छत्तीसगढ़ की राजनीति में 15 साल से लगातार अपराजेय रहे रमन सिंह का इस कदर सफाया हो जाना कोई मामूली घटना नहीं है. चुनाव जीतने की मशीन कहे जाने वाले बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह के 65 सीट जीतने के आंकड़े को भी कांग्रेस ध्वस्त कर 68 सीट जीत ले, ऐसा रातोंरात नहीं होता. ऐसे नतीजे या तो प्रचंड चुनावी लहर में आते हैं या फिर सरकार को सबक सिखाने की जनता की जिद के बाद. छत्तीसगढ़ में कुछ ऐसा ही हुआ.
कांग्रेस की ऐतिहासिक जीत की कहानी में रमन सिंह सरकार के प्रति किसानों का जबर्दस्त गुस्सा, शासन की किसानों से एमएसपी को लेकर वादाखिलाफी, कांग्रेस का 10 दिनों में कर्जमाफी का वादा, एमएसपी 2500 रुपये करने, घरेलू बिजली की दरों को आधा करने जैसे वादों ने कांग्रेस को निर्णायक जीत की तरफ बढ़ाया, लेकिन यह मजबूत बूथ मैनेजमेंट, ताकतवर कांग्रेस संगठन, आक्रामक नेतृत्व के बिना ये असंभव था. कांग्रेस को इस तैयारी में चार साल लग गए.
जीत की तरफ पहला कदम 2013 में बढ़ाया गया
शुरुआत हुई दिसंबर 2013 के विधानसभा चुनाव से. रमन सिंह बतौर मुख्यमंत्री चुने जाने के लिए तीसरी बार मैदान में थे. रमन सिंह की लोकप्रियता बतौर चाउर बाबा के रूप में पूरे छत्तीसगढ़ में डंके की चोट पर गूंज रही थी. यूपीए सरकार में मंत्री रहे चरणदास महंत के कंधों पर कांग्रेस को जिताने की जिम्मेदारी सौंपी गई थी.
झीरम घाटी के नक्सली हमले में छत्तीसगढ़ कांग्रेस की पूरी लीडरशिप पहले ही खत्म हो चुकी थी. लेकिन विधानसभा चुनाव में जनता की सहानूभूति पर ‘चाउर वाले बाबा’ रमन सिंह भारी पड़े और कड़े मुकाबले वाले चुनाव में रमन सिंह फिर से बाजी मार ले गए.
कांग्रेस ने हार के पोस्टमार्टम के बाद अजित जोगी के धुर विरोधी दिग्विजय सरकार में मंत्री रहे भूपेन्द्र वघेल के हाथ में कांग्रेस की कमान सौंपी दी. अगला सालभर भूपेश बधेल के लिए कुछ खास नहीं रहा. पद संभालने के 6 महीने बाद ही लोकसभा के चुनाव थे और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की प्रचंड लहर में वे भी नहीं बचे सके.
बीजेपी लोकसभा की 11में से 10 सीटें जीतकर अटूट चट्टान की तरह कांग्रेस के रास्ते में खड़ी थी. कांग्रेस के पास खोने के लिए कुछ नहीं था और पाने के लिए पूरा राज्य था. समय भी पूरे पांच साल थे. कांग्रेस को छत्तीसगढ़ में स्केच से शुरुआत करनी थी.
जोगी कांग्रेस की ताकत से ज्यादा बोझ बन चुके थे
रमन सिंह के सामने कांग्रेस का सबसे बड़ा संकट पार्टी की विश्वसनीयता का था. अजित जोगी को छत्तीसगढ़ में 'जेबी जोगी' कहा जाता था और राज्य कांग्रेस इकाई को रमन सिंह की 'बी टीम' के नाम से पुकारा जाता था.
कोई नेता रमन सिंह सरकार से सीधे मुठभेड़ नहीं करना चाहता था. बहुत जरूरी होने पर रायपुर में प्रेस कॉन्फ्रेंस कर कर्तव्य का पालन कर लिया जाता था. बधेल की पहली चुनौती थी कांग्रेस की राजनीति में जोगी को किनारे करना और रमन सरकार के भ्रष्टाचार, गलतियों पर सीधे हमला करना.
वह समय था जब कांग्रेस बिखरी-बिखरी सी दिखती थी और पूर्व मुख्यमंत्री अजित जोगी एका के रास्ते में बड़ा रोड़ा दिखते थे. अंतागढ़ उपचुनाव में कांग्रेस प्रत्याशी के खरीद-फरोख्त के मामले में भूपेश बघेल ने ही रमन सिंह, उनके दामाद पुनीत गुप्ता, अजित जोगी और उनके विधायक बेटे अमित जोगी की भूमिका का पर्दाफाश किया और जोगी को पार्टी से बाहर का रास्ता दिखाया. इससे कांग्रेस में एकजुटता का रास्ता खुला और राहुल गांधी की खुली सहमति की वजह से वो कांग्रेस में निर्णय लेते गए, जो पहले कभी संभव नहीं हो पाए थे.
संगठन को रायपुर से निकालकर सरगुजा पहुंचाया
अजित जोगी के किनारे होते ही आक्रामक और तीखे तेवरों वाली राजनीति करने वाले कांग्रेस राज्य इकाई के अध्यक्ष भूपेश बघेल ने एक-एक मुद्दों पर सरकार को घेरना शुरू किया. नसबंदी कांड हुआ, तो वे काननपेंडारी से रायपुर तक की 132 किलोमीटर की पदयात्रा पर निकल पड़े.
जल, जंगल, जमीन के मसले पर वे अपने तत्कालीन उपाध्यक्ष राहुल गांधी को लेकर साराडीह से डभरा तक पदयात्रा पर निकल पड़े. पदयात्राओं का यह सिलसिला पांच साल चलता रहा और उन्होंने बस्तर से लेकर सरगुजा संभाग तक, हर जगह लगभग 1000 किलोमीटर की पदयात्राएं कीं. उन्होंने हताश-निराश पार्टी में आंदोलन का जज्बा जगाया और सरकार से भिड़ पड़े.
मुख्यमंत्री रमन सिंह और उनके परिजनों के खिलाफ भ्रष्टाचार के हर मामले को उन्होंने बिना डरे उठाया और जब-जब जरूरत पड़ी, अदालतों तक भी गए. कांग्रेस के इकलौते नेता बघेल थे, जो सत्ता आते ही रमन सिंह को जेल भेजने की बात हर चुनावी सभा में करते थे. सीडी कांड में जेल गए, लेकिन राहुल के समझाने पर बेल लेकर सड़कों पर फिर उतर पड़े.
हालांकि भूपेश बघेल स्थानीय निकायों के चुनाव में आजमा चुके थे कि अगर संगठन में निचले स्तर के कार्यकर्ताओं पर भरोसा किया जाए और जिम्मेदारी दी जाए, तो पार्टी एक नए मुकाम तक पहुंच सकती है. शायद यही कारण था कि 2014 के लोकसभा चुनाव के बाद पंचायत चुनाव हो या नगरीय निकाय, कांग्रेस को हर जगह कामयाबी मिलती गई .
बूथ मैनेजमेंट और कैडर के जरिए संगठन को लड़ने लायक बनाया
बीजेपी के ताकतवर बूथ मैनेजमेंट और पन्ना प्रमुख मॉडल के सामने कांग्रेस का लचर बूथ मैनेजमेंट कांग्रेस के आंदोलनों को जमीन तक ले जाने में सबसे बड़ी समस्या थी. कांग्रेस ने राज्य की 24,000 बूथ केंद्रों पर कमेटियां बनाईं और दो साल तक सघन ट्रेनिंग कर बीजेपी से मुकाबले करने के लिए कैडर को तैयार किया.
ब्लॉक के स्तर तक सीमित कांग्रेस ने पहली बार बूथ तक समिति बनाने की प्रक्रिया शुरू की. प्रशिक्षणों के लंबे दौर शुरू हुए. पहली बार कांग्रेस कार्यकर्ताओं ने एक बंद कमरे में छह-सात घंटे बैठकर प्रशिक्षण लिया. उन्हें सोशल मीडिया कार्यकर्ताओं के रूप में भी तैयार किया गया. प्रदेश के किसी और नेता को भरोसा नहीं था, लेकिन एक-एक करके बघेल ने पूरे 90 विधानसभाओं के कार्यकर्ताओं को प्रशिक्षित कर दिया. दूसरे दौर में ‘संकल्प शिविर’ के जरिए फिर से प्रशिक्षण का दौर चला.
इस प्रशिक्षण को देखने राहुल गांधी खुद बस्तर आए. दो दिनों में तीन घंटे शिविर में बिताए और प्रभावित होकर लौटे.
मास्टर स्ट्रोक बना कांग्रेस का कर्जमाफी और MSP का वादा
कांग्रेस जानती थी कि 2013 में रमन सिंह ने धान की खरीद पर दिए जाने वाले 2100 प्रति क्विंटल समर्थन मूल्य के वादे को अमल नहीं किया और 300 रुपये का बोनस भी तीन साल देने के बाद बंद कर दिया.
रमन सरकार से किसानों की जबर्दस्त नाराजगी को कांग्रेस ने अपने घोषणा पत्र में डालकर जमकर भुनाया. डीजल पेट्रोल की कीमतें बढ़ने से उत्पादन की लागत भी किसान वसूल नहीं पा रहे थे. कीमतें मिल नहीं पा रही थीं और ऊपर से कर्ज बढ़ता जा रहा था. नोटबंदी और जीएसटी ने छोटे व्यापारियों की कमर तोड़ दी थी.
कांग्रेस ने विधानमंडल दल के नेता टीएस सिंहदेव के नेतृत्व में चुनावी घोषणापत्र कमेटी बनाई, जिसने राज्यभर में दौरा कर लोगों के मांग पत्रों को इकट्ठा कर संकल्पपत्र बनाया, जिसे कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने अपनी हर रैली में दोहराए.
रमन सिंह अपनी सरकार की उपलब्धियां बताने के लिए विकास यात्रा पर निकले. इस दावे के साथ कि उन्होंने प्रदेश में विकास की नई धारा बहा दी है. इसी समय प्रदेश कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष भूपेश बघेल ने तय किया कि कांग्रेस ‘विकास यात्रा’ के पीछे पीछे ‘विकास खोजो यात्रा’ निकालेंगे. जिस दिन विकास यात्रा शुरू हुई, उसी दिन भूपेश बघेल छत्तीसगढ़ के प्रभारी पीएल पुनिया के साथ रमन सिंह के क्षेत्र राजनांदगांव में विकास खोजने पहुंच गए. दोनों कांग्रेस नेताओं ने मुख्यमंत्री और उनके सांसद बेटे के क्षेत्र में विकास के दावों को तार तार कर दिया.
किंगमेकर बनने वाले जोगी रमन सिंह को बचा नहीं पाए
रमन सिंह का जोगी पर अति आत्मविश्वास भी उनके हारने का बड़ा कारण बना. रमन सिंह को लगता था कि जोगी कांग्रेसी नेता होने के कारण कांग्रेस का वोट काटकर कड़े मुकाबले में बीजेपी को फायदा पहुचाएंगे. जोगी बीएसपी गठबंधन ने 7 प्रतिशत का वोट तो काटा, लेकिन सत्ता विरोधी लहर में वे बीजेपी का वोट ज्यादा काटते नजर आए. बस्तर सरगुजा जैसे आदिवासी इलाकों में वे कोई छाप नहीं छोड़ पाए और रमन सरकार विरोधी लहर में किंगमेकर बनने का उनका सपना सपना ही रह गया.
पिछले विधानसभा चुनाव में बीजेपी 10 SC सुरक्षित सीटों में से 9 जीती थी. इस बार उन सीटों पर बीजेपी को करारी हार मिली और फायदा कांग्रेस को हुआ. माना जा रहा है कि इनमें से कम से कम चार सीटों पर जोगी के गठबंधन ने बीजेपी का खेल बिगाड़ा.
(शंकर अर्निमेष जाने-माने पत्रकार हैं. इस आलेख में प्रकाशित विचार लेखक के हैं. आलेख के विचारों में क्विंट की सहमति होना जरूरी नहीं है.)
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