वास्तविक अपेक्षाओं के साथ ऊंचे स्थायी विकास के लिए निम्न और स्थिर मुद्रास्फीति (इंफ्लेशन) दर आवश्यक शर्त है. इसलिए ढांचागत मौद्रिक नीतियों और टारगेट बैंड की समीक्षा के को लेकर बहस लाजिमी है.
अक्सर बहस में उलझ जाता है मामला
बहरहाल शोर-शराबे वाली बहस-मुहाबिसों से अक्सर मसला स्पष्ट होने के बजाए उलझ जाता है. जब मुख्य लक्ष्य को ध्यान में रखकर मायने नहीं निकाले जाते और इसे अर्थपूर्ण नहीं बनाया जाता. किसी फैसले का अहम पहलू उसका मकसद या लक्ष्य होता है जो कि इस मामले में मुद्रास्फीति की दर है. बहरहाल ढांचागत जरूरतों के अनुरूप मुद्रास्फीति को तर्कसंगत बनाने को लेकर बहस में हम अक्सर सबसे महत्वपूर्ण बिन्दुओं को छोड़ देते हैं-
वे ताकतवर संकेत जो बुनियादी बेंचमार्क इन्फ्लेशन इंडेक्स, गुणवत्ता और इसके घटक से मिल रहे होते हैं. खास तौर पर इसका मतलब ये भी है कि मुद्रास्फीति के लक्ष्य को लेकर कोई बहस बहुत उपयोगी नहीं रह जाती है अगर बेंचमार्क इन्फ्लेशन इंडेक्स उपयुक्त नहीं है. आखिरकार ये बुनियादी आंकड़े किसी भी नीति और उसके कार्यान्वयन के प्रभाव को नियंत्रित करने के लिए होते हैं.
सवालों से घिरी होती है आंकड़ों की गुणवत्ता
यहां विवाद का विषय ये है कि वर्तमान कन्ज्यूमर प्राइस इंडेक्स (सीपीआई) अर्थव्यवस्था में वास्तविक मुद्रास्फीति की दर को व्यक्त कर रहा हो, ऐसा जरूरी नहीं है. खासतौर से ये ऐसी मौद्रिक नीति के लिए खतरनाक होता है जो पूरे ढांचे को प्रभावित करती अस्थिर मुद्रास्फीति से निर्देशित होता है. क्योंकि, ये इन्फ्लेशन ट्रैजेक्टरी यानी मुद्रास्फीति के उतार-चढ़ाव वाले ग्राफ को थोड़े समय के लिए ही सही, गलत तरीके से व्यक्त कर सकता है. साथ ही इससे पुरानी और भविष्य की नीतियों के नतीजों में बड़ा फर्क पड़ सकता है. याद करें कि डॉ सुब्बाराव बुनियादी आंकड़े की गुणवत्ता का ही रोना रोते हैं और कहते हैं कि आरबीआई “अक्सर इसलिए गलत हो जाती है क्योंकि आंकड़ों की गुणवत्ता सवालों से घिरी रहती है.”
सीपीआई इंडेक्स और आंकड़े बड़ी समस्याएं पैदा करती हैं. ये एक मुद्दा है कि बुनियादी कंजम्पशन बास्केट का प्रतिधित्व कैसे हो. सीपीआई बास्केट मापने के तौर तरीके एक दशक पहले तय हुए, जिसका आधार वर्ष 2011-12 था. तब से प्रतिव्यक्ति आय दोगुनी हो चुकी है. वास्तव में घरेलू उपभोग की प्रवृत्तियों में बड़ा फर्क आ चुका है. यह बदलाव खाद्य से अखाद्य वस्तुओं में अलग-अलग है और ये बताता है कि सीपीआई (कंज्यूमर प्राइस इंडेक्स) में सबसे अधिक अस्थिर रहने वाला सब ग्रुप खाद्य का भार पहले जैसा नहीं रह गया है.
कंजम्पशन एक्सपेंडिचर सर्वे के मुताबिक 1999-00 और 2011-12 में भी ठीक ऐसा ही हुआ था. इस दौरान खाद्य वस्तुओं पर घरेलू खर्च का हिस्सा गांवों में 10.8 पीपी और शहरों में 9.6 पीपी गिर गया था.
अलग-अलग बेकार हो चुकी वस्तुओं का भी भार
सब ग्रुप के भीतर अलग-अलग वस्तुओं का भार भी मुद्दा है, जिस बारे में माना जाता है कि वो बदल चुका है. उदाहरण के लिए प्रति व्यक्ति आय बढ़ने की वजह से खाद्य सबग्रुप में माना जाता है कि उपभोक्ता की प्रवृत्ति अनाज (भार के हिसाब से खाद्य में वजन 25 प्रतिशत) से दाल, फल और प्रसंस्कृत खाद्यान्न की ओर बढ़ी है. इसके अलावा कई अन्य वस्तुएं भी हैं जो अब बेकार हो गई हैं जैसे वीसीआर, डीवीडी प्लेयर्स, कैमरा, रेडियो, टेप रिकॉर्डर, टू इन वन, सीडी, कैसेट आदि. इस सूची में नयी वस्तुएं जोड़ी जा सकती हैं.
अब कीमत को लेकर आंकड़ों के स्रोत से जुड़ी समस्या हमारे सामने आ खड़ी होती हैं. इसका दायरा परंपरागत चौक चौराहों वाली वस्तुओं से दूर डिजिटल चैनल समेत ई-कॉमर्स तक ले जाने की जरूरत है.
पहले स्तर पर खासतौर पर महामारी के कारण नमूने लेने के तौर-तरीकों पर पुनर्विचार करना चाहिए कि किस तरह खरीददारी में लोगों की प्राथमिकताएं बदल रही हैं और व्यवहार में आता यह बदलाव कमोबेस बना रह सकता है. सीपीआई के आंकड़े को आगे बढ़ाने के लिए ऑनलाइन प्राइस को पकड़ना अधिक महत्वपूर्ण होगा.
कंज्यूमर प्राइस की गणना वाली व्यवस्था से निकलना होगा
दूसरी सीपीआई मानकों जैसे सीपीआई-आईडब्ल्यू आदि के लिए आधार वर्ष को देशव्यापी सीपीआई के अनुरूप बनाना होगा ताकि नीतियों के निर्माण में सभी संस्थानों को अधिक सक्षम बनाया जा सके.
हमें वर्तमान में कंज्यूमर प्राइस की गणना वाली व्यवस्था से बाहर निकलना होगा क्योंकि ये भार के मामले में बहुत स्थिर है और कंजम्पशन बास्केट में मौजूद वस्तुओं की कीमतों की समीक्षा पूरे दशक में बमुश्किल एक बार होती है. ये कई तरीकों से किया जा सकता है. उदाहरण के लिए इंग्लैंड में जिन वस्तुओं और सेवाओं से सीपीआई की बास्केट बनती है और उससे जुड़े खर्च का जो वजन होता है उसे वार्षिक आधार पर अपडेट किया जाता है.
इससे कई तरह की संभावित गड़बड़ियां दूर हो जाती हैं जैसे नई वस्तुओं और सेवाओं का विकास, निरर्थक या पुरानी वस्तुओं का सस्ती वस्तुओं से हस्तांतरण. ये निश्चित बास्केट के बजाए खर्च के आंकड़ों का इस्तेमाल करती है जिससे भार में बदलाव, महंगी-सस्ती का प्रभाव और यहां तक कि महामारी के दौर में वस्तुओं और सेवाओं के उपभोग नहीं हो पाने जैसी समस्याओं पर भी विचार करता है. दिलचस्प बात ये है कि अमेरिका तक में भी हर दो साल में वजन को समायोजित किया जाता है.
मुद्रास्फीति को ध्यान में रखते हुए आरबीआई को सीपीआई का आधार निश्चित समयावधि पर बदलते रहने की व्यवस्था विकसित करनी होगी जिससे बेहतर आर्थिक इकोसिस्टम विकसित हो सके.
(लेखक सच्चिदानंद शुक्ला महिंद्रा एंड महिंद्रा ग्रुप के चीफ इकॉनॉमिस्ट हैं. )
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