आखिर वही हुआ, जिसका डर था. पांच साल तक हाथ-पांव मारने के बाद मोदी सरकार का भी खजाना उतना ही खाली है, जितना पिछली सरकारों का था. एनडीए सरकार ने लगातार खर्च बढ़ाया, जबकि उसकी आमदनी में उस रफ्तार से बढ़ोतरी नहीं हुई. इस गैप को फिस्कल डेफिसिट यानी राजकोषीय घाटा कहते हैं.
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एक वक्त ऐसा भी था, जब आर्थिक विमर्श और आर्थिक नीतियां बनाने में फिस्कल डेफिसिट को लेकर बहुत माथापच्ची नहीं की जाती थी. उस दौर में बॉन्ड मार्केट का भी मौद्रिक नीतियों पर जोर नहीं चलता था. खुला व्यापार, मुद्रा की वैल्यू बाजार के हिसाब से तय किए जाने, महंगाई दर को लक्ष्य के अंदर रखने, विदेशी पोर्टफोलियो निवेश, कैपिटल एकाउंट कन्वर्टेबिलिटी और टेलर रूल भी तब नाश्ते की टेबल पर होने वाली बातचीत का हिस्सा नहीं बने थे.
यह ऐसा दौर था, जबअर्थशास्त्र का मतलब सरकारी पैसे का सही काम में इस्तेमाल था. उस दौर में सिर्फ अमेरिकी अर्थशास्त्री मार्केट की बात करते थे. दूसरे देशों के अर्थशास्त्री वित्तीय संसाधनों तक सरकार की पहुंच के विमर्श तक खुद को सीमित रखते थे.
भारत की सरकारों का ध्यान इस पर हुआ करता था कि कैसे निवेश बढ़ाए जाए. यह काम ‘एडिशनल रिसोर्स मोबिलाइजेशन’ (एआरएम) यानी अतिरिक्त वित्तीय संसाधन जुटाकर (टैक्स से आमदनी बढ़ाकर ) ही किया जा सकता था. 1970 के दशक की शुरुआत के बाद से हर बजट के सफल या असफल होने का पैमाना एआरएम को ही माना गया. उस दशक के आखिर तक यह टैक्स और खर्च ऐसे जुनून में बदल गया कि 1979 में चरण सिंह ने भारी-भरकम खर्च वाला बजट पेश किया. नतीजा यह हुआ कि आजादी के बाद पहली बार बजट घाटा 1,000 करोड़ रुपये को पार कर गया. फिस्कल डेफिसिट शब्द का इस्तेमाल अभी भी एक दशक दूर था. चरण सिंह के बजट में इसके 1,300 करोड़ रुपये रहने का अनुमान लगाया था, जबकि वास्तविक घाटा कहीं अधिक था.
क्या बदला?
मैं इस मुद्दे पर दो वजहों से बात कर रहा हूं. हम 70 वर्षों से आमदनी से अधिक खर्च कर रहे हैं. दूसरी बात यह है कि एक के बाद एक सरकारों ने अधिक आमदनी और कम खर्च का अनुमान लगाया. इस मामले में मोदी सरकार भी पिछली सरकारों से अलग नहीं है, लेकिन इसके साथ ही दो बदलाव भी हुए हैं.
पिछली सरकारें अधिक निवेश करती थीं और कंजम्पशन पर कम खर्च करती थीं. यह क्लासिकल सोवियत मॉडल था. अब सरकारें कंजम्पशन पर अधिक और निवेश पर कम खर्च कर रही हैं, जो क्लासिकल अमेरिकी मॉडल है.
दूसरी बात यह है कि पहले बजट घाटे को भरने के लिए सरकारें अधिक नोट छापती थीं, अब वे इसकी भरपाई‘मार्केट’ से अधिक कर्ज लेकर करती हैं.
अधिक नोट छापने वाले दौर में जब मॉनसून सीजन में कम बारिश होती थी, तब महंगाई बढ़ती थी. अभी वाले मॉडल में सरकार पर कर्ज काफी बढ़ गया है. पिछले मॉडल में महंगाई के कारण सरकार के कर्ज की वैल्यू घटती थी, लेकिन लोगों पर बोझ बढ़ता था. आज वाले मॉडल में सरकार तंगी में फंस गई है, जबकि कंज्यूमर की शक्ल में नागरिकों का गुजर-बसर ठीक-ठाक हो रहा है. लेकिन इन लोगों को अहसास नहीं है कि उनके लिए पब्लिक सर्विसेज कम होती जा रही हैं और उन्हें बाजार से अपने परिवार की खातिर अधिक चीजें खरीदनी पड़ रही हैं.
राजनीतिक अर्थशास्त्र की इस दलदल में सिर्फ भारत ही नहीं चीन समेत दुनिया के हर देश फंस गए हैं. अगले दो दशक के लिए सबसे बड़ा सवाल यही होगा कि वे इस दलदल से कैसे बाहर निकलेंगे? और सरकारें निवेश और कंजम्पशन दोनों के लिए पैसा कहां से लाएंगी?
मोदीजी सरकारी जमीन बेचिए
वित्त मंत्रालय और भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) को मिल-बैठकर ‘एडिशनल रिसोर्स मोबिलाइजेशन’ का नया तरीका ढूंढना होगा. एक रास्ता अधिक नोट छापने का हो सकता है, जो हम पहले करते रहे हैं. मेरा मानना है कि इसका इस्तेमाल आपदा राहत जैसी इमरजेंसी सिचुएशन के लिए करना चाहिए. इसके बाद आरबीआई से फंड ट्रांसफर और सरकारी संपत्तियों को बेचने का रास्ता बचता है. पिछले पांच साल में इसके लिए सारी कोशिशें हो चुकी हैं: आरबीआई के रिजर्व पर कब्जा करने के प्रयास से लेकर पब्लिक सेक्टर की कंपनियों में सरकार की हिस्सेदारी बेचने से लेकर जीएसटी के जरिये अधिक टैक्स जुटाने और निवेश घटाने तक. इनमें से कोई भी रास्ता पूरी तरह सफल नहीं रहा है और कॉम्पिटिटिव पॉलिटिक्स के कारण सफल होगा भी नहीं. सच तो यह है कि इस वजह से स्थिति और खराब होगी.
अगर आप अपने आसपास देखें तो पाएंगे कि सरकार के पास शहरों में काफी बेशकीमती जमीन है. वह हजारों एकड़ जमीन की मालिक है. अगर वह हर साल इसमें से 1 पर्सेंट से भी अधिक जमीन नहीं बेचती तो फिस्कल डेफिसिट को पाटने में सफल रहेगी. दिल्ली में सिर्फ आरके पुरम के री-डिवेलपमेंट से ही उसे कम से कम दो लाख करोड़ रुपये मिल सकते हैं, लेकिन सरकार आरके पुरम के पड़ोस में बाबुओं के लिए और फ्लैट्स बनाने में बिजी है. अगली सरकार को बिना देरी के जमीन बेचने की प्रक्रिया शुरू करनी चाहिए. इसमें संदेह नहीं है कि जमीन की कीमत तय करने में करप्शन हो सकता है और उस वजह से अदालतों में मुकदमे दायर होंगे. अगर इस वजह से जमीन बेचने की प्रक्रिया में कुछ साल की देरी भी होती है तो भी आखिर में इस रास्ते से फिस्कल डेफिसिट की समस्या खत्म हो जाएगी.
क्या आप यह सोच रहे हैं कि ऐसा किसी और देश ने किया है या नहीं? जी बिल्कुल! चीन में यह मॉडल सफल रहा है.
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