बिहार में अब तस्वीर कुछ साफ हो रही है. धार्मिक और जातीय समीकरण को केंद्र में रखकर देखा जाए तो कागज पर एनडीए और महागठबंधन के बीच मुकाबला रोचक लगता है. यह भी लगता है कि लालू यादव ने बेटे तेजस्वी को ऐसी टीम दी है जो नरेंद्र मोदी, नीतीश कुमार और रामविलास पासवान की तिकड़ी के सामने खड़ी हो सकती है. लेकिन यहां कुछ बड़े सवाल हैं, जिनका जवाब ढूंढे बगैर बिहार के इस महासंग्राम का सही विश्लेषण नहीं हो सकेगा.
पहला और बड़ा सवाल तो यही है कि क्या कागज पर धर्म और जाति जोड़ लेने से जीत सुनिश्चित हो जाती है? क्या जमीनी लड़ाई में बिखरी हुई टीम के सहारे संगठित विरोधियों को मात दी जा सकती है? सवाल यह भी है कि सामूहिक हित बड़े हैं या फिर निजी स्वार्थ? इन सवालों पर हम सिलसिलेवार तरीके से गौर करेंगे और फिर निष्कर्ष पर पहुंचने की कोशिश करेंगे.
आखिर क्यों बिहार एनडीए का मजबूत किला है?
बिहार में बीजेपी का पारंपरिक वोट बैंक सवर्ण हैं. उनके अलावा कुछ गैर यादव पिछड़ी जातियों और आदिवासियों में भी बीजेपी की पैठ रही है. बीजेपी की सहयोगी जेडीयू की ताकत नीतीश की सोशल इंजीनियरिंग की वजह से है.
नीतीश जब बिहार के मुख्यमंत्री बने तो उन्होंने अपने दो धुर विरोधियों - लालू यादव और राम विलास पासवान के जनाधार में सेंध लगाने की रणनीति तैयार की. उसी रणनीति के तहत उन्होंने पिछड़ों में अति पिछड़ा का दायरा बढ़ाया और मजबूत किया, साथ ही दलितों में महादलित का वर्गीकरण किया.
2013 में जब सियासी समीकरण बदले तो नीतीश अलग हो गए और राम विलास पासवान एनडीए में शामिल हो गए.
अब इस चुनाव में नीतीश कुमार और रामविलास पासवान दोनों एनडीए में हैं. इससे एनडीए की ताकत काफी बढ़ गई है.
अब इसके पाले में सवर्ण, अति पिछड़ी जातियां, आदिवासी, दलित और महादलित सभी शामिल हो गए हैं. यह बेहद मजबूत किलेबंदी है. 2005 के बाद बीजेपी और जेडीयू ने जब भी और जितने भी चुनाव साथ लड़े हैं उनमें उन्हें जीत मिली है.
एनडीए के वोटबैंक में सेंध लगाने का लालू दांव
लालू यादव को एनडीए की हैसियत का अंदाजा है. इसलिए इस बार उन्होंने एनडीए के खेमे में सेंध लगाने की कोशिश की है. महागठबंधन बनाया है. महागठबंधन में मुसलमान आरजेडी और कांग्रेस के साझा वोटबैंक हैं. यादव आरजेडी का समर्पित वोटर है. कांग्रेस के साथ रहने से कुछ हिस्सों में सवर्ण वोट भी महागठबंधन के साथ जुड़ता है. इतने वोटों से चुनाव लड़ तो सकते हैं, जीत नहीं सकते.
लिहाजा, लालू ने कोइरी वोट अपने साथ करने की उम्मीद में उपेंद्र कुशवाहा से करार किया. निषादों के उभरते हुए नेता मुकेश सहनी से हाथ मिलाया. नीतीश से महादलित वोट छीनने के लिए जीतनराम मांझी से समझौता किया.
इस रणनीति से अगर लालू यादव अपना वोट बैंक बचाए रखने के साथ एनडीए के वोटों में सेंध लगा लेते हैं तो मुकाबला मजेदार हो जाएगा. लेकिन क्या यह मुमकिन है? इसे समझने से पहले हमें एनडीए की रणनीति पर गौर करना होगा.
महागठबंधन के गढ़ में नीतीश संभालेंगे मोर्चा
2014 चुनाव के नतीजों को गौर से देखिएगा तो आपको बिहार दो हिस्सों में बंटा दिखेगा. एक हिस्से में वो 32 सीटें हैं, जिनमें नालंदा को छोड़कर सभी पर एनडीए का कब्जा था. दूसरी तरफ कोसी-सीमांचल और भागलपुर संभाग की वो आठ सीटें हैं, जिन पर मोदी लहर का जरा भी असर नहीं हुआ था.
सूबे के इस हिस्से में मुस्लिम आबादी काफी प्रभावी है. सीमांचल की चार सीटों पर 30 से 70 फीसदी के बीच है. यहां यादव भी बहुत मजबूत हैं. इससे मुस्लिम-यादव समीकरण काफी प्रभावी हो जाता है. मुसलमानों और हिंदुओं के बीच यादव बफर का काम करते हैं. लिहाजा, हिंदू ध्रुवीकरण नहीं हो पाता.
आप ही सोचिए कि जिस इलाके में मुस्लिम आबादी ज्यादा हो और धर्म के आधार पर हिंदू एकजुट नहीं हों, जाति आधारित बंटवारा कायम रह जाए, वहां मोदी की जीत कैसे होगी? इसलिए 2014 में यहां एनडीए बुरी तरह हारी थी.
इस बार उन नतीजों से सबक लेते हुए बीजेपी ने अररिया को छोड़ कर कोसी-सीमांचल और भागलपुर संभाग की सभी सात सीटों - किशनगंज, पूर्णिया, कटिहार, सुपौल, मधेपुरा, भागलपुर और बांका - को जेडीयू को सौंप दिया. सीधा अर्थ है कि इस हिस्से में चुनाव प्रचार नीतीश कुमार के नेतृत्व में होगा. यहां नीतीश की धर्मनिरपेक्षता का भ्रम बनाकर रखा जाएगा.
कुशवाहा प्रभाव वाली सीटों पर भी नीतीश ही करेंगे नेतृत्व
इस व्यावहारिक बंटवारे को और बेहतर तरीके से समझने के लिए नीतीश के खाते में मौजूद वाल्मीकि नगर, सीतामढ़ी, जहानाबाद और काराकाट की सीट पर भी नजर दौड़ाइए. ये वो सीटें हैं जिन पर कुशवाहा यानी कोइरी जाति प्रभावी है. इसलिए ये सभी सीटें नीतीश कुमार को सौंप दी गई हैं.
नीतीश कुर्मी जाति से ताल्लुक रखते हैं. कुर्मी और कोइरी को लव और कुश कहा जाता है. ये भाई हैं. उपेंद्र कुशवाहा के उदय से पहले नीतीश कुमार ही लव-कुश के सर्वमान्य नेता थे. बाद में लव के खिलाफ कुश को खड़ा करने का काम कुशवाहा ने किया, लेकिन बहुत ज्यादा कामयाबी अभी तक नहीं मिली है. एक धड़ा अब भी नीतीश कुमार के साथ सहानुभूति रखता है.
मतलब एनडीए ने सीटों के बंटवारे के जरिए दो लक्ष्य साधने की कोशिश की है. अपना किला बचाए रखते हुए कोसी-सीमांचल और भागलपुर संभाग के उस हिस्से में सेंध लगाने की कोशिश की है जो महागठबंधन का गढ़ है. यही नहीं बांका जैसी एक-दो सीट को छोड़ दिया जाए तो एनडीए संगठित नजर आ रही है. उसने महागठबंधन से कई हफ्ते पहले ही सीटों का बंटवारा कर लिया और अपने उम्मीदवार भी घोषित कर दिए. अब इस संगठित, सुनियोजित और हर लिहाज से ताकतवर धड़े के खिलाफ महागठबंधन की क्या स्थिति है इस पर गौर करते हैं.
आंकड़ों में वजन तो है, मगर गठबंधन एकजुट नहीं है
जब सर्वोच्च सत्ता दांव पर हो तो लड़ाई सिर्फ हौसला जुटा लेने और कागज पर आंकड़े जोड़ लेने से नहीं जीती जाती. जीत के लिए कुशल नेतृत्व, कारगर रणनीति, मजबूत संगठन और संगठित प्रयास बेहद जरूरी है. इन चारों ही मोर्चों पर गठबंधन में घनघोर अभाव है.
लालू यादव के जेल में होने की वजह से आरजेडी की कमान तेजस्वी यादव के कंधों पर है. वो युवा हैं और जोश से भरे हुए हैं, लेकिन अभी उन्हें बहुत कुछ सीखना है.
यही हाल मुकेश सहनी का है. 2015 के चुनाव में बीजेपी उन्हें हेलीकॉप्टर पर बिठाकर निषादों के बीच घुमा चुकी है. तब वो कोई चमत्कार नहीं कर सके थे. इस बार उनकी असली आजमाइश होगी. जीतन राम मांझी भी 2015 में बीजेपी के साथ थे. तब कुछ खास नहीं कर सके. इस बार आरजेडी में हैं. कितना कमाल करेंगे ये कहना मुश्किल है. तीसरे सहयोगी उपेंद्र कुशवाहा खुद इतने ज्यादा डरे हुए हैं कि दो सीटों से लड़ रहे हैं.
इन सबके बीच कहां खड़ी है कांग्रेस?
सबसे खराब स्थिति तो कांग्रेस की है. कांग्रेस के पास नाम वाले बहुत हैं. लेकिन उनके बीच घनघोर लड़ाई है. औरंगाबाद से निखिल कुमार और दरभंगा से कीर्ति आजाद की सीट गंवा देने की वजह से कांग्रेस का एक बड़ा धड़ा स्थानीय नेतृत्व और केंद्रीय प्रतिनिधियों से नाराज है. कांग्रेस प्रभारी अखिलेश प्रसाद सिंह के बेटे अक्षय प्रसाद सिंह को उपेंद्र कुशवाहा की पार्टी ने पूर्वी चंपारण से टिकट दिया है. इस फैसले ने भी कांग्रेस में भितरघात की आशंका बढ़ा दी है. मतलब महागठबंधन के जितने भी बड़े नेता हैं वो खुद से आगे सोच ही नहीं पा रहे.
सारी परिस्थितियों पर गौर करने के बाद अब आखिरी सवाल. जब नेतृत्व निजी स्वार्थों में लिप्त हो, बिखरी हुई टीम हो और कारगर रणनीति का अभाव हो तो फिर किस बुनियाद पर लड़ाई जीती जा सकती है?
ऐसा एक ही हालत में हो सकता है. जब सत्ता पक्ष के खिलाफ जनता खड़ी हो जाए. इस चुनाव में यही देखना है कि नरेंद्र मोदी और नीतीश कुमार के खिलाफ जनता खड़ी है या नहीं?
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