लंबा इंतजार खत्म हुआ. एम.के स्टालिन आखिरकार तमिलनाडु के मुख्यमंत्री बनेंगे, वो पद जो उनसे दो दशकों तक दूर रहा. पहले तो, क्योंकि उनके पिता मुथुवेल करुणानिधि राजनीति में सक्रिय थे और बाद में क्योंकि उनकी धूर विरोधी जे.जयललिता ने स्टालिन की पार्टी DMK को लगातार दो चुनाव में सत्ता से दूर रखा.
अब अपने पिता के प्रभाव क्षेत्र से बाहर और दूसरी तरफ जयललिता के ग़ैरमौजुदगी के बाद स्टालिन का DMK को 10 साल बाद सत्ता में लाना लगभग तय था
हालांकि यह वैसी विशाल बहुमत वाली जीत नहीं है जैसा प्री पोल और एग्जिट पोल सर्वे ने घोषणा की थी. बावजूद इसके DMK और उसके सहयोगियों ने बड़ी बहुमत प्राप्त की है ,जिसमें अकेले DMK ने 118 का जादुई आंकड़ा पार कर लिया है.
DMK के सहयोगियों को कौन सी चीज ने जोड़े रखा?
इस जीत के कई कारण रहे जिसमें से एक कारण रहा इस चुनाव को द्रविड़ विचारधारा और ब्राह्मणवादी प्रभुत्व वाले हिंदुत्व विचारधारा( जिसका प्रतिनिधित्व बीजेपी करती है) के बीच के जंग के रूप में प्रचारित करना .बीजेपी के सहयोगी AIADMK को इसी रंग में रंगा गया और उसे 'हिंदुत्व प्रौक्सी' की तरह पेश किया गया.
दरअसल यह ‘हिंदुत्व को तमिलनाडु से बाहर रखो’ की भावना थी जिसने CPI,CPM और कांग्रेस को DMK के सहयोगी के रुप में बांधे रखा ,बावजूद इस तथ्य के कि उन्हें सीटों के बंटवारे में जलील होना पड़ा.
इन पार्टियों के नेताओं ने स्टालिन को गठबंधन का नेतृत्व करते हुए विजय दिलाने के लिए धन्यवाद देने की जगह तमिल जनता को शुक्रिया कहा, कि उन्होंने हिंदुत्व शक्तियों को बाहर रखा .
DMK के सारे सहयोगी जैसे कांग्रेस ,दो वामपंथी दल,छोटे दल जैसे VCK,MDMK और मुस्लिम समुदाय का नेतृत्व करने वाले दल- या तो जीत गए हैं या जीत की दहलीज पर हैं .इसमें सबसे बड़ा फायदा कांग्रेस को हुआ है जिसने 25 सीटों पर उम्मीदवार उतारा और 17 जीतने के करीब है
क्या AIADMK का प्रदर्शन बहुत खराब था? पूरी तरह नहीं
ऐसा नहीं है कि AIADMK ने खुद बुरा प्रदर्शन किया है. 70 सीट जीतने की संभावना को किसी दल के लिए घोर पराजय नहीं कहा जा सकता ,वह भी तब जब वह इतने सालों से 'करिश्माई व्यक्तित्व' पर निर्भर रही,पहले एमजी रामाचंद्रन और फिर जयललिता.
वस्तुत यह 1972 उपचुनाव के बाद पहली दफा है जब डिंडीगुल लोकसभा सीट से AIADMK और DMK , दोनों ने कोई करिश्माई नेता नहीं उतारा .
DMK के विपरीत, जहां करुणानिधि ने अपने पुत्र स्टालिन को अपना उत्तराधिकारी बनाने के लिए तीन दशकों तक मेहनत की, 4 साल पहले जयललिता के मरने के बाद AIADMK में दूसरा उत्तराधिकारी था ही नहीं.
हालांकि पलानीस्वामी ने ,जो जयललिता के निधन के बाद कई पेचीदा घटनाओं से होते हुए मुख्यमंत्री बने ,पार्टी को जोड़ें रखा और सरकार चलाया. पार्टी पर पकड़ कमजोर होने के बावजूद ,क्योंकि वह नियंत्रण को अपने एक समय के धूर विरोधी पन्नीरसेल्वम के साथ साझा कर रहे थे, चुनाव आने पर वह अकेले नेता के रूप में सामने आए.
वह क्षेत्र जहां AIADMK ने अच्छा प्रदर्शन किया
इस तथ्य के बाद भी ,कि AIADMK 10 साल सत्ता में रहने के बाद विरोधी लहर झेल रही थी और मोदी सरकार के कुछ निर्णयों( जैसे अनियोजित GST लागू करना, कृषि कानून और इंजीनियरिंग और मेडिकल एडमिशन के लिए NEET को लागू करना) का प्रतिरोध भी झेल रही थी ,उसका प्रदर्शन उतना बुरा नहीं है. पार्टी 70 सीटों पर जीतती दिख रही है.(लेख लिखे जाने तक).
चाहे पार्टी उत्तरी जिलों(DMK के गढ़) में बुरी तरह हार रही है और कावेरी-डेल्टा क्षेत्र में कुछ ही सीटों पर जीत पाई है लेकिन AIADMK और उसके सहयोगियों ने पश्चिमी बेल्ट, जिसे कोंगूनाडु भी कहते हैं( जिसमें कोयंबटूर, सलेम, ईरोडे और तिरुप्पुर जैसे जिले आते हैं) में अच्छा प्रदर्शन किया है .यहां उसे 50 में से 30 सीटें मिली है .
उसे अपने केंद्रीय और दक्षिणी क्षेत्र के प्रदर्शन से भी थोड़ी राहत मिलेगी ,जहां उसने कुछ सीटें जीती है
लेकिन सबसे बड़ी चुनौती जो सामने है: क्या पलानीस्वामी अगले चुनाव तक पार्टी को एक साथ जोड़े रखेंगे?
जयललिता की सहयोगी शशिकला के भांजे टी.टी.वी दिनाकरन का नया AMMK पार्टी बनाकर चुनौती देने का प्रयास असफल रहा. वह फिर से प्रयास कर सकते हैं.
बीजेपी और PMK को मुंह की क्यों खानी पड़ी?
यही बात मुख्य सहयोगी बीजेपी और PMK के बारे में नहीं कही जा सकती. बीजेपी- जिसने पहले 60 सीटों की मांग की थी पर उसे 20 पर संतुष्ट होना पड़ा- को सिर्फ 4 पर जीत मिली है,जिसमें महिला मोर्चा की नेत्री वनाथी श्रीनिवासन भी हैं जिन्होंने अभिनेता से नेता बने कमल हसन को हराया है.
यह आश्चर्यजनक नहीं है कि बीजेपी के कई राज्य स्तरीय नेताओं, जिसमें खुशबू सुंदर भी शामिल है, को हार का सामना करना पड़ा है. यह दक्षिणपंथी पार्टी को तमिल जनता द्वारा नकारने का प्रमाण रहा.
PMK, जो कि तमिलनाडु के उत्तरी जिलों के प्रभावशाली जाति वन्नियार के हितों से जुड़ी है, को अपनी जातिगत राजनीति की कीमत चुकानी पड़ी .पार्टी ने AIADMK सरकार को वन्नियार समुदाय के लिए अति पिछड़ा वर्ग के अंदर 10.15% का सब कोटा देने पर मजबूर किया था. इसका विरोध अन्य जातियों के वोट के जुटने और इन जिलों में PMK का सफाया हो जाने में दिखता है ,जबकि पार्टी ने इन जिलों की सीमाओं पर 5 सीटें जीती है.
तमिलनाडु: दो दलीय प्रभुत्व वाला राज्य
सबसे बड़ा आश्चर्य बीजेपी स्वयं है, जो तीन विधानसभा क्षेत्रों में आगे चल रही थी और चौथे में कांटे की टक्कर थी .बावजूद इसके, उसके अधिकतर राज्य स्तरीय नेताओं को हार का सामना करना पड़ा. यकीनन यह आने वाले वर्षों में पार्टी को प्रदर्शन में सुधार के लिए प्रोत्साहित करेगा.
सबसे जरूरी बात कि इस चुनाव ने यह स्पष्ट कर दिया कि तमिलनाडु अभी भी दो दलों के प्रभुत्व वाला राज्य है- DMK और AIADMK तथा तीसरा विकल्प का आना भी दूर की बात है .
अभिनेता कमल हसन का तीसरे विकल्प देने की आशा को धक्का लगा ,जहां उसके उम्मीदवार अधिकतर सीटों पर तीसरे या चौथे नंबर पर रहे. सिवाय कोयंबटूर साउथ जहां हसन स्वयं बीजेपी की वनाथी श्रीनिवासन से कम अंतर से हारे.
ऐसा ही फिल्मनिर्माता सीमन की NTK पार्टी के साथ हुआ जिन्होंने अति तमिल राष्ट्रवाद की राजनीति सामने रखी लेकिन जहां जहां उन्होंने उम्मीदवार उतारे वहां वह अधिकतर तीसरे नंबर की पार्टी रही.
बीजेपी का पुडुचेरी जीतना
बीजेपी के लिए दक्षिण में सब कुछ खराब नहीं रहा. पार्टी पुडुचेरी में सरकार बनाने वाली है, जहां वह पूर्व मुख्यमंत्री एन रंगास्वामी के नेतृत्व वाली क्षेत्रीय पार्टी AINRC के साथ गठबंधन में है .बहुमत के लिए जरूरी 16 सीटों में से गठबंधन को 13 सीट(NRC-10,बीजेपी-3) मिल चुकी है जबकि अन्य तीन में बीजेपी उम्मीदवार काफी आगे चल रहे हैं.( लेख लिखे जाने तक)
यह बीजेपी के लिए बड़ी जीत है क्योंकि पहली बार यहां बीजेपी के उम्मीदवारों को जीत मिली है.
किरण बेदी और उनके उपराज्यपाल कार्यकाल के सहयोग से बीजेपी ने 3 सदस्य विधानसभा में मनोनीत कर दिये है और चुनाव के पहले राज्यपाल ऑफिस का यह सुनिश्चित करना कि कांग्रेस के तीन विधायक कार्यकाल की समाप्ति के पहले ही इस्तीफा दे दें ,जिसके बाद वी.नारायणस्वामी के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार गिर गई थी, बीजेपी के लिए फायदेमंद रहा.
इस बार कांग्रेस का पूरा सफाया हो चुका है, और उसकी सहयोगी DMK 6 सीटों को जीतने की ओर है.
( कल्याण अरुण वेटेरन पत्रकार और पॉलीटिकल एनालिस्ट है. वह अभी एशियन कॉलेज आफ जर्नलिज्म में प्रोफेसर है. उनका ट्विटर हैंडल है @kalyanarun .यह एक ओपिनियन पीस है. यह लेखक के अपने विचार हैं. द क्विंट का इससे सहमत होना जरूरी नहीं है.)
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