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इंफोसिस से नाता तोड़ेंगे कंपनी के फाउंडर? शुरुआत से अबतक की कहानी

मूर्ति और दूसरे फाउंडर्स ने कंपनी के कामकाज के तरीकों पर पिछले दो साल में कई बार खुलकर नाराजगी जाहिर की है.

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10 हजार रुपए से 2.20 लाख करोड़ रुपए का सफर, इस गोल्डन सफर के मुसाफिर यानी इंफोसिस के फाउंडर एन आर नारायणमूर्ति और उनके सहयोगी अब इंफोसिस में अपनी यात्रा खत्म करना चाहते हैं.

पांचों फाउंडर के पास इंफोसिस में अभी करीब 13% हिस्सेदारी है, जो अभी के भाव में 28 हजार करोड़ रुपए बैठती है. अभी तो यह कल्पना के बाहर ही लगता है कि ऐसा दिन भी आ सकता है जब मूर्ति, इंफोसिस का हिस्सा नहीं रहेंगे, पर हालात इसी तरफ इशारा कर रहे हैं.

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मूर्ति और दूसरे फाउंडर्स ने कंपनी के कामकाज के तरीकों पर पिछले दो साल में कई बार खुलकर नाराजगी जाहिर की है. फाउंडर्स और कंपनी के बोर्ड के बीच विवाद अब कटुता का रूप ले चुका है. ऐसे में खबरें हैं कि पांचों फाउंडर हिस्सेदारी बेचकर नाता तोड़ना चाहते हैं.

हालांकि मूर्ति ने फिलहाल इससे इनकार किया है, पर दो साल से कई मौकों पर उनकी बढ़ती नाराजगी इसका साफ संकेत दे रही है.

बुनियाद हटी तो इमारत का क्या होगा?

36 साल पहले रखी गई बुनियाद इतनी दमदार थी कि मूर्ति ने सिर्फ इंफोसिस ही नहीं आईटी सेक्टर में भारत को लीडर बना दिया. भारत की सबसे बड़ी टर्नअराउंड स्टोरी इंफोसिस है. लेकिन अगर फाउंडर निकल गए तो क्या इंफोसिस की इमारत पर असर नहीं होगा?

अभी आईटी सेक्टर दिक्कत में हैं, उसपर इंफोसिस तो और ज्यादा. एक वक्त कमाई का सबसे सुरक्षित शेयर माने जाने वाला इंफोसिस दो साल से निवेशकों को निराश कर रहा है.

इंफोसिस शेयर का खराब प्रदर्शन

इंडेक्स के मुकाबले खराब प्रदर्शन ने भी मूर्ति की कई चिंताओं को एक तरह से सही ठहराया है. वैसे तो अमेरिका में वीजा पर तरह-तरह की पाबंदियों को देखते हुए पूरा आईटी सेक्टर दबाव में है. लेकिन इंफोसिस की मुश्किलें ज्यादा हैं.

इसका अंदाज इसी से लगाया जा सकता है कि दो साल में सेंसेक्स ने करीब 18% रिटर्न दिया है, तो इंफोसिस ने इन्हीं दिनों 4.25 % रकम गंवाई है. इसी तरह सेंसेक्स का एक साल का रिटर्न 15.5 % है तो एक साल में इंफोसिस निवेशकों की करीब 23 % रकम स्वाहा हो गई है.
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क्यों नाराज हैं मूर्ति और दूसरे फाउंडर ?

इंफोसिस की बुनियाद रखने वाले मूर्ति और उनके साथियों को लगता है कि कंपनी अपने सिद्धांतों से भटक रही है. उनका मानना है कि इंफोसिस को चलाने में सिर्फ मुनाफा एकमात्र लक्ष्य नहीं होना चाहिए.

उनके मुताबिक हाई स्टैंडर्ड और वैल्यू सिस्टम की वजह से कंपनी ने यह मुकाम हासिल किया है. लेकिन अब उनके उन्हीं सिद्धांतों की अनदेखी हो रही है. इंफोसिस के फाउंडर्स नारायण मूर्ति, क्रिस गोपालकृष्णन, नंदन नीलेकणि, के दिनेश और एस डी शिबुलाल के पास मिलाकर करीब 13% हिस्सेदारी है.

मूर्ति और दूसरे फाउंडर्स की नाराजगी की दस बड़ी वजह-

  1. 3 साल पहले मैनेजमेंट से अलग होने के बाद कंपनी के कामकाज से नाखुश.
  2. नारायणमूर्ति को खासतौर पर सीईओ विशाल सिक्का की सालाना 72 करोड़ रुपए की भारी भरकम सैलरी से एतराज.
  3. पूर्व सीएफओ राजीव बंसल और जनरल काउंसिल डेविड केनेडी को नौकरी छोड़ने पर जो मुआवजा दिया गया उसे भी मूर्ति ने गलत ठहराया.
  4. इंफोसिस ने हाल में जो अधिग्रहण किए हैं उसे लेकर भी मूर्ति ने कई आपत्तियां उठाई हैं. उन्हें लगता है कि चेयरमैन आर सेशासायी और बोर्ड मैनेजमेंट को सही दिशा नहीं दे पा रहे हैं.
  5. छंटनी के पक्ष में नहीं, उनके मुताबिक इसके बजाए शीर्ष स्तर पर सैलरी कटौती करनी चाहिए.
  6. इंफोसिस के मौजूदा सीईओ विशाल सिक्का और नारायण मूर्ति के बीच इसी साल फरवरी में कॉरपोरेट गवर्नेंस के मामले में अच्छी खासी तनातनी हुई थी.
  7. मूर्ति को लगता है कि कॉरपोरेट गवर्नेंस के पहलू में इंफोसिस कमजोर हो रही है. उनके मुताबिक इंफोसिस को जिन नीति और सिद्धांतों के आधार पर बनाया गया है, मौजूदा मैनेजमेंट उनसे समझौता कर रहा है.
  8. आईटी सेक्टर में चुनौतियां बढ़ रही हैं और मूर्ति के मुताबिक इनसे निपटने के लिए इंफोसिस मैनेजमेंट कुछ नया नहीं कर पा रहा है
  9. इंडिपेंडेंट डायरेक्टर और कैश के इस्तेमाल को लेकर बोर्ड के साथ मतभेद
  10. मौजूदा शीर्ष अधिकारियों का लग्जरी रहन सहन, बिजनेस क्लास की यात्राएं, ऊंची सैलरी. व्यक्तिगत यात्रा के लिए भी विशाल सिक्का का विशेष विमान का इस्तेमाल करना भी उन्हें खटका.
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इंफोसिस फाउंडर की हिस्सेदारी

मूर्ति समेत पांचों इंफोसिस के फाउंडर्स के पास इस वक्त करीब 13 परसेंट हिस्सेदारी है. मौजूदा शेयर भाव के हिसाब से ये 28 हजार करोड़ रुपए बैठती है. इनमें सबसे ज्यादा करीब 3.5% हिस्सा मूर्ति और उनके परिवार के पास है, जिसकी वैल्यू 7.5 हजार करोड़ रुपए है.

इसके पहले दिसंबर 2014 में सभी फाउंडर्स ने मिलकर 2.8% हिस्सेदारी बेचकर चेरिटी के लिए एक अरब डॉलर यानी करीब 6600 करोड़ रुपए जुटाए थे. अभी इंफोसिस का मार्केट कैप 32.2 अरब डॉलर यानी करीब 2.2 लाख करोड़ रुपए है.

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इंफोसिस और एंटरप्रेन्योर के मूर्ति की अहमियत

नारायणमूर्ति सिर्फ इंफोसिस ही नहीं भारत में एंटरप्रेन्योरशिप के लिए भी इतिहास पुरुष कहे जा सकते हैं .

इंफोसिस 1981 में सिर्फ 10 हजार रुपए की पूंजी से बनी. 1993 में लिस्टिंग के बाद से कंपनी ने पीछे मुड़कर नहीं देखा. मूर्ति ने अपने साथ काम करने वालों को भी दिल खोलकर बांटा.

कर्मचारियों को खुलकर ईसॉप यानी शेयर दिए गए और शुरुआती कर्मचारी भी करोड़पति बने. कई ने इस रकम के बाद नौकरी छोड़ दी और एंटरप्रेन्योर भी बने.

मूर्ति और नंदन नीलेकणि को भारत में खुद के सपने साकार करने के लिए रोल मॉडल माना जाता है. खासतौर पर सॉफ्टवेयर में भारत को दुनिया के मैप पर लाने के लिए इंफोसिस के फाउंडर्स का सबसे बड़ा योगदान है.

इंफोसिस के अबतक के सफर पर एक नजर:

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फाउंडर के जाने से इंफोसिस पर असर

कई जानकारों के मुताबिक इंफोसिस से फाउंडर्स के नाता तोड़ने से भावानात्मक असर जरूर पड़ेगा. खासतौर पर कॉरपोरेट गवर्नेंस के मामले में इंफोसिस का रिकॉर्ड जबरदस्त है. ऐसे में मूर्ति और फाउंडर्स को इंफोसिस के लिए अंतरात्मा की आवाज माना जाता रहा है.

लेकिन कुछ एक्सपर्ट मानते हैं कि फाउंडर्स के जाने से इंफोसिस में अनिश्चितता का दौर खत्म हो जाएगा. अभी फाउंडर और मैनेजमेंट में तनातनी की वजह से कंपनी अक्सर विवादों में रहती है.

इंफोसिस का ड्रीम सीक्वेंस

करीब 36 साल पहले एक शाम नारायण मूर्ति बड़े फिक्रमंद बैठे थे, उनके पास आइडिया के भंडार तो थे, पर खजाना बिलकुल खाली था. उनके पास साथी तो थे, लेकिन पूंजी नहीं थी. तब पत्नी सुधा ने अपनी जमापूंजी 10,000 रुपए दी और कंपनी शुरू हो गई.

1983 इंफोसिस और भारतीय क्रिकेट दोनों के लिए यादगार साल रहेगा. भारत ने वनडे क्रिकेट वर्ल्डकप जीता और मूर्ति ने बंगलुरू में इंफोसिस का हेडक्वार्टर बनाया. दोनों बातों ने भारत को लीडर बना दिया. एक ने क्रिकेट में और दूसरी ने आईटी सॉफ्टवेयर में.
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नारायणमूर्ति ऐसी शख्तियत हैं कि जब तक वो इंफोसिस में रहेंगे तब तक उनका दिल इसके लिए धड़कता रहेगा. लेकिन इतनी छोटी हिस्सेदारी की वजह से मौजूदा मैनेजमेंट उनकी सलाह मानने के लिए मजबूर नहीं है और मूर्ति को ऐसे हालात देख रहे हैं. इसलिए अभी भले वो इनकार कर रहे हों पर पूरी संभावना है कि आगे चलकर वो हिस्सेदारी बेचेंगे.

इंफोसिस को इस मुकाम में पहुंचाकर पूरे 36 साल बाद जब फाउंडर हिस्सेदारी बेचेंगे तो उनके साथ-साथ कंपनी के लिए बहुत बड़ा इमोशनल अत्याचार होगा.

(अरुण पांडेय वरिष्ठ पत्रकार हैं. इस आलेख में प्रकाशित विचार उनके अपने हैं. आलेख के विचारों में क्‍व‍िंट की सहमति होना जरूरी नहीं है.)

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