सत्ता पक्ष और विपक्ष में बहस तो होती ही रहती है लेकिन इस बार एक ही परिवार के दो अहम लोग भिड़ गए. खुलेआम. एक ने पूछा चीन से कंपनियां भाग रही हैं लेकिन भारत क्यों नहीं आ रहीं? दूसरा बोला-आप पुरानी रिपोर्ट का हवाला दे रहे हैं. बात सही थी. लेकिन सवाल ये है कि कोरोना संकट के समय चीन से भाग रहीं कंपनियां भारत आएं, इसके लिए हमने कुछ किया है क्या?
ट्विटर पर ये सवाल दागने वाले थे RSS की पत्रिका ऑर्गेनाइजर के संपादक रह चुके शेषाद्री चारी.
शेषाद्री चारी ने नोमुरा की रिपोर्ट का हवाला देते हुए बताया कि 56 कंपनियों ने चीन के बाहर अपना प्रोडक्शन स्थापित किया, जिसमें से सिर्फ 3 कंपनियां भारत आईं. वहीं 26 कंपनियां वियतनाम, 11 ताइवान और 8 थाईलैंड गईं. ऐसा क्यों हुआ? क्या इसके पीछे नौकरशाही, राजनीति, सुस्ती है? क्या हम कारोबार आसान बनाने को लेकर और मेक इन इंडिया को लेकर चिंतित हैं?
इस पर जवाब देते हुए बीजेपी के नेशनल IT प्रमुख अमित मालवीय ने कहा कि आप जिस रिपोर्ट का जिक्र कर रहे हैं वो 6 महीने पुरानी है. कुछ नया लाइए'
क्या अब हम तैयार हैं?
दरअसल पिछले साल जब अमेरिका और चीन में ट्रेड वार बढ़ा तो चीन से कई कंपनियां भागने को मजबूर हुईं. लेकिन इन्हें भारत अपनी ओर आकर्षित करने में नाकाम रहा. दिक्कत ये है कि जिन कारणों से कंपनियां वियतनाम आदि दूसरे देश गईं, वो कारण आज भी बने हुए हैं.
ईज ऑफ डूइंग बिजनेस में भारत की रैंकिंग पिछले सालों में तेजी से बढ़ी है. 2013-14 में भारत की 142वीं रैंक थी, उसके बाद देश ने 6 साल में भारत ने 79 स्थान का सुधार किया. लेकिन अभी भी व्यवहारिक तौर पर किसी नई कंपनी के लिए भारत में काम करना काफी मुश्किल है.
अगर कंपनी का प्रोजेक्ट पास भी हो जाता है तो कंपनी को भूमि अधिग्रहण के लिए किसानों से निपटना पड़ेगा, सुस्त और भ्रष्ट नौकरशाही का सामना करना पड़ेगा, स्थानीय माफिया, NGO, ट्रेड यूनियन, स्थानीय सरकार जैसी कई परतों से होकर गुजरना होगा. इसलिए अगर कोरोना संकट के बाद अगर कंपनी को अपने देश बुलाना है तो कारोबार को व्यवहारिक तौर पर आसान बनाना होगा.
भारत के पास बड़ा मौका
इस बारे में हाल ही में क्विंट के एडिटोरियल डायरेक्टर संजय पुगलिया ने टीमलीज के चेयरपर्सन, और आरबीआई, सीएजी के बोर्ड मेंबर मनीष सभरवाल से बात की थी. मनीष सभरवाल ने कहा था कि 'चीन से बहुत सारी कंपनियों का पिछले सालों में मोहभंग हुआ है, अब वो दूसरी जगहों पर जाएंगी. इसके कारण चीन को जैसा मौका 1978 में मिला था, ठीक वैसा ही मौका अब भारत के पास है. इसका फायदा भारत को मिल सकता है, लेकिन शर्त ये है कि तुरंत नीतिगत बदलाव करने होंगे. नहीं तो बांग्लादेश और वियतनाम जैसे देश मौका लूट लेंगे.'
सभरवाल बताते हैं कि ऐसे कई सारे रेगुलेटरी नियम हैं जिनको सिर्फ मंजूरी देने भर से कारोबार करना आसान हो जाएगा. वियतनाम, ताइवान जैसे देशों से हमारा मुकाबला है और उन देशों में स्किल्ड लेबर ज्यादा है, लाल फीताशाही कम है. लेकिन
अगर मोदी सरकार को ये मौका लूटना है तो लैंड, लेबर, कैपिटल और ज्यूडिशियल रिफॉर्म्स पर फोकस करना होगा. इनको आसान बनाना होगा. सभरवाल ने उम्मीद जताई कि सरकार जरूर ये काम करेगी. लेकिन उनके जवाब में एक तथ्य भी छिपा था. सरकार अभी तक वो जरूरी सुधार नहीं कर पाई है.
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