एजीआर यानी एडजस्टेड ग्रॉस रेवेन्यू (AGR) की व्याख्या पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले के खिलाफ याचिका दायर करने वाली टेलीकॉम कंपनियों को निराशा हाथ लगी है. सुप्रीम कोर्ट ने उनकी याचिका खारिज कर दी है. एडजस्टेड ग्रॉस रेवेन्यू को लेकर सुप्रीम कोर्ट के फैसले से टेलीकॉम कंपनियों पर 92 हजार करोड़ रुपये का अतिरिक्त बोझ पड़ गया है.
दरअसल इस मामले में टेलीकॉम मिनिस्ट्री का कहना था कि टेलीकॉम कंपनियां अपने रेवेन्यू की अंडर रिपोर्टिंग कर रही हैं यानी वह अपनी कमाई को छिपा रही हैं. लिहाजा टेलीकॉम कंपनियों पर लगाने वाला टैक्स एजीआर पर ही होना चाहिए.
टेलीकॉम मिनिस्ट्री का कहना है कि एजीआर में टेलीकॉम कंपनियों की ओर से दी जाने वाले सर्विस के साथ बेचे जाने वाले हैंडसेट की कमाई जैसी अतिरिक्त आय भी शामिल है. लेकिन कंपनियों ने इसका विरोध किया है.
सुप्रीम कोर्ट ने पिछले साल अक्टूबर में सरकार (टेलीकॉम मिनिस्ट्री) के इस तर्क को स्वीकार कर लिया था और कंपनियों को फैसले के तीन महीने के अंदर अपना बकाया भुगतान करने को कहा था. इसके बाद मिनिस्ट्री ने सभी कंपनियों को डिमांड लेटर जारी किया था.
सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले के बाद कंपनियों ने यह कहना शुरू किया कि एजीआर के बोझ से वे बंद हो जाएंगीं. एबी बिड़ला ग्रुप के चेयरमैन कुमार मंगलम बिड़ला ने कहा था कि ऐसे फैसलों से उन्हें अपनी कंपनी वोडाफोन बंद करनी पड़ेगी. क्योंकि दुनिया की कोई भी कंपनी तीन महीने के अंदर इतनी बड़ी रकम नहीं चुका सकती. हालांकि बाद में सरकार ने इन कंपनियों को राहत देते हुए कहा था कि वह दो साल तक स्पेक्ट्रम फीस देना रोक सकती हैं.
क्या है एजीआर?
एडजस्टेड ग्रॉस रेवेन्यू टेलीकॉम कंपनियों से लिया जाने वाला यूजेज और लाइसेंसिग फीस है. इसके दो हिस्से होते हैं- स्पेक्ट्रम यूजेज चार्ज और लाइसेंसिंग फीस. सरकार का यह कहना है कि टेलीकॉम कंपनी को होने वाली पूरी आय की गणना उनके रवेन्यू के आधार पर होनी चाहिए जिनमें डिपोजिट इंटरेस्ट और एसेट बिक्री जैसी गैर टेलीकॉम स्त्रोतों की आय भी शामिल हो. दूसरी तरफ, टेलीकॉम कंपनियों का कहना है कि एजीआर की गणना सिर्फ टेलीकॉम सेवाओं से होने वाली आय के आधार पर होनी चाहिए.
ग्राहकों पर ही पड़ेगा इस वित्तीय बोझ का दबाव
एक्सपर्ट्स का कहना है कि टेलीकॉम कंपनियों की याचिका खारिज करने का खामियाजा आखिरकार ग्राहकों को ही भुगतना होगा. हाल में सभी कंपनियों के टैरिफ चार्जेज में बढ़ोतरी के बाद यह साफ हो गया है कि कंपनियां खुद पर आने वाले किसी भी बोझ की भरपाई ग्राहकों से ही करेंगी. जाहिर है सुप्रीम कोर्ट के इस रुख के बाद ग्राहकों पर बोझ बढ़ने से इनकार करना मुश्किल है.
ये भी पढ़ें : आखिर जज कब समझेंगे अपने फैसलों का आर्थिक असर?
(क्विंट हिन्दी, हर मुद्दे पर बनता आपकी आवाज, करता है सवाल. आज ही मेंबर बनें और हमारी पत्रकारिता को आकार देने में सक्रिय भूमिका निभाएं.)