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मोदी राज में निर्वाचन आयोग की निष्पक्षता पर सवाल क्यों?

प्रधानमंत्री मोदी के कार्यक्रमों का दौर खत्म होने के बाद इलेक्शन कमीशन ने मतदान की तारीखों का ऐलान किया!

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17वां लोकसभा चुनाव, 1977 के आम चुनाव के बाद से सबसे महत्त्वपूर्ण हैं. उस समय 21 महीने तक इमरजेंसी के अंधेरे में रहने के बाद देश में आम चुनाव हुए थे. वो चुनाव राष्ट्र के मौलिक लोकतांत्रिक सिद्धांतों और उसके संवैधानिक संस्थानों की सुरक्षा का स्वयं को संविधान से ऊपर मानने वाली तथा उनकी इर्द-गिर्द बनी कोटरी के बीच जंग का एक उदाहरण था.

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इस बार भी कुछ ऐसे ही माहौल में चुनाव हो रहे हैं, जब संवैधानिक लोकतंत्र की बुनियाद हिल चुकी है और लोकतंत्र के सभी पहलुओं के वजूद गंभीर सवालों के घेरे में हैं.

उस समय की चुनौती आज फिर वोटर के सामने खड़ी है- संविधान के निर्माताओं की बनाई राह चुनी जाए या एक नया रास्ता अपनाया जाए.

वर्ष 1977 में वोटरों ने संसद और संविधान को धता बताने की इंदिरा गांधी के इरादों पर पानी फेर दिया था. क्या इस बार वोटर एक नए गणतंत्र की सोच को अपनाएंगे, जिसका आभास मई 2014 के बाद से लगातार कराया जा रहा है?

जब मौलिक अधिकार खत्म कर दिये जाते हैं और इमरजेंसी लगा दी जाती है, तो कैसा दृश्य उभरता है?

देश चुनाव के लिए कमर कसने लगा है. ऐसे में 2015 में लालकृष्ण आडवाणी से किया गया एक सवाल याद करने लायक है. उनसे पूछा गया था कि क्या इमरजेंसी दोबारा लगाई जा सकती है? सवाल पर टालमटोल करते-करते उन्होंने ये भी कह डाला:

वर्तमान समय में लोकतंत्र को कुचलने वाली, संविधान की अवहेलना करने वाली और कानून को ताक पर रखने वाली ताकतें हावी हैं.... मुझे नहीं लगता कि ऐसा कुछ भी किया गया है, जो नागरिक अधिकारों को निरस्त या समाप्त करने से रोके.”

फिलहाल औपचारिक रूप से इमरजेंसी नहीं लगाई गई है और न संवैधानिक रूप से मौलिक अधिकारों का हनन नहीं किया गया है, लेकिन एक गणतंत्र के सिद्धांतों और मूल्यों को ताक पर रखने की परंपरा शुरू हो चुकी है, जिसका पालन अधिकांश लोग कर रहे हैं.

10 मार्च, रविवार की शाम लंबा इंतजार समाप्त हुआ. प्रधानमंत्री मोदी के उद्घाटनों और नए कार्यक्रम आरंभ करने का दौर समाप्त हुआ, तब जाकर इलेक्शन कमीशन ने (ECI) ने मतदान की तारीखों का ऐलान करने की सुध ली. साल 2014 से संवैधानिक संस्थानों की स्वायत्तता समाप्त करने का जो दौर चल रहा है, उस कड़ी का ये नवीनतम उदाहरण है.

ये पहली बार नहीं है, जब मोदी सरकार में ECI की निष्पक्षता पर सवाल खड़े हुए हों. सवाल तब भी खड़े हुए थे, जब गुजरात विधानसभा चुनावों को हिमाचल विधानसभा चुनावों से अलग कर दिया गया. अब तक दोनों विधानसभाओं के चुनाव साथ हुआ करते थे. आम आदमी पार्टी के विधायकों को अयोग्य घोषित करना भी सवालों के घेरे में रहा है.

मोदी ने स्वायत्त संस्थानों को कमजोर बनाया

चुनाव में धनवर्षा कोई नई बात नहीं, लेकिन चुनावों में वित्तीय लगाम कसने की आड़ में बनाए गए नियमों ने चुनावी हेर-फेर के अवसर बढ़ा दिए.

ये आरोप सिर्फ मोदी सरकार पर नहीं कि किस प्रकार मोदी सरकार ने संस्थागत लोकतंत्र पर प्रहार किया. चुनाव से पहले और चुनाव के दौरान, विपक्ष भी इसके लिए उतना ही जिम्मेदार है. फिर भी इस सच्चाई को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता कि किस प्रकार स्वायत्त संस्थानों को कमजोर किया गया, ताकि वो निष्पक्षतापूर्वक और सरकार के प्रभावक्षेत्र से बाहर रहकर कार्य न कर पाएं.

जनता को सुप्रीम कोर्ट के जजों की अचानक बुलाई गई प्रेस कॉन्फ्रेंस में उठाए गए सवालों के जवाब अब तक नहीं मिले हैं. लोगों को अब भी सुप्रीम कोर्ट की स्वायत्तता पर शक है. ये दूसरी बात है कि जनवरी 2018 में उस प्रेस कॉन्फ्रेंस में सवाल खड़ा करने वाले जजों में एक, इन दिनों सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश हैं.

कई अन्य संस्थानों और वाचडॉग का भी कुछ ऐसा ही हाल है, जिनमें लोकसभा अध्यक्ष, राज्यसभा के सभापति, सेन्ट्रल ब्यूरो ऑफ इन्वेस्टिगेशन से लेकर कॉम्पट्रोलर एंड ऑडिटर जनरल ऑफ इंडिया तक शामिल हैं. किस संस्थान की स्वायत्तता को कमजोर नहीं किया गया, इसकी जानकारी के लिए एक-एक कर सभी स्वायत्त संस्थानों की समीक्षा करनी होगी.

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1977 के बाद 2019 के चुनाव महत्त्वपूर्ण हैं

पुलवामा हमले के बाद प्रधानमंत्री के भाषण और फिर बालाकोट में आतंकी ठिकाने पर हवाई हमले इस बात के पुख्ता सबूत हैं कि किस प्रकार प्रशासन और सरकारी तंत्र का व्यक्तिगत मंशा से इस्तेमाल किया जाता है.

इस सिलसिले में ताजा उदाहरण मोदी का दावा है कि हवाई हमलों के बाद ‘पाकिस्तान चिल्लाने लगा कि मोदी ने हमें मार डाला’, जबकि वास्तव में पाकिस्तान के प्रवक्ता ने व्यक्तिगत रूप से कोई आक्षेप नहीं लगाया.

1977 के बाद ये देखने के लिए महत्वपूर्ण है कि क्या वोटर एक ऐसी सत्ता को अपनाना चाहते हैं, जिसमें शब्दों के इस्तेमाल उनके अर्थों के अनुरूप नहीं, बल्कि ड्रामा करने के लिए किए जाते हैं, और अगर कोई उन पर सवाल करना चाहे, तो फौरन विषय बदल दिए जाते हैं?

जब तक पुराने सवालों के जवाब तलाशे जाएं, तब तक नए मुद्दे गढ़ दिए जाएं, नई परेशानियों से लोगों को रूबरू कराया जाए और नई उम्मीदों के सपने दिखाए जाएं.

लोगों को अपने आसपास बेरोजगारों की बढ़ती तादाद और ग्रामीण इलाकों के दुर्दिन स्पष्ट नजर आ रहे हैं, फिर भी आंकड़ों के आधार पर ये साबित किया जाता है कि वो जो भी देख-सुन और समझ रहे हैं, वो गलत है.

आम नागरिक को अपने फैसलों पर शक करने के लिए मजबूर किया जाता है और अगर वो इन चालों से दूर रहने की कोशिश करे तो उसकी अभिव्यक्ति की आजादी खतरे में पड़ जाती है.

एक सम्मानजनक जिंदगी और सामाजिक सुरक्षा की मांग करने पर घुड़कियां मिलती हैं. कल्पनाशील दलील दी जाती है कि ‘राष्ट्र खतरे में है- पता नहीं कौन सा खतरा है.

वोटरों को ये तय करना है कि वो नागरिकता के मूलभूत और केन्द्रीय सिद्धांत तथा भारतीयता को फिर से हासिल करना चाहते हैं या नहीं.

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मोदी ने किस प्रकार देशभक्ति को अपने अनुरूप राष्ट्रवाद से मिलाया

पिछली बार जिस भ्रष्टाचार से निपटने को मोदी ने अपने चुनावी अभियान का अभिन्न अंग बना रखा था, पूरे मोदी शासन में उसका दूर-दूर तक कोई अता-पता नहीं रहा. खुद पर जब आरोप लगते, तो अपने प्रिय हथियार के रूप में अतीत में विपक्ष की नाकामियां गिनाकर मुद्दा बदल दिया जाता.

दिलचस्प है कि पिछले पांच सालों में किसी भी राज्य में विपक्ष की किसी भी सरकार के खिलाफ भ्रष्टाचार या अपराध का कोई सबूत नहीं मिला. यहां तक कि ममता बनर्जी पर भी अतीत में वित्तीय अनियमितता के आरोप लगाए गए. दूसरी ओर राफेल मुद्दा इकलौता नहीं, जो सरकार की नीयत पर सवाल खड़ा करता हो.

धर्मनिरपेक्ष राजनीति को तोड़ना-मरोड़ना और हिन्दुत्व का एजेंडा हावी करने के लिए समाज में ध्रुवीकरण करने का जिक्र न भी किया जाए, तो भी ये महत्त्वपूर्ण है कि इस शासन में जान-बूझकर देशभक्ति को अपने अनुरूप राष्ट्रवाद के रूप में परिभाषित किया गया.

इंदिरा गांधी भी बार-बार 'विदेशी हाथ' के रूप में राष्ट्रवाद के भ्रमित रूप की बात करती थीं, जो देश और उनकी सत्ता को तोड़ने का प्रयास कर रहे थे, लेकिन ये सरकार उससे आगे बढ़ चुकी है.

मोदी का दावा है कि जब भी देश में कुछ बुरा होता है, उसके लिए 'अंदरूनी ताकतें' ही जिम्मेदार हैं. सभी पहलुओं में सरकारी तंत्र की घुसपैठ और हर कदम पर निगरानी का डर लोगों के दिलो-जेहन में समा चुका है.

कई लोगों ने चुप्पी साध ली है, जैसा अक्सर इन परिस्थितियों में होता है. उनके लिए बैलट ही अपनी आवाज बुलंद करने का मौका होता है. अब चुनाव के नतीजे ही बताएंगे कि उनकी नाराजगी किस हद तक सही है.

मोदी से काफी उम्मीदें थीं. उन्होंने आम लोगों में नई ऊर्जा का संचार किया और उम्मीद की नई किरण जगाई थी. कुछ विकास हुआ, जो हर शासन में होता है, लेकिन लोगों को सांस लेने वाली हवा भी बोझिल लगने लगी. इसके जिम्मेदार ऊपर बताए गए निगरानी तंत्र और बदलाव तो हैं ही, सोशल मीडिया के महावीरों और मीडिया के चीयरलीडर्स ने भी भारत को गणतंत्र की मौलिकता से दूर ले जाने में पूरी मदद की है.

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81 वर्ष पूरा करने की पूर्व संध्या पर बर्ट्रांड रसेल ने एक निबंध लिखा था, ‘How to Grow Old’. पूरे जीवन के आकलन पर उनकी दलील थी कि अहंकार को एक नदी की तरह बहा देना चाहिए:

“मानव जिंदगी एक नदी की तरह होनी चाहिए – पहले छोटी, अपने किनारों की सीमा में बंधी हुई, रास्ते में पड़ने वाले चट्टानों और झरनों को पीछे छोड़ती हुई. धीरे-धीरे नदी चौड़ी होती है, किनारे दूर होते हैं, पानी की रफ्तार धीमी होती है. अंत में वो समुद्र में मिल जाती है, और बिना किसी दर्द के उसका अस्तित्व समाप्त हो जाता है.”

पांच साल सत्ता में रहने के बावजूद ये आत्मकेंद्रित सरकार और उसके नेता पहाड़ी नदी की गर्जना भरी धारा की तरह व्यवहार कर रहे हैं. उनकी आवाज और तेवर डर पैदा करते हैं. परेशानी ये है कि पहाड़ी नदियों की ताकत उनकी ही किनारों को बहा देती है. अब चुनाव तय करेंगे कि भविष्य में उन किनारों की मरम्मत हो पाती है या नहीं.

(लेखक दिल्ली स्थित लेखक तथा पत्रकार हैं. उनकी नवीनतम पुस्तकें हैं: Sikhs: The Untold Agony of 1984’ तथा ‘Narendra Modi: The Man, The Times’. ट्विटर पर उनसे @NilanjanUdwin पर संपर्क किया जा सकता है. आलेख में दिए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं. क्विंट का उनसे सहमत होना जरूरी नहीं है.)

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