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इकनॉमी में सुस्‍ती के लिए केवल नोटबंदी और GST को दोष देना सही नहीं

रियल जीडीपी जनवरी-अप्रैल 2016 में सर्वोच्च स्तर छूने के बाद से ही लगातार गिरती आई है.

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हाल ही में जब सरकार ने इकनॉमी में नई जान फूंकने के लिए वित्तीय पैकेज देने का संकेत दिया, इसका विरोध इस दलील के साथ किया गया कि इकनॉमी में सप्लाई पर नोटबंदी और जीएसटी की वजह से असर पड़ा है, साथ ही वित्तीय मदद देना समस्या का हल नहीं है. ये अलग बहस का विषय है कि वित्तीय मदद से समस्या हल होगी या नहीं, लेकिन अभी मौजूद मैक्रोइकनॉमिक आंकड़ों के आधार पर ‘ताजा’ मंदी के लिए नोटबंदी और जीएसटी को दोष देना जल्दबाजी होगी.

नोटबंदी और जीएसटी को दोष न दें

रियल जीडीपी जनवरी-अप्रैल 2016 में सर्वोच्च स्तर छूने के बाद से ही लगातार गिरती आई है. आंकड़ों को लेकर इतने विवाद हैं कि भारत में जीडीपी ग्रोथ का अनुमान लगाना आसान काम नहीं है. यहां तक कि बेहतरीन से बेहतरीन अर्थशास्त्री भी शुद्धता का भरोसा नहीं दिला सकते. कायदे से, नॉमिनल (नाममात्र) जीडीपी का अनुमान पहले लगाना चाहिए, फिर महंगाई दर का और अंत में रियल जीडीपी ग्रोथ का अनुमान लगाना चाहिए.

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2011 से ही देश की नॉमिनल जीडीपी ग्रोथ में गिरावट दिखी है, चाहे वो पुरानी सीरीज के आंकड़े हों या नई सीरीज के. इससे पता चलता है कि भारत की इकनॉमिक ग्रोथ में ढांचागत दिक्कतें हैं, जिनका नोटबंदी या जीएसटी से कोई लेना-देना नहीं है.
 रियल जीडीपी जनवरी-अप्रैल 2016 में सर्वोच्च स्तर छूने के बाद से ही लगातार गिरती आई है.
स्त्रोत: आरबीआई
फोटो:Bloomberg Quint 

कंपनियों के नतीजे, बैंकों से लिए जाने वाले कर्ज की ग्रोथ, और मनी सप्लाई के आंकड़े सभी नॉमिनल हैं. बेशक, ऊंची महंगाई दर खपत को प्रभावित करती है लेकिन सिर्फ रियल जीडीपी ग्रोथ पर फोकस करने, और नॉमिनल जीडीपी ग्रोथ को नजरअंदाज करने से अर्थव्यवस्था की सही तस्वीर सामने नहीं आ सकती. 2010-11 से ही नॉमिनल जीडीपी ग्रोथ गिर रही है. 2016-17 में आया उछाल रिकवरी है या क्षणिक सुधार, ये तो बाद में ही पता लगेगा, लेकिन साफ तौर पर, 13-14 फीसदी से नीचे की नॉमिनल ग्रोथ पिछले 15 सालों के औसत से कम ही है.

पर्सनल लोन को छोड़ दें तो 2010-11 से ही नॉन-फूड क्रेडिट ग्रोथ के सभी अंगों में गिरावट आ रही है.

नोटबंदी के बाद के भी क्रेडिट ग्रोथ के आंकड़े इस रूझान से अलग नहीं दिखते. दरअसल, मार्च 2017 में क्रेडिट ग्रोथ में हल्का सा उछाल दिखा था.
 रियल जीडीपी जनवरी-अप्रैल 2016 में सर्वोच्च स्तर छूने के बाद से ही लगातार गिरती आई है.
स्त्रोत: आरबीआई
फोटो:Bloomberg Quint 
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हालात ‘सामान्य’ होने से आएगा उछाल?

जीडीपी का एक ‘संख्यात्मक’ पहलू है और रोजाना की आर्थिक गतिविधियों के ढांचागत पहलू ज्यादा हैं जिन्हें कोई एक आंकड़ा, जिसमें अनुमानित जीडीपी भी शामिल है, पूरी तरह दिखा नहीं सकता. नई सीरीज आने के बाद, दिग्गज अर्थशास्त्रियों के जीडीपी अनुमानों पर ब्लूमबर्ग का सर्वे कई दिलचस्प बातें बताता है. सर्वे का औसत वित्त वर्ष 2016 की दूसरी तिमाही में 0.70 फीसदी से कम रहा, और इसी साल की चौथी तिमाही में 1.63 फीसदी से कम रहा- जिसमें ग्रोथ अपने उच्चतम स्तर पर थी.

नोटबंदी वाली तिमाही में ग्रोथ पर असर होने का अनुमान लगाते हुए, अर्थशास्त्रियों ने वित्त वर्ष 2017 की तीसरी तिमाही में 6 फीसदी ग्रोथ की भविष्यवाणी कर दी. जबकि, सीएसओ ने जब इस तिमाही का पहला अनुमान जारी किया तो वो 7 फीसदी से जरा सा ही कम था! अर्थशास्त्रियों ने जल्दबाजी में अगली दो तिमाहियों के अपने अनुमान बढ़ा दिए, और नतीजा ये हुआ कि वित्त वर्ष 2017 की चौथी तिमाही में ग्रोथ अनुमान से 1 फीसदी और वित्त वर्ष 2018 की पहली तिमाही में 0.78 फीसदी कम रही.

 रियल जीडीपी जनवरी-अप्रैल 2016 में सर्वोच्च स्तर छूने के बाद से ही लगातार गिरती आई है.
स्त्रोत: Bloomberg Quint 
  फोटो:Bloomberg Quint 
तो 5.7 फीसदी के आंकड़े के बाद ग्रोथ अनुमानों में नीचे की तरफ सुधार, अतीत में की हुई अपनी गलतियों को सुधारने की कोशिश है?

इन वजहों से वित्त वर्ष 2018 की दूसरी छमाही भविष्यवक्ताओं को फिर से चकरा सकती है.

स्नैपशॉट

1. वित्त वर्ष 2018 की दूसरी छमाही को कम बेस इफेक्ट का फायदा मिलेगा.

2. जीएसटी ने, खासकर छोटे बिजनेस के लिए, शुरुआती महीनों में दिक्कतें पैदा की, लेकिन वो अक्तूबर-मार्च की अवधि में काफी कम हो सकती हैं.

3. जीएसटी के बाद ब्लैक इकनॉमी के बड़े हिस्से के संगठित क्षेत्र में आने से, उसकी आर्थिक  गतिविधियों की भी अब गणना हो सकेगी.

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ढांचागत मंदी पर ध्यान देने की जरूरत

निश्चित रूप से भारतीय अर्थव्यवस्था सप्लाई चेन में सुधार लाकर और सप्लाई से जुड़ी मुश्किलों को कम करके बेहतर हो सकती है. लेकिन ये मान लेना कि पिछली दो तिमाहियों की जीडीपी ग्रोथ छोटे कारोबारियों की सप्लाई चेन टूटने से गिरी है, इसकी पुष्टि कम से कम कोई आंकड़ा नहीं करता, रिजर्व बैंक के क्रेडिट ग्रोथ के आंकड़े भी नहीं.

जो वजहें ऊपर बताई गई हैं, वो यही संकेत देती हैं कि वित्त वर्ष 2018 की दूसरी छमाही में जीडीपी ग्रोथ में अस्थायी उछाल आएगा. लेकिन, इससे मंद होती अर्थव्यवस्था का मूलभूत मुद्दा नहीं सुलझेगा, जिस मंदी की शुरुआत 2011 से ही हो गई थी.

वित्तीय और मौद्रिक नीतियां रियल जीडीपी पर तो ध्यान देती हैं, लेकिन अक्सर इस मंदी के फैलाव को कम करके आंकती हैं. 5-6 फीसदी रियल जीडीपी ग्रोथ का अनुमान सरकार की ओर से उठाए जाने वाले कदमों की अहमियत को कम कर देता है.

(दीप नारायण मुखर्जी फाइनेंशियल सर्विसेज से जुड़े हैं और आईआईएम, कलकत्ता के विजिटिंग फैकल्टी हैं. इस आर्टिकल में छपे विचार उनके अपने हैं. इसमें क्‍व‍िंट की सहमति होना जरूरी नहीं है)

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