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चुनाव 2019: यूपी की इन 17 रिजर्व सीटों ने बढ़ाई BJP की टेंशन

जानिए- रिजर्व सीटों पर एसपी-बीएसपी गठबंधन कितना मजबूत?

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उत्तर प्रदेश के दलित किस तरफ जा सकते हैं? पहले इसका आसान जवाब था ‘सिर्फ’ मायावती. लेकिन 2014 के लोकसभा और 2017 के विधानसभा चुनाव में मायावती हाथ मलती रह गईं और दलितों और पिछड़ों के वोट का बड़ा हिस्सा बीजेपी ने हथिया लिया. लेकिन लोकसभा चुनाव 2019 के लिए मायावती और अखिलेश का गठबंधन राज्य की 17 रिजर्व सीटों के साथ कई ऐसी सीटों पर मजबूत स्थिति में पहुंच गया है जहां दलित वोटर जीत या हार का फैसला करते हैं.

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सीटें जो बिगाड़ सकती हैं खेल

उत्तर प्रदेश की कुल 80 में से 17 लोकसभा सीटें रिजर्व हैं. इनमें नगीना, बुलंदशहर, हाथरस, आगरा, इटावा, शाहजहांपुर, हरदोई, मिश्रिख,, मोहनलालगंज, जालौन, कौशांबी, बाराबंकी, बहराइच, बांसगांव, लालगंज, मछलीशहर और रॉबर्ट्सगंज शामिल हैं.

इन 17 आरक्षित सीटों में से चार, नगीना, बुलंदशहर, हाथरस और आगरा, पश्चिमी यूपी में आती हैं. 2014 में ये सारी सीटें बीजेपी के पास थीं. लेकिन एसपी-बीएसपी गठबंधन के बाद तस्वीर बदली -बदली नजर आ रही है. ज्यादातर सीटों में एसपी और बीएसपी के वोट मिलकर बीजेपी को मिले उम्मीदवार से ज्यादा हैं.

पश्चिमी यूपी में दलितों की आबादी

उत्तर प्रदेश में करीब 21 फीसदी दलित आबादी है. आजादी के बाद से दलित वोटों पर कांग्रेस का सबसे ज्यादा प्रभाव था, लेकिन बीएसपी के गठन के साथ ही यह वर्ग उस ओर मुड़ गया. पिछले कुछ सालों में इस वर्ग पर बीएसपी की पकड़ ढीली हुई है.

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BSP ने कोर वोटबैंक बचा लिया तो BJP की दिक्कतें बढ़ेंगी?

पश्चिमी यूपी को बीएसपी का गढ़ माना जाता रहा है. दलित और मुस्लिमों के मेल से बीएसपी यहां सियासी तौर पर अव्वल रहती रही है. साल 2015 में पश्चिमी उत्तर प्रदेश में गठित हुए दलित युवाओं के संगठन भीम आर्मी ने बीएसपी की चिंता जरूर बढ़ाई है. लेकिन इस खतरे को भांपकर मायावती पहले ही दलितों को सहेजे रखने के लिए समय-समय पर दलित हितैषी संदेश देती रही हैं.

मायावती इस बात पर हमेशा जोर देती रही हैं, कि बीएसपी ही दलितों के लिए संघर्ष करने वाली असली पार्टी है. समय-समय पर वह समाज को इसका एहसास भी कराती रहीं हैं. सहारनपुर हिंसा के बाद राज्यसभा की सदस्यता से इस्तीफा देना इसी संदेश का हिस्सा है. इसके अलावा वह हिंसा से प्रभावित गांव शबीरपुर भी पहुंची थी. मायावती हर मौके पर दलित उत्पीड़न के आरोप केंद्र की मोदी सरकार और प्रदेश की योगी सरकार पर लगाकर दलितों की हमदर्द दिखने की कोशिश करती रही हैं.

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2019 चुनाव में भीम आर्मी की भूमिका

पश्चिमी यूपी में भीम आर्मी ने ठीक-ठाक पैठ बना ली है. इसके अलावा वह दिल्ली में आंदोलन और रैलियां कर अपनी ताकत दिखाती रही है. लेकिन उनकी राजनीतिक मंशा का कोई अता-पता नहीं है. कई मौकों पर भीम आर्मी के प्रमुख बीएसपी प्रमुख मायावती को 'बुआ' कहकर करीब आने और बीएसपी का समर्थन करने की बात कहते रहे हैं, लेकिन मायावती ने उन्हें कोई भाव नहीं दिया. कई मौकों पर तो उन्होंने सार्वजनिक तौर पर भीम आर्मी के प्रमुख चंद्रशेखर को चेतावनी तक दे डाली.

हाल ही में कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी ने मेरठ जाकर अस्पताल में भर्ती चंद्रशेखऱ से मुलाकात की थी. ऐसे में कयास लगाए जा रहे थे कि भीम आर्मी कांग्रेस का समर्थन कर सकती है. लेकिन अगले ही दिन भीम आर्मी की ओर से बयान आया कि कांग्रेस से उनका कोई लेना देना नहीं है.

अब खबर ये है कि भीम आर्मी के प्रमुख चंद्रशेखर रावण वाराणसी से ताल ठोकेंगे. लेकिन फिलहाल, चुनावी जमीन पर इसके लिए भीम आर्मी की कोई नीति या रणनीति तय नजर नहीं आ रही है.

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क्या बीजेपी की कोशिशें हो पाएंगी कामयाब?

साल 2014 में यूपी में बड़ी जीत हासिल करने के बाद बीजेपी ने दलितों और पिछड़ों का दिल जीतने के लिए बाबा साहब भीमराव अंबेडकर के नाम पर बड़े-बड़े आयोजन किए. भीम ऐप शुूरू हुआ, दलितों के घर खाना खाने का कार्यक्रम चलाया गया. दलित सम्मेलन हुए. यहां तक कि कुंभ में पीएम मोदी सफाई कर्मियों के पैर धोते हुए भी नजर आए.

कुल मिलाकर बीजेपी ने दलितों को साधने में कोई कोरकसर नहीं छोड़ी है. लेकिन अब देखना ये है कि दलित वोट बैंक को साधने की बीजेपी की कोशिशें कितनी कामयाब होती हैं और दलित वोटर बीजेपी की इन कोशिशों से कितना जुड़ाव महसूस करते हैं.

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