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चुनाव 2019: लालू इस बार खबरों में तो हैं, लेकिन नजर में नहीं

4 दशकों में यह पहला मौका है, जब लालू प्रसाद किसी चुनाव में प्रत्यक्ष भूमिका नहीं निभा रहे

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वक्त 1998 के आम चुनाव का था. उस वक्त कई राजनीतिक विश्लेषकों के मुताबिक, चारा घोटाले की वजह से बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री लालू प्रसाद की लोकप्रियता कम हुई और कहा जा रहा था कि जल्द ही सत्ता उनके हाथों से निकल जाएगी.

जबाव में लालू प्रसाद घूम-घूम कर कहते थे कि अगले 20 वर्षों तक बिहार की राजनीति से उन्हें कोई बेदखल नहीं कर सकता. उनका पसंदीदा नारा था, "जब तक रहेगा समोसे में आलू, तब तक बिहार में रहेगा लालू."

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करीब 20 वर्षों के बाद समोसे में तो आलू है, लेकिन पहली बार बिहार में चुनाव के दौरान लालू प्रसाद नहीं हैं. करीब 4 दशकों में यह पहला मौका है, जब लालू प्रसाद किसी चुनाव में प्रत्यक्ष भूमिका नहीं निभा रहे हैं. भले ही लालू खबरों में हैं, नजर से दूर हैं. इस बार न तो लालू किसी रैली में जा पा रहे हैं और न ही कोई अभियान चला पा रहे हैं. 

साथ ही, चुनाव के दौरान राष्ट्रीय जनता दल सुप्रीमो जमीनी हालात से भी रूबरू नहीं हो पा रहे हैं. बिहार के चुनाव और आरजेडी में उनकी कमी साफ खल रही है.

चारा घोटाले के अलग-अलग मामलों में सजायाफ्ता लालू इस वक्त रांची के एक अस्पताल के एक कमरे तक सीमित हो गए हैं. बीते दिनों सुप्रीम कोर्ट ने भी उनकी जमानत की अपील खारिज कर दी.

आरजेडी के उपाध्यक्ष शिवानंद तिवारी ने कहा, "हमें उम्मीद थी कि उन्हें जमानत मिल जाएगी, लेकिन ऐसा नहीं हुआ. तेजस्वी एक योग्य नेता हैं. उनके नेतृत्व में पार्टी ने 2018 में उप-चुनाव में जीत हासिल की थी. लेकिन लालू जी की जगह कोई नहीं ले सकता है. जनता इस बात को समझती है और इस बार चुनाव में इसका जबाव भी देगी."

वैसे तो लालू प्रसाद के राजनीतिक सफर की शुरुआत 1977 से हुई थी, जब “जनता लहर” पर सवार होकर वे छपरा के रास्ते लोकसभा पहुंचे थे. हालांकि 1990 में बिहार का मुख्यमंत्री बनने के बाद लालू प्रसाद ने पीछे मुड़कर नहीं देखा. मंडल कमीशन के बाद उन्होंने खुद को बिहार की सियासत में मजबूती से स्थापित कर दिया. उसके बाद तो बिहार में चुनाव चाहे विधानसभा का हो या लोकसभा का, एजेंडा लालू प्रसाद ही सेट करते थे. चुनाव में मुद्दा यही होता था कि क्या उम्मीदवार लालू के साथ है या खिलाफ.

उनके विरोधियों ने उन पर बिहार को रसातल में ले जाने का आरोप लगाया, तो जबाव में लालू ने अपने विरोधिय़ों को तरह-तरह के नामों से नवाजा. मिसाल के तौर पर लोक जनशक्ति पार्टी के मुखिया रामविलास पासवान ने लालू प्रसाद से 2014 के चुनाव के ऐन पहले संबंध तोड़ लिया, तो आरजेडी सुप्रीमो ने पासवान को "मौसम वैज्ञानिक" करार दिया.

इसी तरह मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को भी लालू प्रसाद ने "पेट में दांत होने" से लेकर "पलटूराम" तक की उपमा से नवाजा है. वहीं, खुद को लालू "पिछड़ी जातियों का सिल्वर बुलेट" भी कहते थे.

साथ ही, 2015 बिहार विधानसभा के चुनाव के दौरान लालू की रैलियों में उनकी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की मिमिकरी से जनता लोट-पोट होकर रह जाती. देखने में ये हल्की-फुल्की बातें लगें, लेकिन विश्लेषकों की मानें तो इनके जरिये लालू प्रसाद अपने गंभीर राजनैतिक संदेश को जनता तक आसानी से पहुंचा देते थे.

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राजनीतिक विश्लेषकों के मुताबिक, लालू प्रसाद के सलाखों के पीछे होने से आरजेडी को फायदा और नुकसान दोनों होगा. फायदे की बात करें, तो पार्टी नेताओं के मुताबिक इससे मुस्लिम और यादव मतदाताओं का साथ मिलेगा और आरजेडी के पुराने माय (मुस्लिम-यादव) फॉर्मूले को पुनर्जीवित करने में मदद मिलेगी.

पार्टी नेताओं के मुताबिक लालू प्रसाद के जेल जाने से यादव बिरादरी आरजेडी के पीछे एकजुट हुई है. उनका कहना है कि भ्रष्टाचार में तो कई नेता लिप्त हैं, लेकिन जेल सिर्फ लालू को क्यों हुई? बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री जगन्नाथ मिश्रा इलाज को बाहर हैं, तो क्यों सीबीआई बीमार लालू प्रसाद की जमानत की याचिका पर सवाल खड़े करती है?

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साथ ही, कांग्रेस के साथ होने से पार्टी को मुस्लिम मतदाताओं के समर्थन की भी पूरी उम्मीद है.

“इन दोनों समुदायों के पास बिहार में करीब 30-31 फीसदी वोट हैं. साथ ही, इनके पास दूसरे समुदायों के वोटरों को भी प्रभावित करने की क्षमता है. ‘माय’ समीकरण के बूते लालू जी ने करीब 15 वर्षों तक बिहार पर शासन किया. लालू जी के जेल जाने के बाद जनता केंद्र की मोदी सरकार को सबक जरूर सिखाएगी.”
आरजेडी के एक वरिष्ठ नेता

पार्टी के नेता स्थानीय स्तर पर यह बात भी कह रहे हैं कि अगर केंद्र में महागठबंधन की सरकार बनेगी, तो लालू के लिए राह आसान होगी.

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हालांकि, आरजेडी को लालू प्रसाद के जेल में रहने का नुकसान भी उठाना पड़ रहा है. लालू के जेल जाने के बाद खुद उनके परिवार में एकजुटता नहीं है. लालू के दोनों बेटों के बीच पार्टी की कमान को लेकर संघर्ष तेज हो गया है.

तेजप्रताप यादव ने खुलकर अपने छोटे भाई तेजस्वी यादव के खिलाफ मोर्चा खोल दिया है. साथ ही, जहानाबाद और शिवहर में तो पार्टी के आधिकारिक उम्मीदवारों के खिलाफ अपने लोगों को मैदान में उतार दिया है और उनके लिए खुलकर प्रचार भी शुरू कर दिया है. वहीं, लालू प्रसाद की बड़ी बेटी डॉ. मीसा भारती भी परिवार से नाराज बताई जा रही हैं.

इसके अलावा, महागठबंधन के प्रचार अभियान में भी वैसी तारतम्यता नहीं दिखती, जितनी 2015 के विधानसभा चुनाव में थी. उस वक्त लालू ने खुद धुंआधार प्रचार किया था, लेकिन पिछड़ी जातियों के दूसरे नेताओं को भी बड़े ही रणनीतिक तरीके से प्रचार मे उतारा था. 2019 के आम चुनाव में तेजस्वी यादव और उनकी मां राबड़ी देवी प्रचार तो कर रही हैं, लेकिन दूसरी पंक्ति के नेता या तो अपने-अपने क्षेत्रों मे सीमित हैं या फिर पार्टी दफ्तरों में.
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महागठबंधन के घटक दलों के बीच भी को-ऑडिनेशन का अभाव साफ दिखाई दे रहा है. मिसाल के तौर पर 2015 में आरएसएस के मुखिया मोहन भागवत के एक बयान पर उन्होंने पूरे पिछड़े समुदाय को एकजुट कर दिया था और बीजेपी को इसकी बड़ी कीमत चुकानी पड़ी थी. केंद्र सरकार के अगड़ी जातियों को 10 फीसदी आरक्षण देने के बाद भी महागठबंधन में इस बारे में एकराय नहीं है.

लालू प्रसाद के करीबी रहे एक नेता ने कहा, "यह चुनाव जितना लालू प्रसाद के भविष्य का है, उतना ही ये उनके उत्तराधिकारी तेजस्वी यादव का भी है. यह चुनाव तय करेगा कि पार्टी में तेजस्वी यादव का कद कितना बड़ा होगा."

(निहारिका पटना की जर्नलिस्‍ट हैं. इस आर्टिकल में छपे विचार उनके अपने हैं. इसमें क्‍व‍िंट की सहमति होना जरूरी नहीं है.)

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