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Gujarat Chunav 2022: बीजेपी की 'मोदी लहर' सौराष्ट्र में क्यों कमजोर पड़ जाती है?

PM मोदी और राहुल गांधी, दोनों ही सौराष्ट्र में 21 नवंबर को चुनाव प्रचार में जुटे हुए थे.

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सौराष्ट्र क्षेत्र में गुजरात विधानसभा की 182 में से 48 सीटे आती हैं. मध्य गुजरात (61 सीटें) के बाद यह सीटों के नजरिए से प्रदेश का दूसरा सबसे बड़ा क्षेत्र है. इस क्षेत्र की अपनी अलग विशिष्ट संस्कृति, बोली और राजनीतिक मिजाज है. उदाहरण के लिए यह उन क्षेत्रों में से एक था जहां भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) उस समय पर जमीनी पकड़ खो रही थी जब प्रदेश और राष्ट्रीय स्तर पर मोदी का कद और पावर बढ़ रहा था. बीजेपी की सत्ता के दौरान दक्षिण गुजरात और मध्य गुजरात में पार्टी (बीजेपी) का दबदबा बढ़ा था, लेकिन सौराष्ट्र क्षेत्र की स्थिति इनसे (मध्य और दक्षिण गुजरात से) उलट थी.

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इस लेख में हम इन सवालों के जवाब देने की कोशिश करेंगे :-

  • ऐसी कौन सी बात है जो सौराष्ट्र को राजनीतिक रूप से अलग बनाती है?

  • 2022 के विधानसभा चुनाव में किस तरह के मतदान की संभावना है?

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मोदी सरकार के दौरान, BJP गुजरात के बाकी हिस्सों में तो बढ़ी लेकिन सौराष्ट्र में स्थिर रही

सही मायने में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने 2002 में सौराष्ट्र क्षेत्र की ही राजकोट-2 सीट से अपना पहला चुनाव जीता था.

यह 2002 के गुजरात दंगों से ठीक पहले की बात है.

मोदी कार्यकाल के शुरुआत में ही पार्टी को शर्मिंदगी का सामना करना पड़ा था, क्योंकि जिन दो सीटों (मध्य गुजरात की सयाजीगंज और दक्षिण गुजरात की महुवा सीट) में उपचुनाव हुआ था, वहां दोनों में ही बीजेपी को कांग्रेस के हाथों शिकस्त मिली थी.

इसके बाद दंगे हुए और पूरे गुजरात का राजनीतिक परिदृश्य बदल गया. बीजेपी ने दंगों से सबसे ज्यादा प्रभावित क्षेत्र शहरी मध्य गुजरात में अभूतपूर्व पकड़ बना ली.

मोदी ने भी अपना पॉलिटिकल ग्राउंड बदल लिया, वे सौराष्ट्र के राजकोट से अहमदाबाद के नजदीक मणिनगर में शिफ्ट हो गये. यह एक अहम फैक्टर था जिससे यह देखने को मिला कि बीजेपी मध्य गुजरात में तो खूब फली-फूली लेकिन सौराष्ट्र क्षेत्र में जादू नहीं चला पाई.

2002 के चुनावों में बीजेपी को पूरे गुजरात में फायदा हुआ, लेकिन 1995 के परिणामों की तुलना में सौराष्ट्र में पार्टी की 11 सीटें कम हो गईं. वहीं भले अन्य क्षेत्रों में कांग्रेस की पकड़ कमजोर हो गई हो लेकिन इस क्षेत्र में उसने 10 सीटों का इजाफा किया.

2007 में सौराष्ट्र क्षेत्र का चुनावी परिणाम लगभग 2002 की तरह ही था. 2007 के चुनाव में जहां सौरा‌ष्ट्र में बीजेपी को एक सीट का फायदा हुआ वहीं कांग्रेस को एक सीट का नुकसान हुआ.

लेकिन 2012 के चुनाव में एक बार फिर सौराष्ट्र में बीजेपी की सीटों में थोड़ी कमी आई वहीं कांग्रेस और अन्य को फायदा हुआ.

2017 के चुनाव में बीजेपी के लिए सौराष्ट्र क्षेत्र का परिणाम किसी झटके से कम नहीं था. तीन दशकों में यह पहला मौका था जब यहां बीजेपी की सीटें कांग्रेस से नीचे रह गईं.

सौराष्ट्र को क्या अलग बनाता है? 3 फैक्टर

1. जाति VS सम्प्रदाय

सौराष्ट्र के राजनीतिक परिदृश्य में जाति विभाजन की केंद्रीयता है. यह अहम फैक्टर है जो सौराष्ट्र को अलग बनाता है. इसकी वजह से बीजेपी यहां क्रॉस-कास्ट हिंदू एकीकरण (हिंदुओं की घेराबंदी) नहीं कर पायी है, जबकि गुजरात के अन्य हिस्सों में पार्टी यह करने में सफल रही.

2002 के गुजरात दंगों के बाद भी सौराष्ट्र में घेराबंदी नहीं हो पायी. सही मायने में तुलनात्मक रूप से सौराष्ट्र हिंसा से कम प्रभावित था.

पाटीदार, क्षत्रिय और अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) में शामिल विभिन्न जातियों जैसे कोली, मेर और वाघेर आदि सौराष्ट्र के राजनीतिक परिदृश्य पर हावी हैं.

सौराष्ट्र में जातिगत वर्चस्व काफी मजबूत है. इस वजह से यहां दलितों के खिलाफ हिंसा भी अधिक हाेती है. उना में पिटाई की जो घटना हुई थी, वह सौराष्ट्र के गिर-सोमनाथ जिले की थी.

बीजेपी और कांग्रेस दोनों ही, चुनाव के दौरान क्षेत्र में अलग-अलग जातियों के समूहों के बीच संतुलन बनाने की कोशिश करते हैं. कुछ सीटों पर दोनों ही पार्टियां उस जाति समूह के उम्मीदवार को चुनावी रण में उतारती हैं, जिस जाति का उस क्षेत्र में दबदबा हो. उदाहरण के लिए पोरबंदर में चुनावी जंग मुख्य रूप से मेर समुदाय के उम्मीदवारों के बीच रही है.

सौराष्ट्र क्षेत्र में बीजेपी के ठहराव और सीटों की कमी की एक अहम वजह केशुभाई पटेल को दरकिनार करना रही है. वे इस क्षेत्र के सबसे कद्दावर पाटीदार नेता थे.

2. ग्रामीणों की ज्यादा आबादी

गुजरात भारत के सबसे शहरीकृत राज्यों में से एक है. 2011 की जनगणना के अनुसार, गुजरात की लगभग 43 प्रतिशत आबादी शहरी क्षेत्रों में रहती है. लेकिन सौराष्ट्र में, राजकोट, पोरबंदर, जामनगर और भावनगर जैसे कुछ शहरी क्षेत्रों को छोड़कर अधिकांश क्षेत्र ग्रामीण हैं.

इस वजह से, यह क्षेत्र उस तरह के शहरी राजनीतिक दबदबे के लिए अनुकूल नहीं है, जिसे मोदी और अमित शाह के नेतृत्व में बीजेपी ने 2000 और 2010 के दशक में हासिल किया. उसी दबदबे की वजह से कई शहरी सीटों पर पार्टी को भारी अंतर से जीत मिली थी.

कृषि संकट भी काफी है. इस क्षेत्र की प्रमुख फसल कपास है, इस फसल को उगाने वाले किसानों पर काफी संकट है.

पाटीदार आंदोलन के पीछे की मुख्य वजह काफी हद तक कृषि संकट और युवाओं के लिए नौकरियों की कमी थी.

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3. मजबूत स्थानीय नेता

सौराष्ट्र की राजनीति भी अत्यधिक स्थानीय है. पार्टियों से इतर भी कुछ नेताओं का बोलबाला है.

मोदी के कार्यकाल में, सौराष्ट्र में अपने प्रभाव को बनाए रखने के लिए बीजेपी ने बड़े पैमाने पर कांग्रेस के मजबूत स्थानीय नेताओं के साथ-साथ निर्दलीय नेताओं के प्रवेश पर भी भरोसा किया है.

उदाहरण के लिए, द्वारका निर्वाचन क्षेत्र में 1990 के बाद से पबुभा विरंभ मानेक अपराजेय रहे हैं. बतौर निदर्लीय प्रत्याशी पहले तीन चुनाव जीतने वाले मानेक ने 2002 में कांग्रेस की टिकट पर जीत दर्ज की थी और 2007 के चुनावों से ठीक पहले वे बीजेपी में चले गए. तब से वे बीजेपी में ही हैं.

एक अन्य मजबूत स्थानीय नेता धोराजी के एक प्रमुख पाटीदार नेता विठ्ठल रडाडिया थे, जो बीजेपी से कांग्रेस में चले गए थे.

जसदण से कांग्रेस विधायक कुंवरजी बावलिया को हाल ही में बीजेपी ने अपने पाले में कर लिया. 2017 के बाद से सौराष्ट्र के कम से कम नौ कांग्रेस विधायकों ने इस्तीफा दे दिया और बीजेपी का दामन थाम लिया.

इस चुनाव में क्या हो सकता है?

यहां कई एक्स-फैक्टर हैं.

1. 'जाति' लहर का स्पष्ट तौर पर अभाव

2017 के चुनाव में कोटे को लेकर हुआ पाटीदार आंदोलन, इसके जवाब में हुआ ओबीसी आंदोलन और उना में दलितों की पिटाई का मामला छाया रहा था. इन तीनों मुद्दों से अंतत: कांग्रेस को फायदा हुआ और बीजेपी को नुकसान.

इस बार ऐसी कोई 'लहर' नहीं है, जिससे चुनाव काफी हद तक स्थानीय हो सकता है. इस स्थिति में उम्मीदवार का चयन मायने रखेगा.

2. मोरबी की घटना

इस बार चुनाव अभियान शुरू होने के ठीक पहले मोरबी पुल हादसा देखने मिला था. इस भयंकर आपदा में इस क्षेत्र में कम से कम 135 लोगों की जान चली गई.

भले ही अभी भी लोगों के दिमाग में यह घटना घूम रही हो, लेकिन यह स्पष्ट नहीं है कि यह एक निर्णायक मुद्दा बनेगा है या नहीं.

पिछली बार, मोरबी जिले में बीजेपी का प्रदर्शन खराब था, लेकिन बाद में दलबदल के माध्यम से पार्टी से इसे बेहतर किया. मोरबी के विधायक बृजेश मेरजा खुद कांग्रेस छोड़कर बीजेपी में शामिल हो गए और उन्हें मंत्री भी बना दिया गया.

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3. दलबदलू

हालांकि यह देखना बाकी है कि इस चुनाव में कांग्रेस से बीजेपी में जाने वाले दलबदलुओं का प्रदर्शन कैसे होगा. क्या वे अपनी नई पार्टी को फायदा पहुंचा पाएंगे या उनकी वजह से बीजेपी समर्थकों में और कड़वाहट आएगी?

दलबदल को लेकर कांग्रेस उम्मीदवारों के संबंध में असमंजस की स्थिति रहती है. क्योंकि एक डर यह बना रहता है कि इनमें अगर कुछ जीत गए तो वह बाद में पार्टी बदल सकते हैं.

4. आप (AAP)

इसुदान गढ़वी, आम आदमी पार्टी की ओर से मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार हैं. गढ़वी सौराष्ट्र की खंबलिया सीट से चुनाव लड़ रहे हैं, जो देवभूमि द्वारका जिले में आती है.

पाटीदार समुदाय के बीच असंतोष होने की वजह से आम आदमी पार्टी (AAP) सौराष्ट्र के ग्रामीण क्षेत्र से फायदा होने की उम्मीद कर रही है. हालांकि, यह स्पष्ट नहीं है कि क्या आम आदमी पार्टी चल रही 'चर्चाओं या अटकलों' को वोटों में तब्दील कर पाएगी.

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