चुनाव आयोग ने आदर्श आचार संहिता के उल्लंघन के मामलों में पीएम मोदी को क्लीन चिट दे दी. पीएम मोदी ने कहीं चुनावी भाषण में धर्म का जिक्र किया था तो कहीं सेना का जिक्र किया था. चुनाव आयोग के फैसलों पर सवाल उठे, कांग्रेस सुप्रीम कोर्ट भी चली गई लेकिन अब पता चला है कि खुद चुनाव आयोग में इन फैसलों को लेकर मतभेद था.जो खुलासे हो रहे हैं उससे चुनाव आयोग की कार्यशैली पर गंभीर सवाल उठते हैं.
2019 के लोकसभा चुनावों में रैलियों के मंच से बदजुबानी की इंतेहा पार हो रही है. यूपी के सीएम योगी आदित्यनाथ ‘बाबर की औलाद’ के ‘बाण’ छोड़ रहे हैं तो प्रज्ञा ठाकुर शहीद श्राप देने का पाखंड कर रही हैं. वोट की लालच में तो उन्होंने यहां तक स्वीकार कर लिया कि बाबरी मस्जिद तोड़ने वालों में से वो भी थीं.
चुनावी रैलियों से बदजुबानी करने वालों को कुछ घंटों के प्रचार से दूर रखा गया लेकिन आखिरी बात ये है कि ये सारे लोग चुनाव लड़ रहे हैं. शायद जीत भी जाएं. खुद पीएम मोदी ने कह दिया कि राहुल गांधी केरल के वायनाड से इसलिए चुनाव लड़ने गए हैं क्योंकि वहां मुसलमान ज्यादा हैं. एक दूसरी रैली में मोदी ने खुले आम कहा कि युवा पुलवामा के शहीदों और बालाकोट के सैनिकों के नाम पर वोट दें.
किसके लिए वोट मांग रहे थे मोदी
पीएम मोदी के इन दोनों बयानों पर कांग्रेस ने चुनाव आयोग से शिकायत की. लेकिन चुनाव आयोग ने दोनों ही मामलों में उन्हें क्लीन चिट दे दी. इन मामलों में क्लीन चिट देते समय आयोग ने जिला निर्वाचन अधिकारियों की राय भी दरकिनार कर दी, जिसमें उन्होंने इस भाषण को गलत बताया था. दूसरे मामले में तो चुनाव आयोग ने बड़ा अजीब तर्क दिया. चुनाव आयोग ने कहा कि पीएम ने बालाकोट और पुलवामा के नाम पर वोट तो मांगा लेकिन अपने लिए नहीं. ये बड़ी अजीब बात है. जब पीएम मोदी पुलवामा और बालाकोट के नाम पर बीजेपी की रैली में वोट मांग रहे थे तो जाहिर है किसके लिए मांग रहे थे.
PM को चिट्ठी तो लिख ही सकते थे
अब पता चला है कि चुनाव आयोग में भी क्लीन चिट देने को लेकर मतभेद थे. इकनॉमिक्स टाइम्स में छपी एक खबर के मुताबिक तीनों चुनाव आयुक्तों में से एक अशोक लवासा चाहते थे कि पीएम मोदी और अमित शाह को एक चिट्ठी लिखकर कहा जाए कि वो मर्यादा का पालन करें लेकिन ताज्जुब है कि चुनाव आयोग ने न सिर्फ उन्हें क्लीन चिट दी, बल्कि ऐसी कोई चिट्ठी भी नहीं लिखी. खबर के मुताबिक लवासा ने इस बात पर भी आपत्ति जताई थी कि आयोग देर से एक्शन ले रहा है.
ऐतराज को क्यों रखा राज?
इतना ही नहीं चुनाव आयोग ने शिकायतकर्ता यानी कांग्रेस को भी नहीं बताया कि क्लीन चिट देने का फैसला सर्वसम्मति से नहीं लिया गया था. समाचार एजेंसी पीटीआई ने दो पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्तों के हवाले से लिखा है कि जब भी चुनाव आयोग में किसी मसले को लेकर एकराय नहीं हो तो कम से कम शिकायतकर्ता को बताना चाहिए कि फैसला बहुमत से लिया गया है न कि सर्वसम्मति से.
इस बात के भी उदाहरण हैं कि जब किसी बड़े मसले पर चुनाव आयोग में एकराय नहीं होती है तो मामला राष्ट्रपति को भेज दिया जाता है. ये सच है कि चुनाव आयोग मतभेद के मामलों में बहुमत से फैसला कर सकता है लेकिन परंपरा भी एक चीज है.
इधर टेक्निकल ग्राउंड, उधर 'सबकुछ' ताक पर?
अब इसी चुनाव में आयोग के एक दूसरे फैसले पर गौर कीजिए. पीएम मोदी के ही खिलाफ बीएसएफ से बर्खास्त जवान तेज बहादुर यादव ने पर्चा दाखिल किया. वाराणसी के चुनाव अधिकारी ने एक टेक्निकल ग्राउंड पर तेज बहादुर का पर्चा खारिज कर दिया. बात सिर्फ इतनी थी कि तेज बहादुर तय समय पर चुनाव आयोग से इस बात प्रमाण पत्र लेकर नहीं आ पाए कि उन्हें भ्रष्टाचार या देशद्रोह के कारण नौकरी से बर्खास्त नहीं किया गया था.
ये जवान बीएसएफ में खराब खाना मिलने की शिकायत करने के कारण फोर्स से बर्खास्त हुआ. बीएसएफ ने उन्हें अनुशासन तोड़ने के लिए नौकरी से निकाला. यानी ये जगजाहिर है कि तेज बहादुर पर भ्रष्टाचार या देशद्रोह का मामला नहीं है, लेकिन चुनाव आयोग ने उन्हें चुनाव लड़ने से रोक दिया.
विडंबना देखिए कि जिस पत्र में आयोग ने उनसे 1 मई को सुबह 11 बजे तक प्रमाणपत्र लाने को कहा था उसी पत्र में आयोग ने 90 साल आगे की तारीख डाल दी थी. तेज बहादुर फिलहाल सुप्रीम कोर्ट चले गए हैं. उम्मीद है कि वहां से उन्हें इंसाफ मिलेगा और उम्मीद है ये भी है कि चूंकि अब चुनाव आयोग की कार्यशैली पर गंभीर सवाल उठ रहे हैं, तो सुप्रीम कोर्ट से कोई टिप्पणी, कोई निर्देश आए. याद कीजिए कि योगी, माया, आजम और सिद्धू पर भी चुनाव आयोग ने तब फैसला किया जब सुप्रीम कोर्ट ने फटकार लगाई.
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