दो साल से भारत बैंकों के डूबे हुए कर्ज (बैड लोन) की समस्या को सुलझाने की कोशिश कर रहा है. ये दो साल बड़े मुश्किल रहे हैं. 2015 तक तो बैंक डूबे हुए कर्ज की प्रॉब्लम को मानने तक तैयार नहीं थे. यह बात और है कि उनके इस दावे पर किसी को भरोसा नहीं था.
डूबे हुए कर्ज को रिस्ट्रक्चरिंग के जरिये नॉर्मल लोन में बदला जा रहा था. जिन कर्जों के डूबने का डर था, बैंक उनके आंकड़े कम करके बता रहे थे.
क्वॉलिटी रिव्यू से पोल खुली
2015 में ही रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया (आरबीआई) ने सरकार के साथ बातचीत करके तय किया कि देश के बैंकों के बही-खाते को ठीक करना होगा. पहले कदम के तौर पर आरबीआई ने बैंकों की लोन बुक की समीक्षा की, जिसे क्वॉलिटी रिव्यू कहा गया. इससे बैंक स्ट्रेस्ड एसेट्स को सार्वजनिक करने पर मजबूर हुए. इसका नतीजा यह हुआ कि सितंबर में जो ग्रॉस नॉन-परफॉर्मिंग एसेट्स (एनपीए) 3.4 लाख करोड़ रुपये था, वह आज 8.4 लाख करोड़ रुपये है.
एक तरफ तो आरबीआई ने बैंकों पर बही-खाते को क्लीन करने का दबाव बनाया, दूसरी तरफ बैंकों की मदद के लिए सरकार ने इनसॉल्वेंसी एंड बैंकरप्सी कोड (आईबीए) पास किया. इस कानून को 2016 में लागू किया गया. इससे दिवालिया हो चुकी कंपनियों के जल्द लोन सेटलमेंट के लिए लाया गया था.
सरकारी बैंकों की फंडिंग
बैड लोन बढ़ने से खासतौर पर सरकारी बैंकों के पास पूंजी की कमी हो गई. इसलिए बैंक स्ट्रेस्ड एसेट्स की प्रोविजनिंग में देरी करने लगे. प्रोविजनिंग के तहत बैंकों को लोन की रकम का एक हिस्सा अलग रखना पड़ता है, ताकि कर्ज डूबने पर बैंक की सेहत पर असर न हो.
बैंकों की पूंजी की कमी दूर करने के लिए आखिरकार सरकार ने पब्लिक सेक्टर के बैंकों के लिए पिछले महीने 2.11 लाख करोड़ की फंडिंग का ऐलान किया.
लूपहोल खत्म
आलोचकों ने कहा कि सरकार टैक्सपेयर्स के पैसे से बड़ी कंपनियों को रिलीफ दे रही है. इसलिए गुरुवार को तीसरे कदम का ऐलान किया गया. सरकार ने आईबीसी में संशोधन किय. इससे डिफॉल्ट कर चुकी कंपनियों के ज्यादातर मालिकों को लोन रिकवरी प्रोसेस के दौरान अपनी कंपनी खरीदने से रोक दिया. जिस कर्ज की किस्त कंपनियों ने साल भर से नहीं चुकाई है, वे अब अपनी कंपनी की बोली नहीं लगा पाएंगे.
दिवालिया अदालत में लोन रिजॉल्यूशन प्रोसेस शुरू होने से पहले कंपनी के मालिक अगर बकाया रकम चुका देते हैं, तो वे इस दौरान अपनी फर्म के लिए बोली लगा सकते हैं. यानी मालिकों के लिए कंपनी अपने नाम करने का एक रास्ता खुला रखा गया है.
आईबीसी में संशोधन का बड़ा असर होगा और बैंकों के लिए इसके गंभीर नतीजे होंगे. ये सारे पॉजिटिव नहीं होंगे, लेकिन इसके बावजूद यह कदम सराहनीय है.
स्टील एसेट्स में निवेशकों की दिलचस्पी
इसका असर यह होगा कि जिन 12 बड़ी कंपनियों से लोन रिकवरी का मामला दिवालिया कोर्ट में चल रहा है, वे अपनी कंपनी के लिए बोली नहीं लगा पाएंगे. इन 12 कंपनियों का देश के कुल बैड लोन में 25 पर्सेंट कंट्रीब्यूशन है. इनमें से आधे स्टील सेक्टर और बाकी कर्ज पावर और इंफ्रास्ट्रक्चर सेक्टर के हैं. एक ऑटो कंपोनेंट कंपनी भी इनमें शामिल है.
इन स्टील कंपनियों को ऐसे समय में बेजा जा रहा है, जब स्टील के दाम चढ़ रहे हैं. देश की आर्थिक विकास दर पीक पर नहीं पहुंची है, लेकिन अब इसमें तेजी आने की उम्मीद है. सरकार हाउसिंग और रेलवे में निवेश बढ़ाने की कोशिश भी कर रही है. इससे स्टील की मांग बढ़ेगी. ऐसी सूरत में अगर स्टील कंपनी को बेचा जाएगा, तो उसमें निवेशक काफी दिलचस्पी दिखाएंगे. ऐसा दिख भी रहा है.
दिवालिया कानून के तहत जिन स्टील कंपनियों की एसेट्स बेचने की कोशिश की जा रही है, उसमें भारतीय और विदेशी निवेशकों ने दिलचस्पी दिखाई है. यह खबर ब्लूमबर्गक्विंट ने हाल ही में दी थी.
हो सकता है कि इन कंपनियों के मालिकों को बोली लगाने से बाहर किए जाने से शायद इनकी उतनी कीमत न मिले, जितने की उम्मीद की जा रही थी, लेकिन इन एसेट्स का बिकना तय है. इसलिए इन कंपनियों का लिक्विडेशन नहीं करना होगा. लिक्विडेशन में कंपनी की संपत्ति को अलग-अलग करके बेचा जाता है, जिससे काफी कम कीमत मिलती है.
पावर और इंफ्रास्ट्रक्चर एसेट्स के साथ ऐसा नहीं है. इन्हें कम दाम पर बेचना होगा. कुछ कंपनियों को लिक्विडेट भी करना पड़ सकता है. इससे बैंकों को बड़ा नुकसान होगा, लेकिन वे इनके लिए पहले ही पर्याप्त प्रोविजनिंग कर चुके हैं.
भगवान का डर पैदा होगा
आईबीसी में संशोधन का बैंकों पर कितना असर होगा, यह जल्द ही स्पष्ट हो जाएगा, लेकिन सरकार ने इसके जरिये क्या सिग्नल दिया है? कंपनी के मालिक को एसेट ऑफर करने या नहीं करने के बारे में बैंकों को जवाब नहीं देना होगा. उनके लिए सभी निवेशक एक बराबर होंगे और वे पारदर्शी तरीके से कंपनी को बेचने के बारे में फैसला ले पाएंगे.
पुख्ता कानून होने से जो कंपनियां डिफॉल्ट करने वाली होंगी, उनके मालिक सिस्टम से पंगा नहीं लेना चाहेंगे. जो लोग एसेट्स बेचकर कर्ज चुका सकते हैं, वे ऐसा करेंगे.
जिनके पास नकदी होगी, वैसे मालिक कंपनी में निवेश करके उसे बचाने की कोशिश करेंगे. जो बाहरी निवेशक लाने की हालत में होंगे, वे कुछ हिस्सेदारी की कुर्बानी देकर इस तरीके से अपनी कंपनी को बचाएंगे.
कुल मिलाकर इससे बैड लोन में कमी आएगी. एक पूर्व बैंकर ने कहा कि इससे कंपनियों के मालिकों में भगवान का डर पैदा होगा और वे बैंकरों के साथ किसी तरह का गेम नहीं खेलेंगे.
(स्रोत: BloombergQuint)
[ इरा दुग्गल ब्लूमबर्गक्विंट में एडिटर (बैंकिंग, फाइनेंस और इकनॉमी) हैं ]
(क्विंट हिन्दी, हर मुद्दे पर बनता आपकी आवाज, करता है सवाल. आज ही मेंबर बनें और हमारी पत्रकारिता को आकार देने में सक्रिय भूमिका निभाएं.)