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मोदी के आंतकवाद और राष्ट्रीयता चुनावी नैरेटिव में फंस गई कांग्रेस

कांग्रेस मोदी के ट्रैप में फंसने लगी है

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जैसे क्रिकेट में पहले बल्लेबाजी कर विशाल स्कोर बना चुकी टीम के रन का पीछा करना दूसरी टीम के लिए बीतते ओवर के साथ मुश्किल दिखने लगता है, ठीक वैसा हाल इस समय कांग्रेस के नेतृत्व वाले विपक्ष का लग रहा है.

बालाकोट एयर स्ट्राइक के बाद पीएम नरेंद्र मोदी लगातार आतंकवाद और बहादुरी की पिच पर खेल रहे हैं और विपक्षी टीम उनके ट्रैप में फंसकर फुलटॉस फेंक रही है. उन्हें समझ में नहीं आ रहा है कि वो हारा हुआ मैच जीतने के लिए लड़ रहे हैं या जीतने वाले मैच को हारने के लिए खेल रहे हैं.

बालाकोट ने सब कुछ बदल दिया है. मोदी को अपनी पसंद का राष्ट्रीयता मुद्दे वाला पिच मिल चुका है और फॉर्म भी.

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याद कीजिए 2007 का गुजरात विधानसभा चुनाव, जहां मोदी ने अपनी एंटी इनकम्‍बेंसी को कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के एक स्लिप बॉल को हिट करते हुए 'मौत के सौदागर' के एक बयान पर पूरा चुनाव पलट दिया था.

पाकिस्तान और देशभक्ति की चाशनी मोदी का पुराना चुनाव जिताऊ फॉर्मूला है. यहां तो पुलवामा आतंकवादी हमले के बाद पाकिस्तान से बदला लेने की राष्ट्रीय इच्छा को पूरा करने का प्रधानमंत्री का पुरुषार्थ शामिल है. तो सवाल उठता है कि कांग्रेस के पास पुलवामा के बाद क्या विकल्प थे और क्या कांग्रेस ने प्लॉट खो दिया है या फिर चुनावी खेल में अभी भी कांग्रेस की वापसी की संभावना बरकरार है?

कांग्रेस की वापसी की गुंजाइश कितनी?

ये सच है कि पुलवामा से पहले राफेल पर आक्रामक कांग्रेस के पास बालाकोट के बाद शहीद परिवारों के साथ दिखने के अलावा ज्यादा विकल्प नहीं थे. एक विकल्प ये भी था कि कांग्रेस को शहीद परिवारों के लिए क्राउडफंडिग कर फंड इकट्ठा करने और उनके परिवारों के बच्चों के पढ़ने-लिखने की जिम्मेदारी लेती. शुरुआती दिनों में सरकार के फैसले के साथ साथ खड़े रहकर बीजेपी के मुकाबले कांग्रेस ज्यादा परिपक्व दिख रही थी.

बीजेपी लगातार आतंकवाद और शहादत पर कांग्रेस को ललकार रही थी, लेकिन कांग्रेस ने संयम बना रखा था. लेकिन फिर जिसका अंदेशा था, कांग्रेस मोदी के ट्रैप में फंसने लगी और यहीं बीजेपी ने अपनी संगठनात्मक मजबूती और मीडिया का फायदा उठाते हुए आतंकवाद, राष्ट्रीय सुरक्षा और मजबूत नेतृत्व को मुख्य चुनावी एजेंडा बना दिया. राफेल और कृषि संकट पर कांग्रेस के कैंपैंन की बढ़त को सीधे-सीधे बीजेपी ने पीछे धकेल दिया. अब चुनौती है कि कांग्रेस की अगुवाई वाला विपक्ष मोदी को घेरने वाले नैरेटिव पर कैसे वापस आए?

तो क्या कांग्रेस तैयारी में पिछड़ रही है?

11 दिसंबर को हिन्दी पट्टी के तीन मजबूत गढ़ों में कांग्रेस को मिली जीत से राष्ट्रीय नैरेटिव के बदलने के संकेत मिले थे और बीजेपी के शासन की कमजोरी दिखने लगी थी. कांग्रेस के पास एक सुनहरा मौका था कि वह बेरोजगारी, कृषि-संकट पर आक्रामक राष्ट्रीय आंदोलन की अगुवाई कर वैकल्पिक नैरेटिव को जनमानस के मस्तिष्क में बिठा देती. बेरोजगारी किसानों के संकट पर घिरते मोदी को एक विंडों की तलाश थी, जिसे पुलवामा आतंकवादी हमले ने पूरा कर दिया.

11 दिसंबर से 14 फरवरी तक के दो महीने में कांग्रेस बहुत कुछ कर सकती थी. मसलन चुनाव-पूर्व महागठबंधन को अमलीजामा पहनाना, उसके संकल्प पत्र को जारी करना, सीटों पर मोटी सहमति बनाना, बेरोजगारी, किसान संकट पर राष्ट्रीय टास्क फोर्स बनाकर विमर्श छेड़ना. कांग्रेस रोजगार केंद्र जैसे पब्लिक इमेजिनेशन को खींचने वाले कार्यक्रम शुरू कर राष्ट्रीय विमर्श को बदल सकती थी, लेकिन कांग्रेस विपक्षी पार्टी की होने वाली चुनावी तैयारियों से ज्यादा सत्ताधारी पार्टी की तरह बर्ताव करती रही.

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कांग्रेस विपक्ष की तरह नहीं, सत्ताधारी पार्टी की तरह क्यों कैपैंन कर रही है?

बीजेपी कैपैंन का पहला हिस्सा ''मोदी है तो मुमकिन है'' लॉन्च हुए तीन हफ्ते हो गए हैं, लेकिन कांग्रेस के कैंपैंन का अभी तक कोई अता-पता नहीं है. कांग्रेस को मोदी के 2014 के कैपैंन से काफी कुछ सीखना चाहिए.

मोदी को 2014 में राष्ट्रीय स्तर पर एक ऐसे नेता की पहचान बनानी थी, जो जनता की उम्मीदों आकांक्षाओं को पूरा कर सकता हो, जिसके पास गुजरात मॉडल का ट्रैक रिकॉर्ड था और जो भष्ट्राचार मुक्त शासन देकर गरीबी बेरोजगारी से मुक्ति दिला सकता है.

बीजेपी ने पब्लिक इमेजिनेशन को अपने पक्ष में करने के लिए चाय पर चर्चा, सेल्फी कियोस्क, थ्रीडी वैन जैसे अनूठे प्रयोग प्रचार अभियान से कई महीने पहले शुरू कर दिए थे.

कांग्रेस के प्रचार अभियान में अब तक कोई नवीनता नहीं दिखी है. कांग्रेस को राफेल पर मोदी को घेरने में कामयाबी मिली है, पर बेरोजगारी कृषि संकट जैसे गंभीर मुद्दों को जनता के मन-मस्तिष्क में बिठाने के लिए अनूठे प्रचार अभियान की जरूरत थी.

सर्जिकल स्ट्राइक के तथ्य जानने के बाद भी जनता उरी फिल्म देखने जाती है और उरी फिल्म 250 करोड़ का कारोबार कर ले जाती है. मोदी को अब ऐसे प्रचार अभियान की जरूरत नहीं है, क्योंकि मोदी प्रधानमंत्री के रूप में स्थापित होकर जनता के माइंडस्पेस में अपनी सही या गलत, जगह बना चुके हैं.

मोदी के शासन से ऊबी, नाराज, असंतुष्ट जनता के बीच राहुल गांधी को एक नायक की छवि बनानी थी या कम से कम महागठबंधन को एक आइडिया के तौर पर स्थापित करना था, जिसमें कमोबेश विपक्षी नेता फेल साबित हुए.

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राजनीति में अंकगणित के साथ केमिस्ट्री भी जरूरी

तीन राज्यों में बीजेपी की हार के बाद कोई भी विश्लेषक बीजेपी को लोकसभा चुनाव में 180 सीटें से ज्यादा देने को तैयार नहीं था और ज्यादातर विश्लेषक एनडीए की 100 सीटें के नुकसान होने की भविष्यवाणी कर रहे थे. इस थ्योरी का सारा दारोमदार यूपी में एसपी-बीएसपी गठबंधन के बाद बदले अंकगणित थे और हिंदी पट्टी के राज्यों में मोदी सरकार की बढ़ती एंटी इनकम्‍बेंसी के असर होने की संभावना थी.

नोटबंदी, जीएसटी, रोजगार के मुद्दे मोदी के लिए परेशानी के सबब बन रहे थे. विपक्षी एकता मजबूत हो रही थी और मोदी उससे लड़ने के लिए ‘महामिलावट’ की सरकार का नैरेटिव उछाल चुके थे.

महागठबंधन को अपने सीटों के अंकगणित पर गुणा-भाग करने से ज्यादा एक व्यक्ति की सरकार बनाम लोकतांत्रिक अलग अलग राज्यों की खुशबू से निकले गठबंधन की सरकार के नैरेटिव को एक राष्ट्रीय संकल्प पत्र जैसे कार्यक्रम के जरिए अलग अलग राज्यों की राजधानी में लॉन्च कर जनता के मनोमस्तिष्क में बिठाना था. लेकिन शरद पवार के घर हुई बैठक के बाद इस पर कोई प्रगति नहीं हुई.

बड़ा कथानक जातियों के जमा-जोड़ पर कई बार भारी पड़ता है, इसलिए जातियों के अंकगणित के साथ नैरेटिव का होना भी जरूरी है. महागठबंधन के कई दलों के पास जातियों का अंकगणित तो है, पर नैरेटिव नही है. मोदी के पास आतंकवाद, राष्ट्रीयता पाकिस्तान को सबक सिखाने का बड़ा नैरेटिव है.

हमले के बाद के मोदी के भाषणों को डिकोड करें, तो मोदी पुराने फॉर्म में लौट चुके हैं और एक महीने पहले तक उदासीन दिख रही जनता मोदी को 2014 जैसा रिस्‍पॉन्‍स दे रही है.

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तो क्या कांग्रेस चुनाव हार चुकी है?

यह कहना जल्दबाजी होगा. राजनीति में फिजा बदलने के लिए कई बार एक हफ्ते भी काफी होते हैं, लेकिन इसके लिए राहुल गांधी को 1983 के विश्वकप का कपिल देव बनना होगा. चुनाव लड़ने के तरीके बदलने होंगे. कैंपैंन में नयापन लाना होगा और नैरेटिव बदलना होगा.

(शंकर अर्निमेष जाने-माने पत्रकार हैं. इस आलेख में प्रकाशित विचार लेखक के हैं. आलेख के विचारों में क्‍व‍िंट की सहमति होना जरूरी नहीं है.)

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