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रोज का डोज : जिसे वोट देना है, थोड़ी उसकी भी तो सोचिए जनाब

इलेक्टोरल बॉन्ड से लेकर स्मृति ईरानी की डिग्री विवाद तक विक्टिम सिर्फ और सिर्फ वोटर है

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  • कंपनी चलाने वाले सबसे बड़े शेयर धारक को बताए बिना पॉलिसी बना दें तो आप इसे क्या कहेंगे? इलेक्टोरल बॉन्ड पर क्या यही नहीं हो रहा ?
  • पूर्व जनरलों और एडमिरलों ने सेना के सियासीकरण पर राष्ट्रपति को चिट्ठी लिखी या नहीं? इस सस्पेंस के शोर में खो गया सच.
  • डिग्री को लेकर विपक्ष पर ‘थर्ड डिग्री’ का आरोप लगाने वाली स्मृति ईरानी विक्टिम हैं या विक्टिमहुड की सियासत कर रही हैं?
  • और कांग्रेस एक और जगह गठबंधन करने में क्यों हुई फेल?

ये है शुक्रवार की बड़ी चुनावी खबरों पर रोज का डोज. सबसे पहले बात इलेक्टोरल बॉन्ड की

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इलेक्टोरल बॉन्ड : ये कैसी पारदर्शिता?

सुप्रीम कोर्ट ने शुक्रवार को इलेक्टोरल बॉन्ड पर रोक लगाने से इंकार कर दिया. लेकिन सियासी पार्टियों से कहा है कि वो 30 मई तक चुनाव आयोग को सीलबंद लिफाफे में बताएं कि इलेक्टोरल बॉन्ड से कितना चुनावी चंदा मिला है. आगे मैं कुछ कहूं इससे पहले आप जरा ये देख लीजिए कि 3 जनवरी, 2018 को वित्त मंत्री अरुण जेटली ने इलेक्टोरल बॉन्ड पर क्या कहा था -

इसमें पारदर्शिता इतनी आएगी कि जो डोनेशन देता है उसकी बैलेंस शीट में ये रिफलेक्ट होगा कि उसने इलेक्टोरल बॉन्ड खरीदे हैं, लेकिन किसको दिए हैं, इसकी जानकारी नहीं होगी. अपने नोटिफाइड अकाउंट में हर साल कितने बॉन्ड्स आए हैं, राजनीतिक पार्टी इसका रिटर्न चुनाव आयोग में भरेगी.
3 जनवरी, 2018 को वित्त मंत्री अरुण जेटली

2018 में सरकार ने इलेक्टोरल बॉन्ड पर पारदर्शिता की जन्नत दिखाई गई थी, आज उसकी हकीकत क्या है? हकीकत ये है कि इलेक्टोरल बॉन्ड में पारदर्शिता की भारी कमी है. कौन डोनेशन दे रहा है, कितना दे रहा है, पता नहीं चलेगा. खासकर वोटर को तो नहीं. ये तो वैसे ही हुआ कि जो वोटर लोकतंत्र नाम की कंपनी का सबसे बड़ा शेयर धारक है,वो ही अंधेरे में है. सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि पार्टियां चुनाव आयोग को बताएं कि इलेक्टोरल बॉन्ड से कितना चंदा मिला है. अब इसमें दो सवाल हैं -

  1. क्या चुनाव आयोग पार्टियों द्वारा दी गई जानकारी सार्वजनिक करेगा?
  2. क्या पार्टियां आयोग को ये भी बताएंगी कि किसने चंदा दिया?

पहले सवाल का जवाब तो चुनाव आयोग दे सकता है. दूसरे सवाल का जवाब इस सवाल में है कि जब इलेक्टोरल बॉन्ड के बारे सरकार ने कहा है कि पार्टियों को भी नहीं पता चलेगा कि किसने चंदा दिया है तो वो ये जानकारी चुनाव आयोग को कैसे देंगी? इस मामले की सुनवाई के दौरान अटॉर्नी जनरल केके वेणुगोपाल ने सुप्रीम कोर्ट में जो कहा वो तो चौंकाने वाला है.

वोटर के लिए ये जानना क्यों जरूरी है कि किस पार्टी को कौन चंदा दे रहा है?
11 अप्रैल, 2019 को सुप्रीम कोर्ट में अटॉर्नी जनरल केके वेणुगोपाल

लेकिन क्या एक वोटर के तौर पर मेरा ये जानना जरूरी नहीं है कि चुनाव मैदान में जो पार्टियां हैं, उन्हें कौन लोग पैसा दे रहे हैं? आखिर ये कैसी पारदर्शिता है? एक बात और है. पार्टियों से 30 मई तक जानकारी देने को कहा गया है. यानी लोकसभा चुनाव 2019 खत्म होने के बाद. वोटर के लिए ये तो ऐसे ही हुआ जैसे- काफिला गुजर गया और गुबार देखते रहे.

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पूर्व जनरलों की चिट्ठी का सस्पेंस और सच

एक दूसरी खबर आई जो अब सस्पेंस बन गई है. खबर ये थी कि तीनों सेनाओं से कुल 156 पूर्व अफसरों ने राष्ट्रपति को चिट्ठी लिखी है और सेना के सियासीकरण पर ऐतराज और नाराजगी जताई है. इनमें पूर्व जनरल, एडमिरल, लेफ्टिनेंट जनरल जैसे बड़े अफसरों के नाम थे. चिट्ठी अभी सामने आई ही थी कि हल्ला हो गया-ये फर्जी है. राष्ट्रपति भवन की तरफ से भी इनकार आ गया. रक्षा मंत्री ने मना कर दिया. और तो चिट्ठी पर जिनके नाम लिखे थे, उनमें से दो लोग सामने आए और कहा कि न हमने चिट्ठी पर हस्ताक्षर नहीं किए. जब लगने लगा कि ये चिट्ठी फर्जी है तभी कुछ अफसर आए और बयान दिया. कहा कि-हां हम इस चिट्ठी का समर्थन करते हैं और हमने हस्ताक्षर भी किए हैं. तो चलिए कम से कम इतना तो पता चला गया कि ये चिट्ठी एकदम से फर्जी नहीं है. कुछ तो है...लेकिन सस्पेंस के इस शोर में क्या अहम सवाल गुम नहीं हो गया है?

देश के पीएम पुलवामा और बालाकोट के नाम पर वोट मांग रहे हैं. गोलियां सरहद पर चलती हैं और उसकी गूंज चुनावी रैलियों में हो रही है.और ये सब तब हो रहा है जब चुनाव आयोग ऐसा न करने की सलाह दे चुका है. तो ये तो साफ है कि सेना का चुनावों में सियासी फायदा उठाने के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है. क्या ऐसा होना चाहिए? सीमा पर दुश्मन की गोलियों के सामने सीना तानकर खड़े किसी जवान से पूछिए.
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डिग्री विवाद - विक्टिम कौन?

केंद्रीय मंत्री स्मृति ईरानी ने 2004 में दिल्ली से चुनाव लड़ते समय चुनाव आयोग को जो हलफनामा  दिया, उसमें बताया कि बीए हैं, ग्रेजुएट हैं. अब 2019 में अमेठी से चुनाव लड़ते वक्त जो हलफनामा दिया है, उसमें बताया कि बीकॉम फर्स्ट ईयर तक की पढ़ाई की है. माने 2004 से 2019 आते-आते न सिर्फ ग्रेजुएशन का विषय बदल गया बल्कि डिग्री ही गायब हो गई. 'क्योंकि सास भी बहू थी' नाम के फेमस सीरियल में काम कर चुकीं स्मृति पर कांग्रेस ने तंज कसा - 'क्योंकि मंत्री भी कभी ग्रेजुएट थीं.' इसपर स्मृति ने बयान दिया. बयान में इस बात का जवाब होना चाहिए था कि 2004 से 2019 आते-आते उनकी शिक्षा को लेकर तथ्य क्यों बदले? लेकिन उनके जवाब में इसका सुराग तक नहीं मिला. उन्होंने कहा -पांच साल से मेरा अपमान किया जा रहा है.

स्मृति के बयान को सुनकर लगा कि उन्हें विक्टिम बनाया जा रहा है. हो सकता है कि उन्हें गलत तरीके से निशाना बनाया जा रहा हो. लेकिन क्या ‘वो गलत है इसलिए मैं सही’ का तर्क भी कोई तर्क है? यहां विक्टिम असल में वो वोटर है जो हलफनामे को वाकई हलफनामा मानकर वोट देता है. वो उम्मीद करता है कि इसमें उम्मीदवार द्वारा कही गई बात सच होगी.
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बहुत कठिन है डगर गठबंधन की

दिल्ली में आम आदमी पार्टी और कांग्रेस के बीच गठबंधन की गुंजाइश कम होती जा रही है. कांग्रेस के दिल्ली प्रभारी पीसी चाको ने ऐलान कर दिया है कि दिल्ली में आम आदमी पार्टी से बात नहीं बनी. चाको के मुताबिक दिल्ली में समझौते को लेकर दोनों पार्टियां तैयार थीं लेकिन आम आदमी पार्टी हरियाणा, पंजाब समेत कुछ राज्यों में सीटें मांग रही है. कांग्रेस इसके लिए तैयार नहीं हुई. आम चुनावों में इस बार कांग्रेस के लिए सबसे बड़ा मुकाबला बीजेपी से है. अब देखिए कि दिल्ली में AAP-कांग्रेस के बीच करार न होने से फायदा किसको होगा? ये माना जा रहा है कि अगर दिल्ली में कांग्रेस-AAP एक हो जाती हैं तो बीजेपी के लिए सातों सीटों पर कांटे का मुकाबला खड़ा हो जाएगा. लेकिन गठबंधन की बात टूटी तो वोट बटेंगे और बीजेपी की राह आसान होगी.

गठबंधन क्यों और कैसे करते हैं इसका एक उदाहरण देख लीजिए. बिहार में पिछले लोकसभा चुनाव में बीजेपी ने 22 सीटें जीती थीं, 30 सीटों पर उसने उम्मीदवार उतारे थे. लेकिन जब इस बार जेडीयू से गठबंधन की बात आई तो सिर्फ 17 सीटों पर लड़ने के लिए सहमत हो गई. यानी उसने जीती हुई 5 सीटें छोड़ीं.

रवायत ये है कि एक हाथ से लेने के लिए दूसरे हाथ से कुछ देना भी पड़ता है. लेकिन ऐसा लगता है कि गठबंधन के मामले में कांग्रेस से इस बार कई जगह गलती हुई. बिहार में कांग्रेस और आरजेडी का तो गठबंधन है लेकिन लेफ्ट छिटक गया. झारखंड में भी यही हाल है. यूपी में एसपी-बीएसपी तो साथ हैं लेकिन कांग्रेस उनके साथ न हो पाई. पश्चिम बंगाल से लेकर केरल तक में लेफ्ट-कांग्रेस अलग हैं. तो सवाल ये है कि कांग्रेस को बिगर पिक्चर देखने के लिए क्या लोकल लेवल पर छोटे-मोटे नुकसान को नजरअंदाज नहीं करना चाहिए था? किसी शायर ने यूं नहीं कहा है-

छोटी-छोटी बातें करके बड़े कहां हो जाओगे

पतली गलियों से निकलो तो खुली सड़क पर आओगे

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