्स एंड सर्विस टैक्स कितना गुड (अच्छा) और कितना बैड (खराब) रहा है.
GST कलेक्शन और फाइलिंग के आंकड़े क्या कहते हैं
साल दर साल होने वाले वाली वृद्धि पर नजरें दौड़ाएं तो वित्तीय वर्ष 2021-22 में गुड्स एंड सर्विस टैक्स (GST) के कलेक्शन में 26.9 फीसदी की बढ़त हुई है. वहीं औसतन मासिक कलेक्शन (संग्रह) 1.23 ट्रिलियन रुपये को छू गया है, जोकि 2017 के बाद से सबसे अधिक है.
अबतक के सबसे ज्यादा मासिक कलेक्शन की बात करें तो अप्रैल 2022 में 1.68 ट्रिलियन रुपये का मासिक संग्रह हुआ था.
जून (2022) में GST कलेक्शन सालाना आधार पर 56 फीसदी के इजाफे का साथ 1.45 लाख करोड़ रुपये पर पहुंच गया. मई 2022 में सरकार को GST के तौर पर 1.4 लाख करोड़ रुपये की आमदनी हुई थी. वहीं, पिछले साल जून में 92,800 करोड़ रुपये का कलेक्शन हुआ था.
GST फाइलिंग करने वालों की गिरती संख्या चिंता का विषय
जहां एक ओर जीएसटी संग्रह नई ऊंचाईयों को छू रहा है वहीं दूसरी ओर जीएसटी फाइल करने वालों की संख्या में गिरावट देखने को मिली है. बिजनेस स्टैंडर्ड द्वारा किए गए विश्लेषण को देखें तो यह पता चलता है कि वित्त वर्ष 22 में GSTR-3B के तहत दाखिल रिटर्न में सालाना आधार पर 13.8 फीसदी की गिरावट आई है. वित्त वर्ष19-20 में 9.3 मिलियन की तुलना में वित्त वर्ष-22 में औसतन 7.9 मिलियन रिटर्न ही मासिक तौर पर फाइल किए गए हैं.
GST कितना अच्छा और कितना सरल? क्या अच्छा, क्या बुरा?
1 जुलाई 2017 को जब जीएसटी को लागू किया गया था तब प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ने GST को अपने शब्दों में परिभाषित करते हुए कहा था "गुड एंड सिंपल टैक्स" यानी कि "अच्छा और सरल टैक्स". जीएसटी को काफी वाद-विवाद के बाद लागू किया गया था. तब अरुण जेटली ने 'साम-दाम-दंड-भेद' की युक्ति अपनाते हुए राज्यों और राजनीतिक दलों को इसके लिए तैयार किया था. इसी वजह से संसद में जीएसटी विधेयक 410-0 से ऐतिहासिक तौर पर सर्वसम्मति से पारित हुआ था.
जीएसटी को लेकर खूब बयानबाजी हुई थी, काफी गुणगान किया गया था लेकिन GST लागू होने के बाद जल्द ही इसकी कलई खुलने लगी. शुरु ही इसमें उलझनें देखने को मिलने लगी. यह हमेशा ही छोटे व्यवसायाें और अनौपचारिक क्षेत्र को प्रभावित करने वाला रहा, क्योंकि जीएसटी के तर्कों में से एक औपचारिकता भी था. विमुद्रीकरण यानी नोटबंदी के बाद जीएसटी लागू होने परजीडीपी पर बुरा असर देखने को मिला. पूर्व प्रधानमंत्री और अर्थशास्त्री मनमोहन सिंह ने सीएनबीसी-टीवी18 को दिए एक इंटरव्यू में कहा था कि नोटबंदी और जीएसटी की वजह से जीडीपी में 40 फीसदी का योगदान देने वाले असंगठित क्षेत्र और छोटे पैमाने पर होने वाले कारोबार को दोहरा झटका लगा है.
विशेषज्ञों का मानना है कि GST संग्रहण पर अर्थव्यवस्था की वर्तमान स्थिति का काफी असर देखने को मिला है, आत्मविश्वास की कमी और भय के कारण निवेशक निवेश करने से कतरा रहे हैं और वैश्विक महामारी के कारण अर्थव्यवस्था की मांग में वृद्धि नहीं हो रही है जिसका स्पष्ट प्रभाव GST राजस्व पर पड़ रहा है.
जिस सरलता का जिक्र हुआ था उसकी कुर्बानी हुई
बिजनेस स्टैंडर्ड में प्रकाशित अपने लेख में भारत सरकार के पूर्व मुख्य आर्थिक सलाहकार अरविंद सुब्रमण्यन ने लिखा है कि सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि जीएसटी को लेकर उच्चतम राजनीतिक स्तरों पर सरलता के बारे में जो दृढ़ विश्वास होना चाहिए वे गायब था.
वे आगे लिखते हैं "मैंने जिस समिति की अध्यक्षता की थी उसमें जीएसटी स्ट्रक्चर के तीन रेट की सिफारिश की गई थी. निम्न Low (आवश्यक वस्तुओं या उत्पादों के लिए), स्टैंडर्ड (अधिकांश उत्पादों के लिए) और उच्च high (शौकिया और लग्जरी उत्पादों के लिए). लेकिन राजस्व को संरक्षित करते हुए उस सरलता को प्राप्त करने के लिए कुछ प्रचलित निम्न दरों को बढ़ाने की जरूरत थी जो राजनीतिक रूप से वर्जित थी. ऐसे में सरलता की कुर्बानी दी गई."
पूर्व वित्त मंत्री ने गिनाई कमियां
पूर्व वित्त मंत्री पी चिदंबरम ने एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में GST को लेकर कहा है कि जीएसटी अपना पांचवां जन्मदिन मना रहा है लेकिन वास्तव में जश्न मनाने के लिए कुछ भी नहीं है. यह एक त्रुटिपूर्ण, दोषपूर्ण और अस्थिर जीएसटी है. इस जीएसटी में कुछ जन्मजात त्रृटियां थीं जो पिछले पांच वर्षों में बद से बदतर हो गई हैं. यूपीए सरकार द्वारा जिस जीएसटी की परिकल्पना की गई थी वह आज के तथाकथित जीएसटी में लागू नहीं है. चिदंबरम ने कहा हम (कांग्रेस) मौजूदा जीएसटी को जीएसटी 2.0 से बदलने की दिशा में काम करेंगे जो सिंगल, लो-रेट होगा.
आज हमारे पास जो जीएसटी है वह कई दरों, शर्तों, अपवादों और छूटों का एक जटिल जाल है जो एक जानकार करदाता को भी पूरी तरह से चौंका देता है. सभी पंजीकृत डीलर सूचित करदाता नहीं हैं; नतीजतन, वे कर-संग्राहक की दया पर जी रहे हैं.पी चिदंबरम, पूर्व वित्त मंत्री और कांग्रेस नेता
प्रेस वार्ता में बताया गया कि खराब GST के चलते सरकार को पिछले पांच सालों में हर दूसरे दिन एक बदलाव करना पड़ा है. कांग्रेस वर्तमान जीएसटी को खारिज करती है. पिछले 5 साल में 869 अधिसूचनाएं, 143 परिपत्र और 38 आदेश जारी किए हैं.
एम्पावर्ड कमेटी ने ठीक काम किया लेकिन GST काउंसिल कठपुतली जैसी है
प्रेस कॉन्फ्रेंस में कहा गया कि GST काउंसिल आने के पहले जो काम किया जाता था वह एम्पावर्ड कमेटी द्वारा किया जाता था. एम्पावर्ड कमेटी की यह कमेटी वित्त मंत्रियों की एक समिति थी. एम्पावर्ड कमेटी ने बिल्कुल निष्पक्षता के साथ अपना काम किया. 2016 में जब जीएसटी काउंसिल बना तो यह एक कठपुतली बन गई.
चिदंबरम ने और क्या कहा?
इस त्रुटिपूर्ण जीएसटी ने MSME को बड़े पैमाने पर विनाश किया है. MSME एक ऐसा क्षेत्र है जो 90 प्रतिशत तक नौकरियों का योगदान देता है.
सरकार द्वारा लाए गए जीएसटी का सबसे बुरा परिणाम केंद्र और राज्यों के बीच विश्वास का पूर्ण रूप से टूटना रहा है.
नोटबंदी सरकार का पहला तुगलकी फरमान था, जबकि जीएसटी दूसरा, जिसने अर्थव्यवस्था को नुकसान पहुंचाया.
कर दरों में कोई भी परिवर्तन छोटे व्यवसायों के गहरे घावों में चाकू से उसे और गहरा करने जैसा है.
जीएसटी के 5 साल बाद भी दाखिल की जाने वाली रिटर्न की संख्या का कोई युक्तिसंगत आधार नहीं है.
ई.वे बिल और ई.चालान का पालन आसान नहीं है.
रिफंड का दावा करना एक बुरे सपने की तरह है और इसके लिए अदालतों में हजारों मामले चल रहे हैं.
राज्यों को उनकी इच्छा के विरुद्ध क्षतिपूर्ति सेस व्यवस्था को स्वीकार करने के लिए मजबूर किया गया. कई राज्यों के वित्त मंत्रियों ने सार्वजनिक रूप से इस संबंध में केन्द्र पर विश्वासघात करने का आरोप तक लगाया है.
कई राज्यों ने तो जीएसटी पर पुनर्विचार तक की मांग कर दी है.
राज्यों की चिंता
अरविंद सुब्रमण्यन ने अपने लेख में लिखा है कि क्षतिपूर्ति ठीक वैसी ही निकली जैसा कि अनुमान लगाया गया था. राज्य नई और पहले कभी प्रयुक्त नहीं की गई टैक्स प्रणाली में रेवेन्यू को लेकर चिंतित थे लेकिन जहां एक ओर GST क्षतिपूर्ति ने राज्यों की इस चिंता के प्रति आश्वस्त किया, वहीं दूसरी ओर जिस बात का डर था वह नैतिक खतरा भी पैदा हुआ. 2019 में केंद्र ने रेट-कटिंग उन्माद शुरू किया. कुछ मायनों में क्षतिपूर्ति जरूरी थी और इसके बाद के नैतिक खतरे ने इसे अपरिहार्य बना दिया.
क्षतिपूर्ति सेस से पैदा हुआ भेदभाव
अरविंद सुब्रमण्यन लिखते हैं कि मैं क्षतिपूर्ति सेस (compensation cess) नहीं चाहता था और मुझे लगा था कि क्षतिपूर्ति केंद्र सरकार के खजाने से आनी चाहिए. लेकिन इसके उलट राजस्व विभाग ने यह सोचा कि रेट कटिंग के खिलाफ इंसेंटिव्स होना चाहिए. इसमें राज्यों की भी भागीदारी होनी चाहिए. यदि क्षतिपूर्ति अनिवार्य हो गई तब GST काउंसिल के अंदर बोझ साझा करने वालों के साथ दरों में वृद्धि की सामूहिक कार्रवाई का रास्ता तय करना था. उस समय यह सिद्धांत उचित लग रहा था. लेकिन फिर कोरोना आया जिसकी आशंका किसी को भी नहीं थी. इसने भारत के फेडरल फाइनेंस के डिजाइन में एक गहरी खामी को उजागर किया. यहां राज्यों को काफी आधात पहुंचा. इस स्थिति में क्षतिपूर्ति सेस व्यवस्था ने बोझ साझा करने वाली बात को उलझा दिया, जिससे भेदभाव पैदा हो गया.
सुब्रमण्यन के अनुसार सेस समाप्त किया जाना चाहिए; लेकिन इसके बजाय, इसे 2026 तक बढ़ा दिया गया है.
भुगतान की समस्या
वित्तीय संसाधनों के आवंटन से लेकर GST की दरों को तय करने तक के विभिन्न मुद्दों पर केंद्र और राज्यों के बीच चल रहे विवाद ने एक बार फिर हमारी संघीय संरचना से संबद्ध समस्याओं की ओर ध्यान आकर्षित किया है. GST ने राज्यों को उपलब्ध अधिकांश स्वायत्तता का अंत कर दिया है और देश की अप्रत्यक्ष कर व्यवस्था को प्रकृति में एकात्मक बना दिया है. GST लागू होने के बाद राज्य सरकारों ने अपनी स्वतंत्र कराधान की शक्तियां खो दीं. जीएसटी व्यवस्था से बाहर केवल शराब और ईंधन दो महत्त्वपूर्ण मद रह गए हैं जहां राज्य केंद्र सरकार से अनुमोदन प्राप्त किये बिना स्वयं के राजस्व सृजित कर सकते हैं.
काेविड महामारी के दौरान GST गवर्नेंस के तहत राज्यों को प्राप्त मुआवजे की गारंटी का केंद्र सरकार ने बार-बार उल्लंघन किया. राज्यों को उनके बकाया का भुगतान करने में देरी से आर्थिक मंदी का प्रभाव और गहरा हो गया.
एक नजर GST टाइम लाइन पर
2006 फरवरी में तत्कालीन वित्त मंत्री ने जीएसटी लागू करने का लक्ष्य अप्रैल 2010 प्रस्तावित किया था.
2014 मे कई वर्षों की देरी और व्यापक चर्चाओं के बाद तत्कालीन वित्त मंत्री अरुण जेटली ने लोकसभा में जीएसटी विधेयक पेश किया.
2017 जुलाई में GST लागू हुआ. इसी साल नवंबर में जीएसटी परिषद की 23वीं बैठक हुई. MSME को राहत दी गई. कई मदों के लिए दर में परिवर्तन.
2018 जुलाई में जीएसटी परिषद की 28वीं बैठक में जीएसटी अपीलीय न्यायाधिकरण को मंजूरी मिली. इसी साल दिसंबर में जीएसटी परिषद की 31वीं बैठक में 2019 के लोकसभा चुनाव से पहले सभी श्रेणियों में बड़े पैमाने पर दरों को युक्तिसंगत किया गया.
2019 जून में जीएसटी परिषद की 35वीं बैठक में आधार के साथ जीएसटी पंजीकरण शुरू किया गया. ई-इनवायसिंग की निर्णय लिया गया.
2020 जून में जीएसटी परिषद की 40वीं बैठक में जीएसटी रिटर्न दाखिल करने कई छूट दी गईं. अगस्त में 41वीं बैठक में कोविड -19 महामारी के कारण क्षतिपूर्ति देने के लिए दो विकल्प दिए गए.
2021मई में जीएसटी परिषद की 43वीं बैठक में कई प्रमुख मेडिकल उत्पादों पर जीएसटी में छूट दी गई. सितंबर में 45वीं बैठक हुई जिसमें रिवर्स शुल्क ढांचे को ठीक करने और राजस्व बढ़ाने के प्रयास हेतु दर युक्तिकरण संबंधी मुद्दों को देखने के लिये राज्य के मंत्रियों के एक समूह (GOM) का गठन करने की बात कही गई.
GST में अब आगे क्या?
हमेशा यह कहा जाता है कि भविष्य अतीत में छिपा होता है. ऐसे में पिछले वर्षों में जीएसटी का अब तक का सफर आर्थिक और राजनीतिक दोनों कारणों से कठिन रहा है. बिजनेस स्टैंडर्ड की रिपोर्ट के अनुसार रेवेन्यू में उल्लेखनीय वृद्धि होने की उम्मीदें धड़ाम से गिर गई हैं. 2018-19 में कुल GST संग्रह जीडीपी का 6.22 फीसदी था इसकी तुलना में 2021-21 का यह आंकड़ा लगभग 6.26 फीसदी था. जीएसटी लागू होने के बाद से पहली बार के संग्रह की तुलना में 2021-22 का आंकड़ा एक मामूली सुधार था. यह सुधार भी इसलिए दिखा क्योंकि ई-वे बिल जैसे महत्वपूर्ण सुधार प्रशासन द्वारा किए गए. सेस को लेकर काफी विवाद देखा गया है. सरकार ने जून 2022 से चार साल तक क्षतिपूर्ति जारी रखने की बात मान ली हो लेकिन केंद्र को मुद्दे को हल करने की दिशा में काम करना होगा. इस विवादित मुद्दे पर राज्यों और केंद्र के बीच लंबी खींचतान की उम्मीद है.
आगे का रास्ता कुछ यूं हो सकता है-
जीएसटी दरों को युक्तिसंगत बनाना होगा.
पेट्रोल-डीजल को जीएसटी के दायरे में लाने के सवाल को सुलझाना होगा.
जीएसटी परिषद के हालिया घटनाक्रम (क्षतिपूर्ति या टैरिफ के निर्धारण सहित कई विवादास्पद मुद्दों) को देखते हुए जीएसटी पर राज्यों और केंद्र के बीच नए समझौते की जरूरत है.
(क्विंट हिन्दी, हर मुद्दे पर बनता आपकी आवाज, करता है सवाल. आज ही मेंबर बनें और हमारी पत्रकारिता को आकार देने में सक्रिय भूमिका निभाएं.)