बिहार लोकसभा चुनाव 2024 (Bihar Lok Sabha Election Results 2024) में राष्ट्रीय लोकतांत्रिक गठबंधन (NDA) को झटका लगा है. भारतीय जनता पार्टी (BJP) और जनता दल यूनाइटेड (JDU) की सीटें घटने के साथ-साथ वोट शेयर भी गिरा है. जिसका फायदा INDIA गठबंधन की पार्टी- राष्ट्रीय जनता दल (RJD) और कांग्रेस (Congress) को हुआ है. हालांकि, 'नीतीश फैक्टर' की वजह से NDA की लाज बच गई, नहीं तो परिणाम बुरे हो सकते थे.
चुनाव परिणाम के बाद सवाल है कि हिंदी हार्टलैंड के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में NDA को शिकस्त देने वाली INDIA गठबंधन से बिहार में कहां चूक हुई? सीट शेयरिंग से लेकर रणनीति बनाने तक में RJD आगे रही, लेकिन फिर भी तेजस्वी कहां मात खा गए? क्या कैंडिडेट्स के सिलेक्शन में गड़बड़ी हुई या फिर नीतीश फैक्टर हावी रहा? जातिगत वोट किधर शिफ्ट हुआ? चलिए एक-एक करके समझते हैं.
मुस्लिम-यादव वोट लामबंद, लेकिन गैर-यादव ओबीसी का क्या?
बिहार में MY यानी मुस्लिम और यादव- दोनों समूह RJD के कोर वोटर माने जाते हैं. मुस्लिम कांग्रेस के पक्ष में भी वोट करते हैं. जातिगत सर्वेक्षण के मुताबिक, प्रदेश की कुल आबादी का 14.27% यादव और 17.7% मुस्लिम हैं.
लोकनीति-CSDS के 2019 पोस्ट पोल सर्वे को देखें तो 55 फीसदी यादव वोट यूपीए के खाते में गए थे, जबकि 21 फीसदी NDA और 24 फीसदी अन्य को मिले थे. हालांकि, चुनाव परिणामों के बाद इस बार माना जा रहा है कि यादव वोट इंडिया गठबंधन की तरफ पूरी तरह से शिफ्ट हुए हैं. वहीं एक मुश्त मुस्लिम वोट भी गठबंधन को मिले हैं.
आरजेडी ने लोकसभा चुनाव सीटों में वन थर्ड लगभग 8 उम्मीदवार यादव जाति के उतारे. इसका सीधा फायदा इन्हें चुनाव में मिला. यादव पूरी तरह से आरजेडी की तरफ लामबंद हो गए.
लोकसभा चुनाव में तेजस्वी यादव की पार्टी का वोट शेयर और सीट दोनों बढ़ी है. पिछली बार शून्य पर रही RJD ने इस बार 4 सीटों के साथ 22% वोट हासिल किया है. वहीं 2% वोट बढ़ने से कांग्रेस को 2 सीटों का फायदा हुआ है और पार्टी के खाते में कुल 3 सीट आई है.
लोकनीति-CSDS के 2019 पोस्ट पोल सर्वे के मुताबिक, गैर-ओबीसी में आने वाले 'लव-कुश' यानी कुर्मी-कोइरी के 70% वोट्स NDA को मिले थे, जबकि UPA को मात्र 7 फीसदी वोट ही मिले थे. हालांकि, 23 फीसदी वोट अन्य को मिले थे. यूपीए को मिले वोट्स से भी ज्यादा दूसरी पार्टियों में बंट गए थे. बता दें कि जाति सर्वेक्षण में कोइरी (कुशवाहा) की आबादी 4.21% और कुर्मी की आबादी 2.88% बताई गई है.
ऐसे में इस बार इंडिया गठबंधन का लव-कुश समीकरण पर भी फोकस रहा. कुशवाहा जाति के 7 और कुर्मी जाति के एक नेता को टिकट दिया. जिससे कुशवाहा समाज में सीधे मैसेज गया और ये वोट बैंक एनडीए से छिटका.
हालांकि 'लव-कुश' नीतीश कुमार के कोर वोटर माने जाते हैं. जेडीयू ने 4 उम्मीदवार उतारे थे. कहा जाता है कि नीतीश जिस तरफ रहते हैं, ये वोट बैंक उस तरफ शिफ्ट करता है. इसके साथ ही उनका वोटर NDA के साथ ज्यादा कंफर्टेबल भी रहता है.
जेडीयू के खाते में 16 में से 12 सीटें आई है, 4 सीटों का नुकसान हुआ है. पिछली बार 22 फीसदी वोट मिले थे, जो कि इस बार 3 फीसदी गिरकर 19% पर आ गया है.
भले ही कुशवाहा वोट NDA से छिटका हो लेकिन अन्य ओबीसी जातियों का रुझान अभी भी एनडीए की तरफ ही है, जिससे उसे फायदा हुआ है. अगर 2019 के चुनाव के आंकड़ों पर नजर डालें तो अन्य ओबीसी जातियों का 76% वोट NDA को मिला था. मात्र 9 फीसदी वोट ही यूपीए को गए थे. जबकि 5 फीसदी अन्य पार्टियों में बंट गए थे.
बीजेपी को 5 सीटों का नुकसान हुआ है. पार्टी 21 फीसदी वोट के साथ 12 सीटें ही जीत पाई है. बीजेपी का वोट शेयर भी 3 फीसदी गिरा है.
तेजस्वी का 'BAAP' फॉर्मूला कितना चला?
लोकसभा चुनाव से पहले तेजस्वी ने "BAAP यानी B से बहुजन, A से अगड़ा, A से आधी-आबादी यानी महिलाएं और P से पुअर यानी गरीबों" का नारा दिया गया था. लेकिन पार्टी को चुनाव में इसका ज्यादा फायदा नहीं मिला.
राजनीतिक जानकारों के मुताबिक, 'A to Z' के मुकाबले 'BAAP' में सभी तबकों का प्रतिनिधित्व नहीं दिखता है. पहले तेजस्वी RJD को 'A to Z' की पार्टी बता रहे थे.
अगड़ा यानी अपर कास्ट NDA के वोटर माने जाते हैं. वहीं बहुजन यानी दलित का झुकाव भी NDA की तरफ ही रहता है. पिछले पोस्ट पोल सर्वे के मुताबिक, यूपीए को 5%, एनडीए को 65% और अन्य को 30% अपर कास्ट वोट मिले थे. हालांकि, इस बार कुछ सीटों पर NDA के खिलाफ अपर कास्ट की नाराजगी दिखी, लेकिन इससे गठबंधन को ज्यादा नुकसान नहीं हुआ.
पिछली बार 76% दलित वोट भी NDA के खाते में गया था, जबकि 5% ही यूपीए को मिला था. राम विलास पासवान बिहार में दलितों और पासवान जाति के सबसे बड़े नेता माने जाते थे. अब उनकी विरासत चिराग पासवान संभाल रहे हैं. जो NDA का हिस्सा हैं और पीएम मोदी के 'हनुमान' कहे जाते हैं.
चिराग पासवान की लोक जनशक्ति पार्टी (रामविलास) ने पांच सीटों पर चुनाव लड़ा और सभी पर जीत हासिल की. उनकी पार्टी का वोट शेयर 6.47% रहा.
वहीं जीतन राम मांझी के आने से भी दलित वोट NDA में इंटैक्ट रहा. इस बार वे गया से सांसद चुने गए हैं.
NDA के पक्ष में रहा नीतीश फैक्टर
इस चुनाव में जो सबसे बड़ा फैक्टर माना जा रहा है वो है नीतीश फैक्टर. चुनाव से ठीक पहले नीतीश की वापसी ने NDA को और मजबूत कर दिया. नीतीश की बीजेपी के साथ आने से गठबंधन को उनकी सेक्युलर छवि का फायदा तो मिला ही, साथ ही अत्यंत पिछड़ा वर्ग (EBC) वोट भी खाते में आया. जानकारों का मानना है कि ईबीसी वोटरों का बड़ा हिस्सा अब भी नीतीश के साथ है.
EBC अपने आप में यादवों (14.27% ) और मुस्लिमों (17.7%) से कहीं ज्यादा बड़ा सामाजिक समूह है. बिहार सरकार के सर्वे के मुताबिक, प्रदेश में EBC की आबादी 36.01% है. मुख्यमंत्री रहते हुए नीतीश कुमार ने समुदाय विशेष के लिए कई योजनाएं चलाई हैं, जिसका लाभ उन्हें चुनावों में होता है.
महिलाओं ने दिया NDA का साथ
NDA की स्थिति को बेहतर करने में महिलाओं का बड़ा हाथ बताया जा रहा है. महिला वोटर्स पूरे चुनाव में साइलेंट रहीं. चुनाव आयोग के आंकड़ों के मुताबिक, 20 से ज्यादा सीटों पर उनका वोटिंग प्रतिशत पुरुषों से अधिक रहा.
कहा जा रहा है कि बिहार में शराबबंदी, जीविका योजना के तहत मिलने वाली आर्थिक मदद और 35% आरक्षण जैसे फैसलों की वजह से महिलाएं आज भी नीतीश कुमार के साथ हैं.
दूसरी तरफ, तेजस्वी यादव ने 250 रैलियां की. रोजगार के मुद्दे को जोरशोर से उठाया. 5 लाख रोजगार का क्रेडिट लेने में भी सफल रहे. इन सबसे युवा उनसे जुड़े. लेकिन तेजस्वी के इस दांव पर मोदी सरकार की मुफ्त राशन योजना भारी पड़ गई. इसके अलावा किसान सम्मान निधि के तहत मिलने वाले 6 हजार रुपए का फायदा भी NDA को मिला है.
विधानसभा चुनाव की पिच तैयार
लोकसभा चुनाव के नतीजों ने बिहार में विधानसभा चुनाव के लिए आधार तैयार कर दिया है. आरजेडी ने कमबैक किया है तो CPIML को भी अपनी जमीन मिल गई. कांग्रेस ने पिछली बार से अपने रिकॉर्ड में सुधार किया है.
दूसरी तरफ बीजेपी के लिए ये नतीजे थोड़ी चिंता बढ़ाने वाले हैं. बड़ी बात ये है कि बीजेपी उन सीटों पर हारी है, जहां आरजेडी से सीधा मुकाबला था. इस चुनाव के नतीजे बताते हैं कि अगर नीतीश कुमार चुनाव से ठीक पहले बीजेपी से हाथ नहीं मिलाते तो एनडीए के नंबर और घट सकते थे. इसके साथ ही उन्होंने साबित कर दिया है कि प्रदेश की सियासी लगाम आज भी उनके ही हाथ में है. वे न केवल अपनी विश्वसनीयता बचाने में कामयाब रहे, बल्कि एनडीए में एक बार फिर बड़े भाई की भूमिका में लौट आए हैं.
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