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दिल्‍ली-NCR में अपने फ्लैट की चाबी के लिए इतना लंबा इंतजार क्‍यों?

इस तरह बिल्‍डरों की लापरवाही का शिकार हुए हजारों फ्लैट बायर.

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इसमें कोई संदेह नहीं कि जिस तेजी से देश में रियल एस्टेट से जुड़े काम हो रहे हैं, उससे आने वाले समय में हम 2017 को शायद उसी तरह याद रखेंगे, जिस तरह 1992 को भारतीय अर्थव्यवस्था के पुनर्जन्म के लिए देखते हैं.

रियल एस्‍टेट में कई दिशाओं में कोशिशें की जा रही हैं, चाहे शहरीकरण का काम लें, प्रधानमंत्री आवास योजना हो, रियल एस्टेट को इन्‍फ्रास्‍ट्रक्‍चर के समान स्थान देने का कदम हो या बड़े पैमाने पर घर तैयार करना.

लेकिन इस तेजी से उभरते दृश्य की पृष्ठभूमि में कुछ काले बादल घुमड़ रहे हैं. इन्हें अनदेखा करने की बजाय, पूरी तरह आकलन कर इनका रूप तय करना बेहद जरूरी हो चला है.

आज जब सारा देश बड़ी आशा से RERA और GST की राह देख रहा है, वहीं एक विषम परिस्थिति नोएडा व उसके आसपास देखने को मिलती है. सटीक आंकड़ों के अभाव में भी इतना तो आसानी से देखा जा सकता है कि सैकड़ों की तादाद में मकान आधे बनकर जैसे थम चुके हैं या खरीदारों को घर नहीं सौंपे गए.

हजारों लोगों की गाढ़ी कमाई इस चक्रव्यूह में फंसी हुई है. कभी-कभीर मकान खरीदारों और बिल्डरों या अन्य एजेसियों के बीच होने वाली झड़प भी खबर या अफवाह के रूप में सुनने को मिल जाया करती है. इस स्‍थ‍िति ने न सिर्फ मकान खरीदारों की स्थिति चिंताजनक कर रखी है, बल्कि अनेक बिल्डर, विभिन्न एजेंसियां, बैंक, फंडिंग कंपनियां भी इस चक्रव्यूह की चपेट में आ रहे हैं.

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यहां यह ध्यान रखना जरूरी है कि ये समस्या लगभग एक दशक पहले पैदा हुई. आहिस्ता-आहिस्ता इसने किसी महामारी की तरह कई दिशाओं में अपनी जड़ें फैला लीं. एक दशक पूर्व आसानी से जमीन के छोटे-छोटे टुकड़े मिल जाने से कई ऐसे लोग बिल्डर बनने लगे, या यूं कहें कि बिल्डर बनने का दुस्साहस करने लगे, जिन्हें इस बिजनेस की ठीक-ठीक समझ नहीं थी. जैसे-जैसे इन्होंने छोटे-मोटे प्रोजेक्ट शुरू किए और मकान खरीदारों से एडवांस जमा होता गया, वैसे-वैसे एक के बाद एक प्रोजेक्ट बनाने की सीरीज शुरू हो गई.

इस दौरान पहले शुरू हुए प्रोजेक्ट आधे-अधूरे छूटते गए या धीमी गति से चलते रहे. नतीजा एक विचित्र सी शक्ल अख्‍त‍ियार करने लगी नोएडा की रियल-एस्टेट. तमाम प्रोजेक्ट जमीन पर दिखते रहे, लेकिन फ्लैटों की चाबी खरीदारों के हाथों तक नहीं पहुंची.

ये भी याद रखा जाना चाहिए कि इस क्रम में कुछ योगदान उन ठहरावों का भी रहा, जिसके लिए कानूनी प्रक्रियाएं और अदालती केस जि‍म्मेदार थे. कभी NGT, तो कभी पक्षी विहार या किन्‍हीं और मसलों की वजह से जो अनिश्चितताएं बनती रहीं.

साथ ही इनकी आड़ लेकर कुछ बिल्डरों ने जिस तरह देरी का फायदा उठाया, वो अपने आप में एक अलग कहानी है. बहरहाल, इतना तो तय है कि आबादी का एक बड़ा हिस्सा आज ठगा सा, त्रिशंकु बना रह गया है, जिसने बड़ी मुश्किल से अपना मकान खरीदने की उम्‍मीद को सच में बदलने का सपना देखा था.

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इस तरह बिल्‍डरों की लापरवाही का शिकार हुए हजारों फ्लैट बायर.
(फोटोः istock)

वैसे ये सारा कथानक इस बात की कतई अनदेखा नहीं कर सकता कि इस बेहद उलझे हुए वातावरण में भी नोएडा के कुछ बिल्डरों ने अच्छी आदतों को नहीं छोड़ा. इन गिने-चुने बिल्डरों ने न सिर्फ अपने वायदे के अनुसार प्रोजेक्ट बनाए, बल्कि खरीदारों से ली हुई रकम भी escrow में रखकर पेशेवर तरीके से काम किए. अफसोस इस बात का रह गया कि ऐसे बिल्डरों की संख्या बहुत कम रही.

उम्मीद ये है कि RERA जैसा कानून धोखेबाज बिल्डरों को उतनी वाजिब जगह दिखलाएगा, ताकि रियल एस्टेट और खरीदारों के पैसों से खिलवाड़ करने वाले ऐसा दुस्साहस फिर न करें और हमेशा इस बिजनेस से दूर रहें.

एक मोटे अनुमान से तस्वीर कुछ इस तरह दिखती है. जहां आम तौर पर देश के कई शहरों में मकानों की डिलीवरी में 12-18 महीनों की देर देखी जाती रही है, वहीं नोएडा में औसतन 3 से 5 साल की देरी देखने को मिल रहा है.

अमूमन किसी भी शहर में बड़े प्रोजेक्ट शुरू होने से लेकर पजेशन में लगभग दो-तीन वर्ष लगते हैं. अगर किसी प्रोजेक्ट में 4-5 साल और जुड़ जाएं, यानी 2-3 साल की बजाय 7-8 साल लग जाएं, तो खरीदार का बोझ कई गुना बढ़ जाता है. न सिर्फ खरीदार, बल्कि उस प्रोजेक्ट से जुड़े सभी स्‍टेक होल्‍डर्स पैसों व कर्ज के बोझ तले दबने लगते हैं.

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वैसे एक पहलू और भी है नोएडा में, जिसे पूरी तरह नजरअंदाज नहीं किया जा सकता. ये पहलू है नोएडा के मार्केट में बड़ी संख्या में निवेशकों की भागीदारी का. बड़ी तादाद में, लगभग आधे मकान निवेशकों को बेचे गए हैं. इससे न सिर्फ मकानों की कीमतों में बनावटी उछाल आया, बल्कि जैसे-जैसे नोएडा में हालात बुरे होते गए, वैसे-वैसे निवेशकों की राशि जमा करने में रुचि मद्धिम होने लगी.

नतीजतन, पहले से धीमे पड़े प्रोजेक्ट और भी मंद पड़ने लगे. इस सब का खामियाजा निश्चित रूप से उन खरीदारों को भुगतना पड़ रहा है, जिन्होंने एक घर खरीद कर उसमें रहने के सपने देखे थे.

मान लें लगभग पचास लाख रुपये कीमत के एक लाख मकान खरीदारों को समय से नहीं मिले, तो लगभग पचास हजार करोड़ रुपये के मकानों की चाबी खरीदारों के हाथ नहीं आई. अगर इस पचास हजार करोड़ रुपये में से चौथाई राशि भी लोगों ने अपनी जमापूंजी से खर्च की थी, तो नोएडा के मार्केट में आम आदमी के कम से कम दस से पंद्रह हजार करोड़ रुपये दफन हुए पड़े हैं!

आज कमोबेश स्थिति इस तरह की बन चुकी है कि अपनी जमा-पूंजी से ‘घर’ का सपना देखने वाले साधारण आदमी के रास्ते बंद से होते दिखने लगे हैं.

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पर, इस सबके बीच अब उम्मीद की किरणें भी फूटने लगी हैं. RERA का कानून ऐसे प्रोजेक्ट का काफी हद तक इलाज है. जिन बिल्डरों ने लापरवाही से वादाखिलाफी कर रखी है, उन्हें अब किसी भी तरह प्रोजेक्ट पूरे करने ही होंगे, वरना वे भारी सजा के हकदार होंगे. न सिर्फ बिल्डर, बल्कि हर वो एजेंट या ब्रोकर, जो इन प्रोजेक्टों को बेचता है, जि‍म्मेदार ठहराया जा सकेगा.

RERA के तहत हर राज्य में अपीलीय ट्रिब्‍यूनल बनाना अनिवार्य होगा. ये ट्रिब्‍यूनल खरीदारों के हितों की रक्षा के लिए हैं. इसके अलावा खरीदारों को रियल एस्टेट बिल्डरों की संस्थाओं जैसे CREDAI या NAREDCO वगैरह में भी गुहार लगानी चाहिए.

मीडिया के दायित्व से भी इनकार नहीं किया जा सकता. आज अनेक मीडिया चैनेलों ने उपभोक्ताओं के हित के लिए न्याय दिलाने की पहल शुरू कर रखी है. उपभोक्ताओं को इनका पूरा-पूरा इस्तमाल करना चाहिए.

सबसे पहले तो सरकारी तंत्र को आगे बढ़कर पहल करनी होगी, जिससे बिल्डरों पर प्रोजेक्ट खत्म करके, सारी कानूनी औपचारिकताएं पूरी करने का जोर बन सके. साथ ही निवेशकों को भी अपनी किश्त समयबद्ध तरीके से चुकाने की जरूरत महसूस हो.

साधारण इंसान के धन से हुई नाइंसाफी को खत्म करना ही पहली प्राथमिकता होनी चाहिए. सबसे जरूरी है उपभोक्ताओं का अपने हितों के प्रति जागरूक रहना. इसके लिए बराबर इन सभी रास्तों पर निगाह रखनी होगी.

किसी भी स्थान पर इस विकराल स्थिति से निपटना ही आज सबसे अहम काम है. सरकारों को, बिल्डरों को, बैंकों को और प्रत्येक स्‍टेक होल्‍डर्स को इससे निपटने का पुरजोर प्रयास करना ही होगा. वरना नोएडा का रियल एस्टेट रूपी ये दलदल न जाने कितने रुपयों और जमा-पूंजियों की समाधि बन जाएगा.

(अरविंद नंदन रियल एस्‍टेट एक्‍सपर्ट हैं. इस आलेख में प्रकाशित विचार उनके अपने हैं. आलेख के विचारों में क्‍व‍िंट की सहमति होना जरूरी नहीं है.)

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