यह एक अभूतपूर्व समय है क्योंकि इससे पहले कभी भी दुनिया में वैश्विक मंदी और आर्थिक लड़ाई एक साथ नहीं आई. तेल उत्पादन में OPEC का कटौती करने का फैसला सोचा समझा हुआ है और यह ग्लोबल महंगाई को बढ़ाने वाला ही है.
इसमें अब सऊदी अरब नया देश आ गया है जिसने खुलकर अपना अमेरिका विरोध दिखाया है, और अमेरिका इससे बिल्कुल भी खुश नहीं है ! यूरोपीय संघ (EU) की तेल- गैस की कीमतों को कंट्रोल करने की कोशिशों को एक झटके में ही इसने खत्म कर दिया है. इस साल सर्दियों में NATO और EU की एक दूसरे के प्रति निष्ठा की परीक्षा भी हो जाएगी.
दुनिया पहले से ही जंग के मुहाने पर है – वैश्विक आर्थिक जंग ! इसमें जियोपॉलिटिक्स और मैक्रोइकोनॉमिक्स असंतुलन वैश्विक आर्थिक संकट को और विकराल बना रहा है.
बाजारों का गिरना पहला संकेत
दुनिया लंबे समय से इतनी डगमग नहीं रही है और वित्तीय बाजार यह तो महसूस कर रहे हैं कि एक तूफान उनके रास्ते में आ रहा है, लेकिन वे अभी तक यह नहीं समझ पा रहे हैं कि इसका असर कैसा होगा. वो अभी तक ट्रिगर भी नहीं पकड़ पा रहे हैं. इस बार इसमें कई सारी चीजें हैं. लेकिन, एक बात तो पक्की ही है कि दुनिया जब इस संकट से गुजरेगी तो यह पहले जैसी नहीं रह जाएगी. संकट से उबरने से पहले सब कुछ रीसेट होगा और एक नई ‘विश्व व्यवस्था’ बनेगी.
ताबड़तोड़ पैसों की छपाई और कर्ज दिए जाने से प्रोडक्टिवटी बढ़ी नहीं बल्कि इसने महंगाई के कुचक्र को भयानक तौर पर बढ़ा दिया है. एसेट कीमतें बहुत बिगड़ी हुई हैं और पैसा कुछ लोगों तक ही सिमट कर रह गया है.
ऐसे में सभी देशों के सेंट्रल बैंक के सामने अभी कीमतों को स्थिर रखना बड़ी चुनौती बनी रहेगी. महंगाई और वित्तीय स्थिरता को काबू में रखना खासकर बॉन्ड्स, करेंसी और इक्विटी मार्केट के हिसाब से काफी चुनौती भरा होगा.
आज सबसे बड़ी चुनौती तो यही है कि क्या केंद्रीय बैंक अभी भी ब्याज दरों पर सख्ती बनाए रखें और या फिर मंदी से बचाने के लिए लिक्विटी में नरमी दें और लंबी अवधि की मंदी से बचाएं.
वैश्विक मंदी का पहला इशारा तो कमोडिटी कीमतें, मालभाड़े, घरों की बिक्री में गिरावट और ग्लोबल GDP में सिकुड़न से मिल रहा है. फाइनेंशियल मार्केट और रियल इकनॉमी में लीड और लैग का रिलेशन होता है यानि एक जो संकेत देता है, उसे दूसरे मोर्चे पर जोड़ करके उसके असर को समझा जाता है.
दुनिया भर के शेयर बाजार पिछले दिसंबर से गिर रहे हैं लेकिन अभी रियल इकनॉमी पर इसका पूरा असर नहीं दिख रहा है..अभी बढ़ी ब्याज दरों, वित्तीय कड़ाई और वित्तीय उठापटक का पूरा असर रियल इकोनॉमी पर दिखना बाकी है.
महामारी ने कैसे इकनॉमिक इकोसिस्टम को प्रभावित किया?
महामारी के बाद रिकवरी के दौरान ज्यादा लिक्विडिटी होने से महंगाई आई और रूस-यूक्रेन युद्ध ने हालात को और बिगाड़ दिया. महामारी के बाद डिमांड को तेज करने के लिए फेड की शून्य ब्याज दर वाली नीति अच्छी रही है लेकिन सप्लाई साइड प्रभावित होने से हालात बिगड़ गए. नतीजा ये हुआ कि महंगाई बढ़ती गई.
इसके अलावा इसने बचत को पूरी तरह खत्म कर दिया और नतीजा यह हुआ कि सबकुछ कर्ज के चक्र में फंस गया. तब से दुनिया रिकवर ही नहीं कर पाई है क्योंकि सेंट्रल बैंकों ने इस दानवी महंगाई के बढ़ रहे दबाव की अनदेखी की. गुजारा करने के लिए बढ़ती महंगाई उभरती अर्थव्यवस्था और विकसित देशों दोनों में ही सरकार के लिए बड़ी सिरदर्दी बन गई है.
उल्टी हवा के बीच फंसी है अमेरिकी इकोनॉमी
फेड रिजर्व और यूरोपीय सेंट्रल बैंक अभी इसलिए बहुत ज्यादा दबाव में हैं कि वो भी ब्याज दरें बढ़ाएं क्योंकि अभी भी महंगाई की जो मार है, उससे वो थोड़े कम ही प्रभावित हैं. इस वजह से फाइनेंशियल मार्केट्स में काफी ज्यादा हताशा है. फंड मैनेजर्स प्रार्थना कर रहे हैं कि फेड थोड़ा बैलेंस बनाने की हालत में आ जाए. लेकिन दुर्भाग्यपूर्ण है कि दुनिया को अभी पूरी तरह से आर्थिक डाउनटर्न यानि गिरावट से गुजरना होगा और फेड के हाथ बंधे हुए हैं!
आर्थिक तनाव सभी देशों में है , यहां तक कि अमेरिका और यूरोप जैसी विकसित इकनॉमी भी बची नहीं हुई हैं. यूरोप और USA में तो मंदी की हालत है तो चीन में रियल एस्टेट मुश्किलों की वजह से बैंकिंग और आर्थिक संकट खड़ा हो गया है. चीन में स्थिति और बिगड़ी तो पूरी दुनिया के लिए ये बड़ा शॉक होगा!
कई उभरते देश पहले से ही भोजन और ऊर्जा की कमी और कर्ज संकट का सामना कर रहे हैं. वैश्विक कर्ज डरावनी तलवार बन गई है. यह कई देशों के लिए लंबे समय में वित्तीय समस्या पैदा कर सकता है. आगे चलकर कुछ विकासशील और विकसित देश भी इस लिस्ट में आ सकते हैं.
साल 2022 में अमेरिका की इकोनॉमी में दो-दो तिमाही में निगेटिव जीडीपी आई और इसके बाद इस पर करीब एक ट्रिलियन डॉलर का कर्ज लद गया है. पहले देश बहुत लंबे समय तक नरम कर्ज नीति अपनाकर भी काम चलाता रहा क्योंकि ग्लोबल सप्लाई चेन बेहतर रहने से परेशानी नहीं आई.
लेकिन अब एक दूसरे तरह का ध्रुवीकरण हो रहा है और चीन की तरफ से सस्ते में सप्लाई का इतंजाम हो रहा है. ऐसे में अमेरिका को कोई और ऑप्शन देखना होगा या फिर मेक इन अमेरिका की तरफ जाना होगा. ऐसा करने के लिए इसे अपनी लागत की संरचना यानि कॉस्टिंग को फिर से तैयार करना होगा. फिलहाल अमेरिकी इकनॉमी में इंडस्ट्री का हिस्सा सिर्फ 19 % है जबकि ‘सर्विसेज’ का हिस्सा 80 फीसदी होता है.
अमेरिकी इकनॉमी में अभी रोजगार की परेशानी नहीं है और यह संपूर्ण रोजगार के निकट है. लेकिन ज्यादा मजदूरी मिलने के बाद भी लोगों का गुजारा करना मुश्किल हो रहा है. अमेरिका पिछले 15 वर्षों से लगातार लिक्विडिटी में नरमी और इकनॉमी को बढ़ाने करने की नीति पर चल रहा है और इसके लिए करेंसी भी छापता रहा है. लेकिन इससे अब उत्पादकता नहीं बढ़ रही है. इसके परिणामस्वरूप महंगाई, एसेट प्राइस डिस्टॉर्शन, और वेल्थ कन्सन्ट्रेशन बढ़ गया है.
इसके अलावा, अब यह सब चलता नहीं रह सकता क्योंकि हम एक मल्टीपोलर वर्ल्ड में जा रहे हैं और दुनिया अब अमेरिकी डॉलर को रिजर्व करेंसी मानने को तैयार नहीं है. आगे चलकर इसके गंभीर नतीजे हो सकते हैं.
यूरोप का एनर्जी संकट बिगाड़ेगा माहौल ?
रोप को मध्ययुगीन समय में धकेला जा रहा है! एनर्जी की बढ़ती कीमतों ने लोगों के खर्च को कम कर दिया है और एनर्जी नहीं मिलने से यूरोप में मैन्युफैक्चरिंग नहीं हो रही है. ऐसा लगता है कि यह सब मिलकर एक खराब वित्तीय कहानी बना रही है.
मामला और खराब इस बात से हो जाता है कि महंगाई 40 साल के उच्च स्तर पर है. ब्याज दरें अवास्तविक रूप से कम हैं. देर-सबेर केंद्रीय बैंकों को ब्याज दरों में आक्रामक तरीके से बढ़ोतरी करनी होगी. ऐसे में वित्तीय, बैंकिंग और हाउसिंग मॉर्गेज संकट की बात दूर नहीं है.
यूरोपीय बैंक पहले से ही रडार पर हैं! क्रेडिट सुइस विशेष रूप से सकंट के मुहाने पर है क्योंकि इसमें कई वर्षों से बड़ी आंतरिक समस्याएं हैं. पिछले एक साल में इसके शेयर की कीमत 50% से अधिक गिर गई है. क्रेडिट स्वैप दर 2.75% के उच्चतम स्तर पर है, इससे इंश्योरेंस कंपनियों का डेट सिक्योरिटी के बीमा कराने को लेकर घबराहट का पता चलता है.
बैंक का कायाकल्प करने के लिए इसके CEO 27 अक्टूबर को इसका ब्लूप्रिंट देने वाले हैं. अगर इससे भी बाजारों में जोश नहीं भरता है तो बैंक गंभीर संकट में होगा. यूरोपीय और वैश्विक बैंक भी मुश्किल में आ सकते हैं.
करेंसी के मोर्चे पर डॉलर की बढ़ती कीमतें विकासशील और विकसित देशों के लिए बड़ी सिरदर्दी हो गई हैं. फॉरेक्स रिजर्व घटने से वो करेंसी डिप्रीसिएशन और कर्ज का संकट ही नहीं झेल रहे हैं, बल्कि आयातित महंगाई की चपेट में भी आ गए हैं. वहीं फेड के भारी ब्याज दरें बढ़ाए जाने से ग्लोबल करेंसी और कमजोर होगी और डॉलर छोटी अवधि में सबसे सुरक्षित करेंसी बन जाएगा.
डॉलर का अब कैपिटल करेंसी वाला जलवा नहीं
इसका एक पहलू यह है कि मजबूत होता डॉलर खुदकुशी जैसा हो सकता है क्योंकि यह अगला बबल बनने की तरफ अग्रसर है. दुनिया के कई देश अब ट्रेड के लिए डॉलर से खुद को अलग करने के बारे में सोचने लगे हैं. क्योंकि डॉलर उनकी करेंसी कमजोर करके महंगाई बढ़ा रही है और उनकी वित्तीय सेहत इससे खऱाब हो रही है. अमेरिकी डॉलर को हथियार बनाकर अमेरिका ने बड़ी गलती की. रूसी प्रतिबंधों के बाद भारत सहित कई देश 'डी-डॉलराइजेशन' की प्रक्रिया को तेज कर रहे हैं क्योंकि कोई भी अब अमेरिकी वर्चस्व नहीं चाहता है! ऐसे में डॉलर में अगले 3 से 5 वर्षों में पर्याप्त डीप्रीसिएशन यानि मूल्य में गिरावट देखने को मिल सकता है.
अधिकांश यूरोपीय और अमेरिकी बाजार पहले से ही अपने 52-सप्ताह के निचले स्तर पर हैं, जो 2021 में अपने चरम से 22-35% के बीच गिर गए हैं. इक्विटी वैल्युएशन अब लिक्विडिटी की तरह काम करने लगा और इससे कैश फ्लो और प्रॉफिटिबिलिटी का तालमेल पूरी तरह से हट गया है!
अभी तक बाजार में करेक्शन से कुछ तार्किकता लौटी है लेकिन ऐसा लगता है कि बाजारों में अभी तक हार्ड लैंडिंग हो नहीं पाई है. बढ़ती ब्याज दरें और लंबी मंदी की आशंका है ..इसको देखते हुए ग्लोबल इक्विटी में और 15-20% गिरावट की आशंका है.
तने सारे भागभाग के बीच एक बड़ा आर्थिक हादसा होने की आशंका बनी हुई है और यह एक बड़ा बैंकिंग संकट हो सकता है या फिर किसी देश के कर्ज संकट में फंस जाने या करेंसी के खत्म जाने जैसी नौबत आ सकती है. यह हाल के दिनों में सबसे लंबे वक्त के लिए बेयर मार्केट यानि मंदी का बाजार हो सकता है.
इक्विटी से ज्यादा यह डेट यानि- बॉन्ड्स और गिल्ट्स की परेशानी है. क्योंकि महंगाई की तुलना में ब्याज दरें अवास्तविक रूप से नीचे हैं और इससे ग्लोबल इकनॉमी को बड़ा झटका लग सकता है, खासकर यूरोप और अमेरिका में. सॉवरेन ट्रेजरी डंपिंग भयानक तौर पर फाइनेंशियल अस्थिरता ला सकता है. एक दिन में ही यूके में गिल्ट में गिरावट से पाउंड ऐतिहासिक तौर पर डॉलर की तुलना में सबसे नीचे चला गया. बैंक ऑफ इंग्लैंड को मुश्किलों में फंसा दिया. .
मंदी के रुझान के बीच महंगाई से भारत कैसे निपटेगा ?
हमें यह मानकर चलना चाहिए जो उल्टी हवा पूरी दुनिया में चल रही है वो भारत को भी प्रभावित करेगी. वर्ल्ड बैंक ने मौजूदा साल के लिए जीडीपी ग्रोथ रेट में कटौती करके इसे 6.5 % कर दिया है. जब तक दुनिया मंदी की चपेट से बाहर नहीं निकल जाती है तब तक भारत में भी और मंदी आएगी. ग्लोबल मंदी, करेंट अकाउंट घाटा बढ़ना और फॉरेक्स रिजर्व का गिरना छोटी अवधि में भारतीय इकनॉमी को प्रभावित करेगा. रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया भी महंगाई कंट्रोल करने और कैपिटल आउटफ्लो को रोकने और इसे फेड के बराबर करने के लिए आगे भी दरें बढ़ाएगा.
ब्राजील, इंडिया और इंडोनेशिया अभी तक साल 2022 में ग्लोबल मार्केट में सबसे शानदार रहे हैं. लेकिन भारतीय इक्विटी मार्केट का वैल्युएशन अभी भी बहुत हाई है और वैश्विक परेशानी और घरेलू मंदी को देखते हुए इसमें एक तेज करेक्शन देखने को मिल सकता है.
तब तक भारतीय इक्विटी में विदेशों से पैसा यानि इंटरनेशनल पोर्टफोलियो कैपिटल नहीं आएगा. विदेशी संस्थागत निवेशकों (FPI) ने अपनी बिकवाली फिर से शुरू कर दी है. डोमेस्टिक सिस्टैमेटिक इन्वेस्टमेंट (SIP) में भी गिरावट आ रही है. बढ़ती ब्याज दरों के साथ, इन स्तरों पर इंडियन इक्विटी के रिस्क रिवॉर्ड (निफ्टी @ 17300) को देखते हुए ‘डेट’ फिर से एक एसेट क्लास के तौर पर आकर्षक लगने लगा है. ऐसे में ये मानकर चलिए अगले 6 महीनों में भारतीय शेयर बाजार और कमजोर होगा.
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