प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी कहां से चले थे, कहां पहुंच गए. मंगलवार को उन्होंने पहली बार वोट डालने वाले युवा वोटरों से एक भावुक अपील की. कहा- अपना पहला वोट पुलवामा हमले में शहीद जवानों को समर्पित करें. ये 2019 के नरेंद्र मोदी हैं. हमें 2014 के चुनावों में वोट मांगते मोदी भी याद हैं.
आपको भी याद होगा. उस दौरान वह यूपीए-2 सरकार की 'पॉलिसी पैरालिसिस' को कोसते थे. कथित भ्रष्टाचार के लिए मनमोहन सरकार को लानतें भेजते थे. काले धन की बखिया उधेड़ने की बात करते थे और सिर्फ और सिर्फ विकास के एजेंडे पर वोट मांगने का दम भरते थे.
वोटरों के सामने उनके पास विकास के दो मॉडल थे. पहला गुजरात और दूसरा चीन. कहते थे आइए और देखिए गुजरात ने क्या गजब किया है. बीजेपी सत्ता में आई तो पूरे देश में गुजरात मॉडल के विकास की हवा बहने लगेगी. जीडीपी ग्रोथ रेट चीन की तरह दहाई अंक में पहुंच जाएगा. बीजेपी आई तो देश मैन्यूफैक्चरिंग का हब बन जाएगा. चीन को पछाड़ते देर नहीं लगेगी.यूपीए सरकार इस देश को गर्त में ले जा रही है. वरना हम विकास की दौड़ में चीन की टक्कर दे रहे होते. ये कांग्रेस की नीतियों का नतीजा है कि हम कहां रह गए चीन कहां पहुंच गया. उठिए और कमल के निशान के आगे का बटन दबाइए.
नरेंद्र मोदी के पॉलिटिकल शो-मैन शिप का जवाब नहीं था और देश ने देखा कि बीजेपी ने किस कदर अभूतपूर्व बहुमत के साथ सत्ता हासिल कर ली.
इसके बाद किए गए वादों और लाई गई योजनाओं को याद कीजिए.
- हर साल दो करोड़ रोजगार देंगे
- 2022 तक किसानों की आय दोगुनी कर देंगे
- मेक इन इंडिया से देश को मैन्यूफैक्चरिंग हब बना देंगे
- देश में 100 स्मार्ट सिटी बनाए जाएंगे
- 2022 तक सभी बेघरों को मकान मिल जाएगा
- 150 दिनों के अंदर विदेश में जमा देश का काला धन आ जाएगा
- अर्थव्यवस्था की विकास दर फीसदी कर दी जाएगी
- स्किल इंडिया मिशन के तहत 2022 तक 40 करोड़ लोग ट्रेंड होंगे
- दलितों, आदिवासियों और पिछड़ों को न्याय मिलेगा
- पेट्रोल-डीजल सस्ता करेंगे और रुपये को मजबूत बनाएंगे
- पांच साल में गंगा नदी को साफ कर देंगे
वादों का गुब्बारा 2019 तक आते-आते फुस्स हो गया
इन बड़े वादों और विदेश में भारत की साख बढ़ाने के दावों के बाद नरेंद्र मोदी एक स्टेट्समैन की भंगिमा में दिखने लगे. चीन और पाकिस्तान जैसे पड़ोसियों से रिश्तों की नई राह बनाने का दम भरा गया. लेकिन मेक इन इंडिया, स्वच्छ भारत अभियान, स्किल इंडिया, डिजिटल इंडिया और स्मार्ट सिटी जैसी महत्वाकांक्षी योजनाओं पर राजनीति भारी पड़ने लगी.
विधानसभा चुनाव आते ही विकास का नैरेटिव बदलने लगा. और यूपी जैसे अहम राज्य में विकास की जगह शमशान और कब्रिस्तान की बातों पर वोट मांगे जाने लगे. गोरक्षक छुट्टा घूम-घूम कर लिंचिंग करते रहे और दलितों की पीठ पर कोड़े बरसने लगे. कसाईखाने बंद हो गए और आवारा मवेशी किसानों के खेत चरने लगे. जिस पाकिस्तान से रिश्ते सुधारने के लिए पीएम सीधे उसकी धरती में उतरे थे वहां से आतंक की हवा को रोकने में नाकाम रहे.
फिर पुलवामा हुआ और उसके बाद बालाकोट. नरेंद्र मोदी हाल तक जिन विपक्षी दलों को पुलवामा अटैक में जवानों की शहादत पर राजनीति न करने की नसीहत दे रहे थे, वही अब नौजवानों को अपना पहला वोट इसके नाम करने को कह रहे हैं.
नोटबंदी, जीएसटी के बाद ठिठके हुए लेबर मार्केट वाले इस देश को पीएम मोदी से कुछ और ही उम्मीद थी. लगा था वे इस बार ज्यादा जोर-शोर से विकास की बात करेंगे. लेकिन वे सैनिकों की शहादत पर वोट मांग रहे हैं. विकास की बयार बहने की उम्मीद रखे वोटरों का एक बड़ा हिस्से को ऐसे 'विकास पुरुष' का यह बदला हुआ रुख देख कर जरूर झटका लगा होगा.
नतीजे नहीं कन्हैया का अंदाज अहम
बेगूसराय से चुनाव मैदान में उतरे जेएनयू के पूर्व छात्र संघ अध्यक्ष कन्हैया कुमार ने आज अपना पर्चा भर दिया. कन्हैया भूमिहार बहुल बेगूसराय से सीपीआई के टिकट पर चुनाव लड़ रहे हैं. पर्चा दाखिल करने से पहले कन्हैया के रोड शो में खासी भीड़ थी और लाल झंडों के साथ आए उनके समर्थक लाल सलाम के नारे लगा रहे थे.
कन्हैया के खिलाफ आरजेडी ने तनवीर हसन और एनडीए ने गिरिराज सिंह को उतारा है. इस सीट के जातीय गणित के हिसाब से कन्हैया के लिए मुकाबला काफी टफ है. लेकिन कन्हैया को इस सीट से चुनाव लड़ने के लिए उतरने को एक दूसरे नजरिये से देखने की जरूरत है.
जेएनयू में कथित देशद्रोही नारे लगाए जाने के आरोप जेल में बंद किए गए कन्हैया कुमार को अदालत अब तक दोषी साबित नहीं कर पाई है. उल्टे उन्हें पूरे देश में सत्ता के खिलाफ रेजिस्टेंस के आइकन की तरह देखा जाने लगा है. सेक्यूलर पॉलिटिक्स में विश्वास करने वाले और बीजेपी की पुनरुत्थानवादी नीतियों के विरोधियों के बीच कन्हैया काफी पसंद किए जाते हैं.
कन्हैया कुमार को समर्थन देने के लिए युवा दलित नेता जिग्नेश मेवानी, शेहला रशीद, गुरमेहर कौर और नजीब की मां अम्मा फ़ातिमा नफीस तमाम लोग बिहार के बेगूसराय में पहुंचे हुए थे. ये सभी लोग बीजेपी और मोदी सरकार के खिलाफ अपनी-अपनी वजहों से मोर्चा ले रहे हैं.
गरीबों, बेरोजगार नौजवानों, पिछड़े, दलितों और मुस्लिमों के मुद्दे उठाने से एक बड़ा वर्ग कन्हैया को चुनावी राजनीति में उतरने से खुश है. उन्हें लग रहा है कन्हैया उनकी आवाज हैं.
कन्हैया का बेगूसराय से चुनाव लड़ना वामपंथी राजनीति के अब तक के रंग-ढंग के लिहाज से भी अहम है. आम तौर वामपंथी पार्टियां इतनी कम उम्र में अपने कैडर को चुनाव लड़ने की इजाजत नहीं देती. वहां ट्रेनिंग का एक लंबा सिलसिला है और ज्यादा उम्र के लोग ही पार्टी टिकट से चुनाव लड़ते हैं.
इन पार्टियों के पास अपनी 'एतिहासिक भूलों' की लंबी फेहरिस्त है. लिहाजा कन्हैया का चुनाव लड़ना भी इन पार्टियों की परंपरा में एक नया मोड़ साबित होने जा रहा है. बहरहाल, कन्हैया अपने भाषणों, तर्कों और क्राउड फंडिंग से जरिये चुनाव लड़ने के अपने तरीकों से एक ताजगी का अहसास तो करा ही रहे हैं. अगर कन्हैया जीतते हैं तो यह देश की चुनावी राजनीति को नया रंग देगा.
मायावती के मुस्लिम वोट और योगी का अली-बली
देवबंद में गठबंधन की रैली में बीएसपी चीफ मायावती के मुस्लिम वोट न बंटने देने की अपील के बाद बीजेपी हमलावर हो गई. राजनाथ सिंह ने कहा कि हिंदू-मुस्लिम की राजनीति न हो तो योगी आदित्यनाथ को बजरंगबली याद आने लगे. कहने लगे कि उनके साथ अली है तो हमारे साथ बजरंगबली.
राजनाथ सिंह का बयान चौंकाने वाला था. उन्होंने कहा, धर्म, जाति और संप्रदाय के नाम पर राजनीति नहीं होनी चाहिए. उनसे ऐसे शाकाहारी बयानों की उम्मीद नहीं थी. बीजेपी और संघ परिवार की हिंदू (हिंदुत्व नहीं क्योंकि संघ परिवार के लोग इसे धर्म नहीं जीवनशैली मानते हैं) राजनीति के विचारों पर शान चढ़ाने वाले नेताओं के ऐसे बयान चौंकाने वाले है.
वैसे भी यह समझ नहीं आ रहा है कि राजनाथ सिंह और योगी आदित्यनाथ मुस्लिम वोटरों से मायावती की अपील से परेशान क्यों हैं. यूपी में मुजफ्फरनगर से लेकर बुलंदशहर में पिछले पांच सालों में जो हुआ उसके बाद भी उन्हें क्यों लगता है कि कुछ मुस्लिम उनके पाले में आ जाएंगे. इक्का-दुक्का मुस्लिम उम्मीदवारों को उतारने वाली बीजेपी को तो मुस्लिम वोटों की बिल्कुल चिंता नहीं करनी चाहिए. उल्टे तो उन्हें खुश होना चाहिए कि मायावती का यह बयान उनके पक्ष में हिंदू वोटों का और ध्रुवीकरण कर सकता है.
जहां तक मायावती की बात है तो उन्हें कांग्रेस के यूपी में अपने दम से लड़ने की वजह से मुसलमान वोटों की चिंता होना स्वाभाविक है. उन्हें लगता है कि मुसलमान अतीत में बीएसपी के बीजेपी से रिश्तों को लेकर नाराज है. वह जाटव वोटरों को तवज्जो देने की मायावती की नीतियों से भी नाराज हो सकता है. मायावती और राजनाथ दोनों को मुस्लिम वोटरों की चिंता छोड़ देनी चाहिए. मुस्लिम वोटर समझदार है, उसे पता है कि किसे वोट देना और किसे नहीं.
चंद्रबाबू नायडू डूबेंगे या उबरेंगे
आंध्र प्रदेश में चंद्रबाबू नायडू शायद इससे पहले कभी इतने मुश्किल में नहीं फंसे होंगे. 11 अप्रैल को विधानसभा चुनाव है और उनके खिलाफ बीजेपी, वाईएसआर और पवन कल्याण की जनसेना है.
चंद्रबाबू नायडू आरोप लगाते हैं कि जगनमोहन को बीजेपी और पवन कल्याण पर्दे के पीछे से मदद कर रहे हैं. उन्हें तेलंगाना के सीएम के चंद्रशेखर राव भी मदद कर रहे हैं. दरअसल नायडू केंद्र की राजनीति में भी नहीं उभर पा रहे हैं और आंध्र में वह जगनमोहन रेड्डी के वोटरों को लुभाने के लिए की जाने वाली घोषणाओं से परेशान हैं.
इस चक्कर में वह भी एक के बाद एक योजनाओं का ऐलान कर रहे हैं. मुफ्त घर देने की बात कर रहे हैं और पेंशन बढ़ाने का वादा कर रहे हैं. ऊपर से आंध्र की जनता उनसे नाराज चल रही है. वह बीजेपी से विशेष राज्य का पैकेज भी नहीं ले सके और राज्य का बंटवारा भी नहीं रोक सके. आंध्र के लोगों को लगता है कि सारा संसाधन तेलंगाना के पास चला गया है.
तेलंगाना में केसीआर की मुफ्त घर और कर्ज माफी की योजना से जनता निहाल है. आंध्र के लोगों को लगता है वह इनसे महरूम हैं. चंद्रबाबू नायडू केंद्र में विपक्ष की जो लामबंदी कर रहे थे वह भी पूरा नहीं हो सका. विधानसभा चुनाव के नतीजे तय करेंगे कि चंद्रबाबू नायडू मुश्किलों से दौर से उबरेंगे या फिर उनके परेशानी और बढ़ जाएगी.
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