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कोविड कंट्रोल:’पॉलिसी पैरालिसिस’ की इससे डरावनी तस्वीर हो सकती है?

सन्नाटा भी आखिर गूंजने लगा है क्योंकि इस बार पॉलिसी पैरालिसिस जानलेवा है

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यूपीए सरकार (UPA Govt.) पर एक बहुत बड़ा इलजाम था, ''पॉलिसी पैरालिसिस'' का. मतलब कि नीतिगत फैसले वक्त पर नहीं लिया जाना. आरोप था कि इससे चीजें आगे नहीं बढ़ती, काम लटके रहते हैं, इकनॉमी (Economy) ठिठक गई है. पिछले एक साल से इस देश में एक अलग ही लेवल की पॉलिसी पैरालिसिस चल रही है. फर्क ये है कि इस बार चौकोर डिब्बों में बैठकर-बिठाकर रोज शाम को शोर नहीं होता. लेकिन खामोशी की भी अपनी सदा होती है. सन्नाटा भी आखिर गूंजने लगा है क्योंकि इस बार पॉलिसी पैरालिसिस जानलेवा है. गिनते जाइए.

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वैक्सीन

कोरोना से बचाव का नारा था -''जब तक दवाई नहीं तब तक ढिलाई नहीं''. माने पता था कि वैक्सीन ही रामबाण है. तो सबसे जरूरी चीज वैक्सीन पर हमने क्या किया? 19 जनवरी, 2021 को पीएम मोदी कह रहे थे कि विश्व को वैक्सीन सप्लाई कर हमें गर्व हो रहा है. अप्रैल आते-आते नौबत ये आ गई कि हम वैक्सीन निर्यातक से आयातक बन गए. न सिर्फ अपनों की जान जोखिम में डाला बल्कि 60 से ज्यादा गरीब देश भी मुसीबत में पड़ गए. इन देशों को भारत से वैक्सीन मिलना था. लेकिन घरेलू जरूरतों के कारण सीरम करार की शर्तों को पूरा नहीं कर पा रहा है. उसे लीगल नोटिस मिल चुका है.

कहां गलती हुई? जब अमेरिका, इंग्लैंड जैसे देश कई वैक्सीन पर दांव पर लगा रहे थे, हम दो के भरोसे रह गए. उसमें भी ऐस्ट्राजेनेका लाने में सरकार नहीं सीरम की भूमिका थी. इतना ही नहीं, वैक्सीन बनाने वालों को लेट से ऑर्डर दिया, जरूरत भर ऑर्डर नहीं दिया. 16 जनवरी, 2021 को हमारा वैक्सीनेशन अभियान शुरू हुआ और जनवरी के पहले हफ्ते तक, जी हां रिपीट करता हूं, जनवरी के पहले हफ्ते तक तक SII को नहीं पता था कि भारत सरकार को कब तक, कितने टीकों की जरूरत है.

4 जनवरी 2021 में हिन्दुस्तान टाइम्स को दिए इंटरव्यू में SII के आदर पूनावाला ने कहा था -
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नतीजा अप्रैल में SII की क्षमता करीब 6-7 करोड़ डोज प्रति माह और भारत बायोटेक की सप्लाई 1.2 करोड़ हर महीने तक ही पहुंच पाई है. वैक्सीन की कमी का हल्ला मचा है तो इन कंपनियों ने क्षमता बढ़ाने की बात की है.लेकिन वक्त लगेगा. वक्त पैसा जुटाने में, वक्त प्लांट खड़ा करने में.

कोई नहीं बोलेगा लेकिन जिस वैक्सीन के लिए कंपनियों ने 1000-1500 रुपए की उम्मीद की थी और उसे डेढ़ दो सौ में देना पड़े तो क्या होगा? देशभक्ति का जज्बा कितना भी हो, अपने अस्तित्व की कीमत पर कोई कंपनी कितनी वैक्सीन बनाएगी. डींगे और सरकार हांकने वाले बाजार की बेसिक बातें जानते तो कहते - पैसे की कमी नहीं होने देंगे. हम नहीं दे सकते तो बाजार कीमत पर बेचकर कमाओ.
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कंपनियों को कुछ मुनाफा मिलता तो उनके लिए आपदा अवसर होती, अवसाद का कारण नहीं. सरकार जरूरतमंदों को कम कीमत पर या मुफ्त में वैक्सीन देना चाहती है तो सब्सिडी दे सकती थी.

अब जब कोरोना विस्फोट हो चुका है तो सरकार ने 19 अप्रैल को कहा है कि कंपनियां कीमत तय कर पाएंगी. सरकार ने अब ये भी तय किया है कि राज्य सरकारें सीधे उत्पादक से वैक्सीन ले पाएंगी. ये मांग ओडिशा सरकार ने की थी. और जो लंबे समय से मांग थी कि 18 साल से ऊपर के हर शख्स को टीका दीजिए उसके लिए भी सरकार मान गई है. लाजवाब मगर लेट.

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आपको हेडलाइन मिल गई, हमें वैक्सीन कब मिलेगी? अपनी कंपनियों को क्षमता बढ़ाने में वक्त लगेगा. और बाहर से आने में हजार मसले हैं. हम ट्रेन छूटने के बाद प्लेटफॉर्म की तरफ दौड़ रहे हैं. हम हर रोज तीन लाख नए कोरोना केस छूने के डरावने मोड़ पर खड़े हैं.

कई विदेशी वैक्सीन को फास्ट ट्रैक मंजूरी देने का फैसला किया लेकिन इनसे वैक्सीन मिलने में वक्त लगेगा. फाइजर से मॉडर्ना तक, कई देशों से ऑर्डर ले चुके हैं, उनके लिए वो ऑर्डर पूरा करना प्राथमिकता है.

फास्ट ही सही लेकिन अप्रूवल, फिर कीमत पर रार, फिर करार,फिर प्रोडक्शन, तब जाकर फिर सप्लाई. इनमें से कई वैक्सीन के लिए हमें कई लॉजिस्टिकल जरूरतें पूरी करनी होंगी. लेकिन इतना वक्त उस देश के पास है क्या जहां दुनिया में सबसे ज्यादा नए केस आ रहे हैं, दुनिया में सबसे ज्यादा मौतें हो रही हैं? पॉलिसी पैरालिसिस का डरावना उदाहरण.

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तुर्रा ये कि बताने जाइए तो जिल्लत सहिए. किसी ने कहा विदेशी वैक्सीन को जल्दी मंजूरी दीजिए. तो जवाब मिला तुम उनके एजेंट हो क्या. फिर दो-तीन रोज के बाद वही किया. किसी ने पूछा SII को मदद चाहिए, जवाब मिला आपसे किसने कहा कि उनको मदद चाहिए?

पूर्व पीएम मनमोहन सिंह ने पीएम को लिखा- वैक्सीन बनाने वाली कंपनियों को मदद दीजिए.

जिस दिन (19 अप्रैल) मनमोहन को स्वास्थ्य मंत्री ने लगभग अशोभनीय अंदाज में जवाब दिया, उसी दिन चंद घंटे बाद सरकार ने यही ऐलान किया-कंपनियों को मदद देगी.

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प्राइवेट सेक्टर की अनदेखी

हिंदी में कहावत है भोज के समय कोहड़ा रोपना. समस्या यही है कि सरकार रिएक्टिव है, प्रोएक्टिव नहीं. शुरू-शुरू में सरकार ने तय किया कि वैक्सीनेशन में सबकुछ खुद करेगी. कुछ ही दिन में हवा टाइट हो गई फिर तय किया गया कि प्राइवेट सेक्टर की मदद ली जाएगी. जब ये हुआ तब स्पीड बढ़ी. ऐसा क्यों? क्या सरकारी मशीनरी की क्षमता के बारे में पता नहीं था?

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टेस्टिंग और ट्रेसिंग कोरोना की रोकथाम के मूल में है. लेकिन शुरू में सरकार ने ये भी खुद के कमजोर कंधों पर लाद लिया. कम टेस्ट हुए. बाद में निजी सेक्टर को खोला गया. जानलेवा लेटलतीफी नहीं है?

बिन ऑक्सीजन जब राज्यों की सांस उखड़ने लगती है तो सरकार समीक्षा बैठक करने लगती है. बैठक होगी. इंडस्ट्रियल सप्लाई रुकेगी. आयात होगा, ट्रेन से सप्लाई होगी. लेकिन हुजूर तब तक सांसें चलेंगी?

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कुंभ

कुंभ में जब 50 लाख लोग सिर्फ तीन दिन में शाही स्नान कर लेते हैं और हर ओर से सवालों के छीटें पड़ने लगते हैं तो कहते हैं कि अपील है कि इसे प्रतीकात्मक रखा जाए. क्या फायदा? भगवान न करे ऐसा हो लेकिन अगर उन 50 लाख लोगों में से 10% भी संक्रमित हुए तो 5 लाख सुपर स्प्रेडर न सही, स्प्रेडर हुए. याद रखिएगा 19 अप्रैल को देश में पॉजिटिविटी रेट 20% से ज्यादा है. अधूरा फैसला. वो भी देर से.

लॉकडाउन

जरा और पीछे चलिए. ऑन रिकॉर्ड है. 13 मार्च, 2020 को स्वास्थ्य सचिव ने कहा - कोरोना को लेकर हेल्थ इमरजेंसी वाली स्थिति नहीं है. फिर 24 मार्च, 2020 को देशव्यापी लॉकडाउन लगा दिया जाता है, सिर्फ चार घंटे के नोटिस पर. मानों सरकार में इस हाथ को नहीं मालूम कि दूसरा हाथ क्या कर रहा है. ताज्जुब है.

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आधी अधूरी तैयारियों के साथ लॉकडाउन लगा. मजदूर पैदल चलने लगे. सड़कों पर दम तोड़ने लगे. तो ऐलान हुआ कि मदद करेंगे. राशन देंगे. खाते में पैसा देंगे. लेकिन जो बेचारा सड़कों पर चल रहा है उसतक आप मदद कैसे पहुंचाएंगे? अब इस साल कह रहे हैं राज्य सरकार तय करें कि लॉकडाउन लगाना है या नहीं? क्यों? आपको सियासी तौर पर जोखिम भरा कदम लगता है लॉकडाउन? पल्ला झाड़ रहे हैं? तो पिछली बार क्यों किया था?
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हम नहीं कर रहे कि लॉकडाउन लगाइए लेकिन आपके ही पैमाने पर जो तब सही था वो अब गलत कैसे है? जबकि आज पिछले साल की उच्चतम संख्या से तीन गुना केस सामने आ रहे हैं. मजबूर राज्य अब खुद फैसला ले रहे हैं, लेकिन कोई केंद्रीयकृत कोऑर्डिनेशन नहीं दिखता. कोरोना का अटैक राष्ट्रव्यापी है लेकिन किसी पीड़ित राज्य में एक चीज बंद है तो दूसरे में वही खुली है. पॉलिसी पैरालिसिस.

चुनाव

प्रचंड प्रकोप के बीच आपको चुनाव कराना है-बंगाल से केरल तक और यूपी से तमिलनाडु तक. ज्यादातर मतदान हो चुका तो ऐलान कर रहे हैं कि छोटी रैलियां करेंगे.

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बीजेपी के पूर्व अध्यक्ष आज कहते हैं कि कोरोना सर्ज को चुनाव से जोड़ना ठीक नहीं है. कल मौजूदा अध्यक्ष कह रहे हैं कोविड को देखते हुए छोटी रैलियां करेंगे. इतना कन्फ्यूजन? चुनाव आयोग का तो अलग ही लेवल है. हल्ला मचने पर कहने लगा कि रात में रैलियां नहीं होंगी. रात में रैलियां? मजाक कर रहे हैं क्या?

मजाक ही है. जब गले तक पानी पहुंचने लगता है तो हांथ पैर मारने लगते हैं. खामियाजा अभी और आने वाले कई सालों तक देश भुगतेगा. रोज सुबह कोरोना के नए केस का डेटा देखने से पहले दिल धड़कने लगता है. शायद दुनिया के किसी कोने में कभी किसी कॉलेज में पॉलिसी पैरालिसिस को उदाहरण देकर समझाना होगा तो भारत को विषय बनने का (अ)सम्मान प्राप्त होगा. हमने पागल ट्रंप को पीछे छोड़ दिया है.

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