RBI ने इस साल रेपो रेट में आधा पर्सेंट की कटौती की है. लेकिन आपके होम लोन या ऑटो लोन की दरों में इसके मुकाबले बहुत कम कमी हुई है. रेपो रेट वह दर है, जिस पर बैंक आरबीआई से कम समय के लिए उधार लेते हैं. अगर रेपो रेट में कटौती से बैंकों को सस्ता कर्ज मिल रहा है, फिर आपके होम लोन या ऑटो लोन की दरों में उतनी कटौती क्यों नहीं हुई? अब बैंकों का कहना है कि सिस्टम में कम लिक्विडिटी यानी कैश और ऊंची जमा (डिपॉजिट) दरों की वजह से उनके हाथ बंधे हुए हैं. इसी वजह से आरबीआई के कर्ज सस्ता करने का पूरा फायदा वे ग्राहकों को नहीं दे पा रहे हैं.
इस खबर को सुनने के लिए यहां क्लिक करें
कम कैश आड़े आया
लिक्विडिटी का मतलब बैंकिंग सिस्टम यानी बैंकों के पास अवेलेबल कैश और रिजर्व है. इसलिए जब बैंक कहते हैं कि उनके पास पर्याप्त लिक्विडिटी नहीं है तो उसका अर्थ यह है कि उनके पास जितना फंड है या आ रहा है, उससे अधिक तेजी से कर्ज की मांग बढ़ रही है.
ऊंची जमा दरों और सिस्टम में कैश की कमी के चलते उनके लिए फंड की लागत ऊंची बनी हुई है. वैसे यह कोई नई बात नहीं है. आरबीआई लंबे समय से इस समस्या से परेशान रहा है. वह लगातार कहता रहा है कि उसके कर्ज सस्ता करने के बावजूद बैंक उसका पूरा लाभ ग्राहकों को नहीं दे रहे हैं.
चुनाव तक कैश की कमी बनी रहेगी
इंफ्रास्ट्रक्चर ग्रुप IL&FS के पिछले साल सितंबर में लोन डिफॉल्ट यानी कर्ज न चुकाने के बाद से लिक्विडिटी की कमी बनी हुई है. इस साल अप्रैल में सरकार के खर्च घटाने और गुड्स एंड सर्विसेज टैक्स (जीएसटी) के भुगतान की वजह से यह कमी 1.6 लाख करोड़ रुपये तक पहुंच गई थी, जो महीने के आखिर में 90-95 हजार करोड़ रुपये थी.
यह समस्या कम से कम लोकसभा चुनाव खत्म होने तक बनी रहेगी. स्टेट बैंक ऑफ इंडिया (एसबीआई) ने अप्रैल के आखिरी हफ्ते में एक रिपोर्ट में बताया था कि आम चुनाव खत्म होने तक 75 हजार करोड़ से एक लाख करोड़ तक के कैश की कमी सिस्टम में रहेगी.
रिजर्व बैंक की पहल
वैसे रिजर्व बैंक अपनी तरफ से कैश की सप्लाई बढ़ाने की कोशिश कर रहा है. उसने इस साल अगस्त तक ओपन मार्केट ऑपरेशंस (ओएमओ) के मार्फत बैंकिंग सिस्टम में 40 हजार करोड़ रुपये डालने की योजना बनाई है. मई में ही वह इस रास्ते से 25 हजार करोड़ रुपये बैंकिंग सिस्टम में डालने जा रहा है. ओएमओ में आरबीआई सरकारी बॉन्ड खरीदकर कैश की सप्लाई बढ़ाता है.
ग्रोथ पर कैश की कमी का असर
कैश की कमी दूर करना जीडीपी ग्रोथ बढ़ाने के लिए भी जरूरी है. सरप्लस कैश होने पर बैंक सस्ता कर्ज देते हैं. इससे वस्तुओं और सेवाओं की मांग बढ़ती है यानी कंजम्पशन में बढ़ोतरी होती है, जो देश की अर्थव्यवस्था की रीढ़ है.
कर्ज सस्ता होने पर कंपनियां अतिरिक्त उत्पादन क्षमता भी बढ़ाती हैं. इससे प्राइवेट इनवेस्टमेंट में बढ़ोतरी होती है, जिसकी आर्थिक विकास दर बढ़ाने में महत्वपूर्ण भूमिका होती है.
जून में भी रेट कट?
इसे ध्यान में रखते हुए रिजर्व बैंक ने इस साल रेपो रेट में दो बार कटौती की है. पहली बार फरवरी में उसने इसे 0.25 पर्सेंट घटाया था. उसके बाद अप्रैल में उसने फिर से पॉलिसी रेट में इतनी कटौती की. इसके बावजूद वर्ष 2019 में आर्थिक विकास दर नरेंद्र मोदी के सत्ता में आने के बाद सबसे कम रहने जा रही है.
ट्रल स्टैटिस्टिक्स ऑफिस (सीएसओ) के फरवरी के दूसरे अग्रिम अनुमान के मुताबिक, पिछले वित्त वर्ष में जीडीपी ग्रोथ 7 पर्सेंट रह सकती है. इसलिए माना जा रहा है कि रिजर्व बैंक जून की मौद्रिक समीक्षा में भी रेपो रेट में 0.25 पर्सेंट की कटौती कर सकता है.
लिक्विडिटी बढ़ाना क्यों है जरूरी
लेकिन सिर्फ इतने से बात नहीं बनेगी. केंद्रीय बैंक को कंजम्पशन, प्राइवेट सेक्टर की तरफ से इनवेस्टमेंट और कर्ज सस्ता करने के लिए लिक्विडिटी की कमी दूर करनी होगी. उसने वैसे इसके लिए हाल में डॉलर-रुपी स्वाप प्रोग्राम भी शुरू किया है. इससे कम से कम अभी तक तो कैश की कमी की समस्या दूर नहीं हुई है.
डॉलर-रुपी स्वाप प्रोग्राम में रिजर्व बैंक तय अवधि के लिए बैंकों से डॉलर खरीदता है और उसके बदले उन्हें रुपये में भुगतान करता है. अवधि पूरी होने पर बैंक उतना ही डॉलर रिजर्व बैंक से वापस खरीदने का वादा करते हैं.
मान लीजिए कि यह अवधि तीन साल है. ऐसे में इस प्रोग्राम से इन तीन वर्षों के दौरान रुपये की सप्लाई बढ़ेगी.
सरकार का खर्च बढ़ा तो...
सरकार के बढ़ते खर्च से भी लिक्विडिटी मैनेजमेंट को लेकर मुश्किलें बढ़ने का डर है. अगर नई सरकार बाजार से अधिक कर्ज लेती है तो निजी क्षेत्र की कंपनियों के लिए फंड की कमी पड़ जाएगी. इससे ग्रोथ पर बुरा असर पड़ेगा, जैसा कि पिछले कई वर्षों से हो भी रहा है.
कंपनियों के पास मांग से अधिक प्रॉडक्शन कैपेसिटी है. इसलिए उन्होंने इस दौरान अपनी उत्पादन क्षमता बढ़ाने के लिए निवेश नहीं किया है. इससे ग्रोथ पर बुरा असर पड़ा है. इस साल अल निनो की आशंका से मॉनसून सीजन में सामान्य बारिश को लेकर संदेह बढ़ा है.
कम बारिश और कच्चे तेल के दाम में बढ़ोतरी के कारण देश में महंगाई बढ़ सकती है, जिसके संकेत अनाज और सब्जियों की महंगाई के रूप में अभी से दिखने लगे हैं. महंगाई दर के बेकाबू होने पर रिजर्व बैंक के लिए कर्ज सस्ता करना मुश्किल हो जाएगा और यह इकनॉमी पर दोहरी चोट होगी.
(क्विंट हिन्दी, हर मुद्दे पर बनता आपकी आवाज, करता है सवाल. आज ही मेंबर बनें और हमारी पत्रकारिता को आकार देने में सक्रिय भूमिका निभाएं.)