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छत्तीसगढ़ चुनाव: क्या बस्तर में धर्मांतरण विवाद से कांग्रेस को नुकसान और BJP को फायदा?

Chhattisgarh Elections: धर्मांतरण को लेकर राजनीतिक खींचतान ने आदिवासी बहुल बस्तर में समीकरण को बदल दिया है, इसका क्या असर होगा ?

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"हमें कुत्तों की तरह पीटा गया, ना तो बीजेपी और ना ही कांग्रेस हमारे बचाव में आई. इस बार हम उन लोगों को वोट देंगे, जो हमारे साथ खड़े रहे हैं और जो हमें धार्मिक उत्पीड़न से बचाएंगे.''

यह कहना है छत्तीसगढ़ (Chhattisgarh Elections) के नारायणपुर जिले के रेमावंड गांव निवासी 57 वर्षीय बुदनी कोर्राम का. पिछले साल यहां ईसाई धर्म अपनाने वाले आदिवासियों पर कई हमले किए गए.

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2023 में राज्य चुनावों से पहले धर्म परिवर्तन छत्तीसगढ़ के बस्तर इलाके में एक बड़ा मुद्दा बन गया है. राज्य में दो चरणों 7 नवंबर और 17 नवंबर को वोट डाले जाएंगे.

माओवादी हिंसा से प्रभावित बस्तर इलाका दो तरह के तनावों के बीच पिस रहा है. विवाद अपने पूर्वजों के धर्मों का पालन करने वालों और ईसाई धर्म कबूल करने वाले ट्राइबल्स के बीच है.

इस वजह से सत्ताधारी पार्टी कम से कम नारायणपुर सीमावर्ती इलाके से सटे 4 विधानसभा सीटों अंतागढ़ , केशकल, कोंडागांव, चित्रकूट पर नुकसान का डर झेल रही है. विपक्षी पार्टी BJP के लिए यह एक मौका लेकर आई है, जहां बस्तर में वो अपना नुकसान पूरा कर सकती है. पिछले चुनाव में कांग्रेस इस इलाके के सभी 12 सीटों पर जीती थी.

बुदनी नारायणपुर में CPI उम्मीदवार फुलसिंह कचलामी के लिए हुई एक पब्लिक मीटिंग में हिस्सा लेकर लौट रही थी, तब उसने कहा कि इस बार वो कांग्रेस को वोट नहीं करेगी. आखिर उसके क्या कारण हैं ?

उन्होंने कहा कि सत्तारूढ़ कांग्रेस सरकार ने आदिवासी ईसाइयों को उस समय बेसहारा छोड़ दिया, जब उनके समुदाय के सैकड़ों सदस्यों पर उनकी आस्था को लेकर पूरे बस्तर में हमला किया जा रहा था.

बुदनी ने बताया...

"मुझे ईसाई धर्म अपनाए हुए 20 साल से अधिक हो गए हैं. मेरे धर्म परिवर्तन के शुरुआती दिनों में कुछ तीखी बहसें हुईं, लेकिन चर्च जाने पर हमें कभी नहीं पीटा गया. लेकिन इस बार ग्रामीण खून-खराबा करने पर उतारू थे. उन्हें उकसाया गया था, झूठी बातें फैलाई गईं और हम पर हमला करने के लिए उकसाया गया लेकिन सरकार ने कुछ नहीं किया. वे हमारे बचाव में नहीं आए."

बस्तर में आदिवासी ईसाइयों और उनकी संपत्तियों पर हमलों में अचानक तेजी देखी गई. कई बार उन्हें अपने मृतकों को उनके गांव में दफनाने की अनुमति भी नहीं दी. कुछ को गांवों से बाहर निकाल दिया गया.

राज्य की राजधानी रायपुर में एक कांग्रेस नेता कहते हैं कि पार्टी ट्राइबल्स की बड़ी आबादी को नाराज नहीं करना चाहती.

"कोई भी पार्टी कुछ थोड़े से वोटों के लिए अपने बहुमत वोटों को जोखिम में नहीं डालेगी और कांग्रेस भी ऐसा नहीं करेगी. हम सभी समूहों के प्रति सहानुभूति रखते हैं लेकिन हम कुछ वोटों के लिए बहुसंख्यक समुदाय के सदस्यों को नाराज नहीं करेंगे."

हालांकि, हिंदुत्ववादी संगठनों का भी एनिमिस्ट आदिवासियों को 'हिंदूकरण' करने की कोशिश करने का इतिहास रहा है. इस मामले में उनका दृष्टिकोण आदिवासी मान्यताओं को चुनौती देने का नहीं बल्कि ईसाई और गैर-ईसाई आदिवासियों के बीच तनाव को बढ़ावा देने का रहा है. इनमें से कई संगठन इस तर्क को भी आगे बढ़ाते हैं कि हिंदू धर्म ईसाई धर्म की तुलना में आदिवासी जीववादी मान्यताओं के साथ अधिक अनुकूल है.

बस्तर में धर्मपरिवर्तन का मुद्दा केंद्र में कैसे आया ?

जीववाद का पालन करने वाले आदिवासियों और ईसाई धर्म अपनाने वालों के बीच टकराव उत्तरी छत्तीसगढ़ में आम था, लेकिन यह बस्तर में किसी झटके की तरह था, जहां 130 साल पहले जगदलपुर में पहला चर्च बनाया गया था.

12 जुलाई, 2022 को सुकमा एसपी सुनील शर्मा ने एक आधिकारिक निर्देश जारी किया, जिसके बाद विवाद छिड़ गया. इसमें सभी पुलिस स्टेशनों को 'जबरन धर्म परिवर्तन' को रोकने के लिए ईसाई मिशनरियों और हाल ही में धर्मांतरित लोगों पर नजर रखने का आदेश दिया गया था.

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इस निर्देश ने ही जवाबी प्रतिक्रियाओं की झड़ी लगा दी. जिसकी वजह से जनवरी 2023 में नारायणपुर में हिंसक वारदात हुई. इसके बाद के महीनों में नारायणपुर में जो कि माओवादी हिंसा का एक बड़ा गढ़ है, वहां गांवों और ईसाई बने ट्राइबल्स के बीच जबरदस्त झड़पें हुईं .

अपने ही घरों से हटाए गए ईसाई ट्राइबल्स सोमवार 10 दिसंबर 2022 को नारायणपुर जिला मुख्यालय पहुंचे. उन्होंने जिला कलेक्टर से गुहार लगाई. स्थानीय प्रशासन ने फौरी तौर पर उनके रहने का इंतजाम किया. नारायणपुर इंडोर स्टेडियम में इन परिवारों के रहने का इंतजाम हुआ.

जिला मुख्यालय से ही 15 किलोमीटर दूर गोरा गांव में ही दिसंबर 2022 में एक बड़ी घटना घटी.

पिछले एक दशक में गोरा गांव के करीब 200 से ज्यादा निवासियों ने ईसाई धर्म को अपना लिया. इसने गोंड आदिवासी बहुल इलाकों में बड़ा विभाजन पैदा कर दिया.

अपनी आबादी में बदलाव से परेशान गांव वालों ने 31 दिसंबर को 2022 को एक सभा की. इन्होंने ईसाई धर्म अपना चुके गांव के उन लोगों से फिर से अपने धर्म और रिवाज वापस अपनाने को कहा. आदिवासी ईसाईयों ने ऐसा करने से इनकार कर दिया. इसकी वजह से इन दो ग्रुपों में छोटे-मोटे कुछ टकराव भी हुए.

दो दिन बाद 2 जनवरी 2023 को दक्षिणपंथी गुटों ने एक विरोध रैली नारायणपुर में आयोजित की. इसमें बीजेपी भी शामिल थी. इस रैली में नारायणपुर, कोंडागांव, अंतागढ़, और केशकल से गैर ईसाई ट्राइबल्स हजारों की संख्या में जुटे.

रैली में BJP के जिला यूनिट के नेता और दूसरे स्थानीय नेता भी आए. लोगों की ये भीड़ जल्द ही बेकाबू हो गई. भीड़ ने SP सदानंद कुमार पर हमला कर दिया. चर्च पर तोड़फोड़ की गई. नारायणपुर की सड़कों पर अफरातफरी मच गई.

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पुलिस ने 100 से ज्यादा लोगों को दंगा और हिंसा के आरोप में गिरफ्तार किया लेकिन फिर ईसाई बन चुके आदिवासी और गैर ईसाई आदिवासी को लगा कि सरकार ने उनके साथ धोखा किया है.

आखिर दोनों गुट क्यों कांग्रेस सरकार से नाराज हैं ?

इस तरह की घटनाएं कोंडागांव, कांकेर, बीजापुर और सुकमा में भी घटी. इस वजह से राज्य सरकार काफी मुश्किल हालत में फंस गई. अब, दोनों ही गुट राज्य सरकार के तौर-तरीके से नाराज हैं.

64 साल के अमलू डुग्गा नारायणपुर के एडका गांव में देवगुडी मंदिर के पास आई लोगों की भीड़ से जोर-जोर से कहते हैं, ‘अलग-अलग हो जाओगे तो’. यहां पर डुग्गा इसी धर्मपरिवर्तन का हवाला दे रहे थे, जिसकी वजह से कथित तौर पर आदिवासियों में अलगाव या आपसी दूरियां बढ़ रही हैं.

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    64 साल के अमलू डुग्गा नारायणपुर के एडका गांव में देवगुडी मंदिर के पास आई लोगों की भीड़ से जोर जोर से कहते हैं, ‘अलग-अलग हो जाओगे तो’.

    (फोटो: विष्णुकांत तिवारी/द क्विंट)

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    एडका देवगुड़ी (मंदिर स्थल) पर एकत्र हुए बहुसंख्यक गैर-धर्मांतरित आदिवासियों के सदस्यों ने राय दी कि समुदाय को आदिवासी ईसाइयों के खिलाफ उनके विरोध का समर्थन करने वाले उम्मीदवार को वोट देना चाहिए.

    (फोटो: विष्णुकांत तिवारी/द क्विंट)

उन्होंने कहा "इस बार कोई हमारे लिए लड़ रहा है. कोई आदिवासी की परंपरा और संस्कृति के लिए लड़ रहा है .. हमें इसे समझना चाहिए और उनके लिए वोट करना चाहिए".

यहां ‘जिस कोई’ का हवाला डुग्गा दे रहे हैं, उसका मतलब बीजेपी नेता है. डुग्गा का मतलब है बीजेपी नेता और पूर्व मंत्री केदार कश्यप. बीजेपी ने इस बार केदार कश्यप को खड़ा किया है और इनके बारे में माना जा रहा है कि उन्होंने इलाके में धर्मपरिवर्तन को रोकने के लिए गैर आदिवासियों को एकजुट किया है.

एडका गांव के 26 वर्षीय संतलाल कुमेटी ने बीजेपी नेता केदार कश्यप को अपना समर्थन दिया, जिन्हें कांग्रेस के चंदन कश्यप ने लगभग 2500 वोटों के अंतर से हराया था.

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संतलाल कुमेटी ने कहा "इस सरकार ने हमारी सुध नहीं ली. आदिवासी रीति-रिवाजों और परंपराओं को बहाल करने के हमारे प्रयास में हमारा समर्थन नहीं किया. इसके बजाय उन्होंने ईसाइयों का पक्ष लिया, हम किसी ऐसे व्यक्ति को वोट क्यों देंगे, जो आदिवासी समुदाय के भीतर विभाजन का समर्थन कर रहा है?".

जहां दो बड़ी पार्टियां आपस में भिड़ रही हैं, वहीं सर्व आदि दल ने 8/12 विधानसभा क्षेत्रों में आदिवासी धर्मांतरित ईसाइयों को मैदान में उतारा है, जिससे बस्तर संभाग में राजनीतिक समीकरण और भी दिलचस्प हो गए हैं. सर्व आदि दल बस्तर में ईसाई धर्म अपनाने वाले आदिवासियों का एक समूह है.

इस कदम को मौजूदा कांग्रेस के लिए एक बड़ी चुनौती के रूप में देखा जा रहा है, जिसे परंपरागत रूप से आदिवासी ईसाइयों का समर्थन प्राप्त था. सर्व आदिवासी समाज ने 7/12 सीटों पर उम्मीदवार उतार कर स्थिति को और भी जटिल बना दिया गया है.

BJP को क्यों बढ़त मिल सकती है ?

धर्मांतरण मुद्दे का असर नारायणपुर की सीमा से लगे कम से कम चार अन्य विधानसभा क्षेत्रों, अंतागढ़, कोंडागांव और केशकाल और चित्रकोट में दिखाई दे रहा है.

कोंडागांव, जिसका प्रतिनिधित्व 2013 से कांग्रेस के पूर्व प्रदेश अध्यक्ष मोहन मरकाम कर रहे हैं, वे भी कड़ी टक्कर के लिए तैयार हैं. 2013 में मरकाम ने बीजेपी की लता उसेंडी को लगभग 5,000 वोटों के अंतर से हराया था, जबकि बीजेपी सरकार के खिलाफ मजबूत सत्ता विरोधी लहर के बावजूद, 2018 के चुनावों में यह अंतर घटकर 1700 वोटों पर आ गया.

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बस स्टैंड पर अपने भाई का इंतजार कर रही 27 वर्षीय किरण मरकाम ने कहा कि वह स्पष्ट नहीं है कि वह किस उम्मीदवार को वोट देंगी, लेकिन उन्होंने दावा किया कि स्थानीय लोग अपने विधायक मरकाम के अस्पष्ट रुख और अन्य कारणों से नाखुश हैं, यहां तक कि पानी की कमी जैसे स्थानीय मुद्दे पर भी विधायक से नाराजगी है.

"जब हमारे लोगों और ईसाई धर्म अपनाने वालों के बीच यह सारी लड़ाई छिड़ गई, तो मोहन मरकाम ने यह साफ नहीं किया कि वह किस पक्ष में थे. अब उन्होंने दोनों पक्षों के लोगों को नाराज कर दिया है. हम उम्मीद करते हैं कि हमारे नेता स्पष्ट रुख और सच्चाई के साथ एकजुट होंगे. उन्हें हमारे साथ खड़ा होना चाहिए था, न कि उन लोगों के साथ जो आदिवासी जीवन शैली को तोड़ने की कोशिश कर रहे हैं."

पूर्व प्रदेश अध्यक्ष मोहन मरकाम ने मीडिया से कहा कि बीजेपी भले ही धर्मांतरण को बड़ा मुद्दा बनाने की कोशिश कर रही है, लेकिन इसका ज्यादा असर नहीं होगा.

"हमने विकास पर कड़ी मेहनत की है और 2018 के घोषणापत्र के अपने सभी वादे पूरे किए हैं. हम फिर से किसानों का कर्ज माफ करेंगे और हम सरकार बनाएंगे."

हालांकि, एक स्थानीय पादरी ने नाम न छापने का अनुरोध करते हुए बताया कि ईसाई समुदाय मरकाम को नहीं बल्कि ईसाई उम्मीदवार को वोट दे सकता है क्योंकि अगर उनके समुदाय के भीतर से प्रतिनिधित्व होता तो वे अधिक सुरक्षित महसूस करते.

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पादरी ने कहा कि "कांग्रेस सरकार ने अपना रुख स्पष्ट नहीं किया है और समुदाय को खतरा महसूस हो रहा है. जब मेरे समुदाय के लोगों को उनके गांवों से बाहर निकाला जा रहा था तो मरकाम ने कुछ नहीं किया. हम चाहते हैं कि कोई हमारी आवाज उठाने में सक्षम हो और इसलिए हम चुनाव में अपने उम्मीदवार के लिए वोट करेंगे".

नारायणपुर सीट मौजूदा कांग्रेस के लिए सबसे कठिन सीट हो सकती है क्योंकि यह बस्तर में धर्मांतरण विवाद का केंद्र बन गई है. निवर्तमान कांग्रेस विधायक चंदन कश्यप के लिए दो कारणों से मुकाबला काफी कड़ा है.

पहला, अपने गांवों से बेदखल किए गए आदिवासी ईसाइयों का दावा है कि कांग्रेस और स्थानीय विधायक ने उनकी मदद नहीं की. दूसरे, जिन्होंने धर्म परिवर्तन नहीं किया, उनका भी दावा है कि कांग्रेस ने उनका साथ नहीं दिया.

बीजेपी बहुसंख्यक गैर-ईसाई जनजातियों के बीच यह धारणा फैलाने की कोशिश कर रही है कि कांग्रेस उनके खिलाफ है और धर्म परिवर्तन करने वालों के साथ है, जबकि कांग्रेस जितना संभव हो सके, इस मुद्दे से दूर रहने की कोशिश कर रही है.

तरोपाल गांव के 42 वर्षीय बुधराम वड्डे ने कहा, "कांग्रेस सरकार ने ईसाइयों की मदद की, न कि उनकी जो समुदाय को एक साथ रखने की कोशिश कर रहे हैं. हम बीजेपी को वोट देंगे क्योंकि वे हमारी लड़ाई लड़ रहे हैं,"

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नारायणपुर विधानसभा सीट पर 1.8 लाख से कुछ कम मतदाता हैं, नारायणपुर ब्लॉक क्षेत्र में कांग्रेस मजबूत रही है, जबकि ग्रामीण भानपुरी और मर्दापाल के मतदाता बीजेपी की ओर झुके हुए हैं.

बुदनी और उसके गांव के अन्य ग्रामीण कांग्रेस से अपना समर्थन वापस लेने के इच्छुक थे. पांच लड़कियों की मां और नारायणपुर जिले की मतदाता 42 वर्षीय सोनारी सलाम कुछ महीने पहले ईसाई विरोधी अभियान के दौरान अपने परिवार पर आई मुसीबतों को याद करते हुए रो पड़ती हैं.

"हम सभी को बहुत कठिन समय का सामना करना पड़ा, कोई भी हमारे बचाव में नहीं आया. मैं अपनी बेटियों और अपने घर के लिए भयभीत थी. हमें पीटा गया, हमें अपने घर छोड़ने के लिए मजबूर किया गया और हम केवल पुलिस की निगरानी में ही वापस लौट सके. लेकिन हमारे गांव की स्थिति में कोई सुधार नहीं हुआ है. हमें बहिष्कृत कर दिया गया है, कोई भी हमसे बात नहीं करता है और हालात अभी भी तनावपूर्ण हैं."

चित्रकोट विधानसभा सीट पर, जहां 1.68 लाख से कुछ अधिक मतदाता हैं, नारायणपुर की सीमा से लगे इलाकों के निवासियों ने कांग्रेस सरकार के खिलाफ भारी असंतोष जताया.

कांग्रेस ने मौजूदा विधायक राजमन बेनजम की जगह अपने मौजूदा प्रदेश अध्यक्ष और मौजूदा सांसद दीपक बैज को बीजेपी की पहली टीम के उम्मीदवार विनायक गोयल के खिलाफ मैदान में उतारा है.

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इधर, चित्रकोट विधानसभा क्षेत्र के मारडुम के स्थानीय बाजार में ग्रामीणों ने पार्टी अध्यक्ष के खिलाफ गुस्सा जाहिर किया.

37 वर्षीय कुसुम मंडावी, चित्रकोट के मर्दम बाजार में अपनी चूड़ियों की दुकान बंद कर रही थी वो दीपक बैज से काफी नाराज थीं. उन्होंने आरोप लगाया कि संस्कृत और मनोविज्ञान में दो स्नातकोत्तर डिग्री पूरी करने के बावजूद उनके पास नौकरी नहीं है और वह चूड़ियां बेचने को मजबूर हैं.

चित्रकूट की निवासी कुसुम कहती हैं "मैंने एमए की दो डिग्री पूरी कर ली है और फिर भी मैं यहां बाजार में चूड़ियां बेच रही हूं. हमारे सांसद दीपक बैज ने हमारे लिए यही किया है."

एक स्थानीय कांग्रेस नेता ने कहा कि वे आदिवासी समुदाय के साथ सामंजस्य बिठाने की कोशिश कर रहे हैं. एक स्थानीय कांग्रेस के नेता कहते हैं...

"हम सभी हितधारकों के साथ मध्यस्थता करने की कोशिश कर रहे हैं. दीपक बैज खुद सभी लोगों से बातचीत कर रहे हैं. बीजेपी भी कड़ी मेहनत कर रही है और पार्टी एकजुट भी है क्योंकि उन्होंने नए चेहरे को टिकट दिया है,लेकिन हमें विश्वास है कि हम अच्छे अंतर से जीतेंगे."

छत्तीसगढ़ के बस्तर में बीजेपी और कांग्रेस के बीच कड़ी टक्कर दिख रही है, लेकिन सर्व आदिवासी समाज, CPI और सर्व आदि समाज ने मैदान में अपनी दावेदारी खड़ी करके कांग्रेस के लिए 2018 की जीत को दोहराना मुश्किल बना सकती हैं.

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