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RERA का एक सालः घर खरीदारों को क्या वाकई मिल पाई कोई मदद?

आखिर रियल एस्टेट रेगुलेटरी एक्ट की रियलिटी क्या है

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कहते हैं कि कानून बनाना आसान है, उसे लागू करना मुश्किल. दूसरे कानूनों की बात अगर छोड़ भी दें तो कम से कम रियल एस्टेट रेगुलेटरी एक्ट यानी रेरा पर ये बात काफी हद तक सच साबित हुई है. 1 मई 2017 को पूरे देश में इस कानून को लागू हो जाना था ताकि होमबायर्स के हक की रक्षा हो सके और बिल्डरों की मनमानी पर लगाम लगे. लेकिन साल भर बाद भी आलम ये है कि देश के सभी राज्यों में ये कानून लागू तक नहीं हो पाया है, और जहां लागू हुआ भी है, वहां आधे-अधूरे ढंग से इसका पालन हो रहा है. महाराष्ट्र के अलावा शायद देश के किसी और राज्य में रियल एस्टेट रेगुलेटरी अथॉरिटी गंभीरता से काम नहीं कर रही है. इसी कारण, कंज्यूमर के लिए पाथब्रेकिंग कहा जा रहा रेरा दरअसल बेचारा बनकर रह गया है.

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RERA कानून में कंज्यूमर के पक्ष में क्या हैं नियम

अगर रेरा अपने मूल रूप में लागू हो और सख्ती से नियम-पालन किए जाएं तो किसी बिल्डर के लिए प्रॉपर्टी खरीदार को ठगना मुमकिन नहीं हो सकेगा. कुछ महत्वपूर्ण नियम इस प्रकार हैः-

स्नैपशॉट
  • सभी जरूरी मंजूरियों (अप्रूवल्स) के बाद ही रियल एस्टेट प्रोजेक्ट रजिस्ट्रेशन की प्रक्रिया पूरी होगी.
  • बिल्डर को प्रोजेक्ट से जुड़ी हर जानकारी रेरा को देने के साथ अपनी वेबसाइट  पर भी डालनी होगी.·
  • बिल्डर को हर प्रोजेक्ट के लिए अलग से एस्क्रो अकाउंट बनाना होगा, जिसमें घर खरीदारों से लिया गया 70 परसेंट पैसा रखना होगा.
  • प्रॉपर्टी ब्रोकरों को भी रेरा में अपना रजिस्ट्रेशन कराना होगा.
  • प्रोजेक्ट का काम पूरा होने के बाद 5 साल तक उसके रख-रखाव की जिम्मेदारी बिल्डर की होगी.
  • बिल्डर घर खरीदारों के साथ इकतरफा एग्रीमेंट नहीं कर सकेंगे.
  • रेगुलेटर की बात नहीं मानने और दोषी पाए जाने पर बिल्डर के लिए जुर्माने और जेल की सजा का प्रावधान भी है.

रियल एस्टेट रेगुलेटरी एक्ट की रियलिटी

जम्मू और कश्मीर को छोड़कर देश के सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में रेरा को लागू होना था. लेकिन साल भर बीतने के बाद भी 8 राज्यों में तो ये कानून नोटिफाई तक नहीं हो सका है. इन राज्यों में उत्तर-पूर्व के सात राज्य और पश्चिम बंगाल शामिल हैं. लेकिन ये सोचना गलत होगा कि जिन राज्यों में रेरा नोटिफाई हो गया है, वहां प्रॉपर्टी कंज्यूमर के हाथ बेहद मजबूत हो गए हैं. इस कानून के तहत राज्य सरकारों को सबसे पहले एक रियल एस्टेट रेगुलेटरी अथॉरिटी बनानी थी, लेकिन आलम ये है कि सभी राज्यों में अथॉरिटी तक नहीं बन सकी है.

रियल एस्टेट कंसल्टेंसी फर्म नाइट फ्रैंक की एक रिपोर्ट के मुताबिक अब तक सिर्फ 3 राज्यों में स्थायी रेगुलेटर नियुक्त हुआ है. ये तीन राज्य हैं महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश और पंजाब, जबकि बाकी राज्यों में अंतरिम रेगुलेटर हैं.

जहां तक अपीलेट अथॉरिटी बनाने की बात है तो सिर्फ तीन राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों- गुजरात, तमिलनाडु और अंडमान-निकोबार में स्थायी अपीलेट अथॉरिटी बनी है,जबकि 13 राज्यों में अंतरिम अपीलेट अथॉरिटी बनाई गई है.

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हर राज्य की रियल एस्टेट रेगुलेटरी अथॉरिटी का एक मुख्य काम है अपनी वेबसाइट बनाना, जहां पर रेरा में रजिस्टर्ड सारे प्रोजेक्ट्स की जानकारी मिल सके. उद्देश्य था कि अगर कोई रेरा में रजिस्टर्ड किसी प्रोजेक्ट, बिल्डर या प्रॉपर्टी एजेंट के बारे में जानकारी हासिल करना चाहता है तो वो जानकारी इस वेबसाइट पर मौजूद रहे.

लेकिन हकीकत ये है कि चार राज्यों- असम, छत्तीसगढ़, हरियाणा और ओडिशा और केंद्र शासित प्रदेश दिल्ली के रियल एस्टेट रेगुलेटरों ने अपनी कोई वेबसाइट ही नहीं बनाई है. और जिन राज्यों में रेरा वेबसाइट मौजूद भी है, उन पर आपको आधी-अधूरी जानकारी ही मिल सकेगी. इस बारे में कंज्यूमरों की तमाम शिकायतें अनसुनी की जा रही हैं कि वेबसाइट पर बिल्डरों और प्रोजेक्ट से जुड़ी अधूरी या गलत जानकारी डाली गई हैं.

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और, ये तब है जबकि केंद्र सरकार के बनाए रेरा कानून में ज्यादातर राज्यों ने अपने मन से बदलाव करके उसकी धार को ही खत्म कर दिया है.

नियमों के तहत रेरा में बिना रजिस्ट्रेशन के रियल एस्टेट प्रोजेक्ट ना तो बिक सकते हैं और ना ही उनका विज्ञापन किया जा सकता है. साथ ही जो भी नए या ऑनगोइंग प्रोजेक्ट हैं, उनका रजिस्ट्रेशन अनिवार्य है. लेकिन कई राज्यों ने बिल्डर लॉबी के दबाव में ऑनगोइंग प्रोजेक्ट की परिभाषा बदल दी है, जिसके बाद कई ऐसे प्रोजेक्ट रेरा के दायरे से बाहर हो गए, जो सालों-साल से चल रहे हैं लेकिन उनका काम पूरा नहीं हुआ है.

ये कहना गलत नहीं होगा कि रियल एस्टेट कंज्यूमर को बिल्डरों की मनमानी से बचाने में रेरा कम से कम अभी तक तो ‘रियल’ मदद नहीं कर सका है. और, जिस धीमी गति से इस कानून को लागू किया जा रहा है, उससे साफ है कि घर खरीदारों को उनका हक दिलाने में ना तो सरकारों की दिलचस्पी है, और ना ही बिल्डरों की. और, जब तक राज्य सरकारें राजनीतिक इच्छाशक्ति नहीं दिखाएंगी, रेरा कागज पर भले ही कंज्यूमर की मदद कर ले, हकीकत में वो बेअसर ही रहेगा.

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