उत्तर प्रदेश में लोकसभा चुनाव समाप्त होते-होते एक बात तो स्पष्ट हो चुकी है कि भारतीय जनता पार्टी के लिए स्थिति पिछले लोकसभा चुनाव जैसी 'एकतरफा' नहीं है. पश्चिमी यूपी की सहारनपुर सीट से लेकर पूर्वी यूपी की गोरखपुर सीट तक पर बीजेपी, एसपी-बीएसपी के उम्मीदवारों से जूझती नजर आ रही है. इसके पीछे कहीं न कहीं एसपी और बीएसपी की सोशल इंजीनियरिंग ही है, जिसके कारण दलित, मुस्लिम और ओबीसी वोटों का बड़ा बिखराव थमा है.
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बीएसपी ने पश्चिमी यूपी में भले ही ब्राह्मण प्रत्याशियों से दूरी बनाई, लेकिन पूरब में मायावती ने ब्राह्मणों को अपनी सोशल इंजीनियरिंग का हिस्सा बनाया. इसका परिणाम सीतापुर, प्रतापगढ़, अंबेडकरनगर और संत कबीरनगर जैसी सीटों पर देखने को मिल रहा है.
दलित-मुस्लिम फैक्टर ने बिगाड़ा बीजेपी का खेल
पिछले लोकसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी ने अलग-अलग चुनाव लड़ा था. दलित जहां बीएसपी का काडर वोट माना जाता है, वहीं मुस्लिम वोटरों का रुझान पिछले दो दशक से सपा के साथ रहा है.
'नवभारत टाइम्स' के पॉलिटिकल एडीटर नदीम कहते हैं कि यूपी में 18 फीसदी मुस्लिम और 21 फीसदी दलित एक बड़ा बेस वोट है. पिछले चुनाव में इन दोनों ने अलग-अलग वोट किया था, जिसका फायदा बीजेपी को मिला. जबकि इस चुनाव में एसपी और बीएसपी का गठबंधन होने के कारण इस 40 फीसदी वोट का एक बड़ा हिस्सा गठबंधन के साथ दिख रहा है.
वरिष्ठ पत्रकार अंबरीश कुमार कहते हैं कि एसपी और बीएसपी की राजनीति दलित, बैकवर्ड और मुस्लिम वोटरों की है. इस चुनाव में इनके एकसाथ मिलने से दो और दो चार भले ही न हो पाए, लेकिन दो और दो मिलकर तीन तो हो ही सकता है. यही कारण है कि गठबंधन के उम्मीदवार लगभग हर सीट पर बीजेपी उम्मीदवारों के लिए मुसीबत साबित हो रहे हैं.
जानकार बताते हैं कि एसपी-बीएसपी के गठबंधन का नुकसान बीजेपी से अधिक कांग्रेस को उठाना पड़ रहा है. कई सीटों पर मुस्लिम मतदाता कांग्रेस की बजाए गठबंधन को इसलिए भी वोट कर रहे हैं कि दलित और यादवों के साथ वोट करके बीजेपी को रोका जा सकता है.
गठबंधन के साथ ही बीजेपी को पश्चिम से लेकर पूरब तक कई सीटों पर अपनों से ही भितरघात का सामना करना पड़ रहा है. अलीगढ़, आगरा, बदायूं, संतकबीरनगर सहित कई ऐसी सीटें हैं, जहां गठबंधन से अधिक बीजेपी को अपनों से ही खतरा बना है. पिछले चुनाव में जीते कई बीजेपी सांसदों को लेकर उनके क्षेत्र में ही आक्रोश है.
जौनपुर, बाराबंकी, सुल्तानपुर, प्रतापगढ़ और लालगंज जैसी सीटों पर बीजेपी को इस दिक्कत का सामना करना पड़ रहा है कि जीतने के बाद उसके सांसदों का कार्य एक वर्ग विशेष या एक सीमित क्षेत्र तक ही सिमटकर रह गया था. इसके चलते वोटरों का एक बड़ा हिस्सा नाराज है.
वोट ट्रांसफर हो, इसके लिए हर जतन कर रहा गठबंधन
गठबंधन के सामने चुनाव के समय सबसे बड़ी चुनौती ये थी कि एसपी का वोट बीएसपी को और बीएसपी का वोट एसपी के उम्मीदवारों को आसानी से मिल सके. पूर्व सीएम मायावती और अखिलेश यादव ने अपने-अपने वोटरों को हर मंच से ये बताने का प्रयास किया कि वे एक-दूसरे का सम्मान करते हैं. कन्नौज की सभा में डिंपल यादव मायावती के पैर छूकर आशीर्वाद लेती हैं, तो मैनपुरी की सभा में मायावती के भतीजे आकाश मुलायम सिंह यादव का आशीर्वाद लेना नहीं भूलते.
हजारों की भीड़ के सामने खुद अखिलेश यादव आकाश को मुलायम सिंह के पास ले जाकर परिचय कराते हैं. इसी सभा में मुलायम सिंह यादव चलकर मायावती के पास तक जाने में जब दिक्कत महसूस करते हैं, तो मायावती खुद उठकर मुलायम सिंह यादव के पास तक आती हैं.
इतना ही नहीं आजमगढ़ की सभा में मायावती ने अपने वोटरों से यहां तक कहा कि मानिये ये चुनाव अखिलेश यादव नहीं, वे खुद लड़ रही हैं. रैलियों की ये चंद तस्वीरें वोटरों को बस यह समझाने के लिए थीं कि गठबंधन के नेता एक-दूसरे का बखूबी सम्मान करते हैं और वोटरों को भी इसका ध्यान रखना चाहिए.
बाहुबलियों से परहेज नहीं
अखिलेश हों चाहे मायावती, दोनों ही नेताओं ने पुरानी बातों को भुलाते हुए हर उस उम्मीदवार पर दांव लगाया है, जो बीजेपी का रास्ता रोकने की ताकत रखता हो. यदि बात करें अमेठी से सटी सुल्तानपुर लोकसभा की, तो यहां से बीएसपी ने सोनू सिंह को मैदान में उतारा है.
2010 में सोनू सिंह बीएसपी से विधायक थे. उसी साल पंचायत चुनाव के दौरान राम कुमार यादव नाम के एक राजस्व अधिकारी की हत्या हो जाती है, जिसमें सोनू सिंह आरोपी बनाए जाते हैं. हत्या का आरोप लगने के तुरंत बाद मायावती ने सोनू सिंह को पार्टी से निकाल दिया था. लेकिन इस लोकसभा चुनाव में मायावती ने सोनू सिंह को टिकट ही नहीं दिया, बल्कि उनके पक्ष में प्रचार करने सुल्तानपुर भी गई.
इसी तरह अखिलेश यादव ने भी पिछले विधानसभा चुनाव में मुख्तार अंसारी की पार्टी का एसपी में विलय कराने से मना कर दिया था. इसके बावजूद अखिलेश यादव के चाचा शिवपाल यादव ने प्रेस कॉन्फ्रेंस कर जब मुख्तार की पार्टी के विलय को हरी झंडी दी, तो पारिवारिक विवाद शुरू हो गया था. बात इतनी बढ़ गई थी कि शिवपाल यादव को अलग राह चुननी पड़ी. दो साल में ही इन पुरानी बातों को भूलते हुए अखिलेश यादव ने मुख्तार के भाई अफजाल अंसारी के लिए गाजीपुर में रैली कर वोट मांगा.
'असली बैकवर्ड' और 'नकली बैकवर्ड' तक पहुंची सियासत
पुलवामा, पाकिस्तान, सर्जिकल स्टाइक से होते हुए यूपी की राजनीति 'असली बैकवर्ड' और 'नकली बैकवर्ड' तक पहुंच गई है. मैनपुरी की रैली में मायावती ने मुलायम सिंह यादव की मौजूदगी में कहा कि पीएम नरेन्द्र मोदी महज कागजों में पिछड़े हैं, असली पिछड़ा तो अखिलेश यादव हैं.
मायावती के इस बयान के चंद रोज बाद ही डिंपल यादव के संसदीय क्षेत्र कन्नौज में पीएम मोदी ने खुद को अति पिछड़ा बता दिया था. कन्नौज के बाद अयोध्या हो चाहे आजमगढ़, मोदी अपनी ज्यादातर रैलियों में अपने को पिछड़ा बताना नहीं भूलते हैं.
पिछड़ों की राजनीति पर पीएम को जवाब देने का जिम्मा मायावती ने संभाला. मायावती ने आक्रामक रुख अपनाते हुए मोदी को 'नकली पिछड़ा' तक बता दिया. जानकार बताते हैं कि मोदी को लेकर मायावती यूं ही नहीं आक्रामक हुई हैं. दरअसल पांचवें, छठे और सातवें चरण में जिन सीटों के लिए चुनाव हो गया या होना है, उनमें पिछड़ी जातियां निर्णायक भूमिका निभाती हैं.
मायावती को इस बात की चिंता है कि जिस तरह पिछले लोकसभा चुनाव में दलित वोटों में बीजेपी ने सेंधमारी की थी, उसी तरह पूर्वी यूपी की इन सीटों पर बीजेपी अगर पिछड़ों में सेंधमारी कर देती है, तो गठबंधन को नुकसान उठाना पड़ सकता है.
'दलित दस्तक' मैगजीन के संपादक अशोक दास कहते हैं कि अपर कास्ट अगर अपना पूरा वोट बीजेपी को दे दे, तो भी उसके उम्मीदवार जीत नहीं हासिल कर सकते हैं. लिहाजा दलित और पिछड़े वर्ग के वोटों में सेंधमारी करके ही बीजेपी जीतने का प्रयास करती है. यही कारण है कि जिस पूर्वी यूपी में पिछड़े निर्णायक भूमिका मे हैं, वहां पीएम मोदी खुद को भी पिछड़ा बता रहे हैं. ऐसा बताकर पीएम नॉन यादव वोटरों को अपने पक्ष में लाना चाहते हैं.
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