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इटावा: मोदी-योगी हवा तो थी, पर मुलायम जंक्शन जीतने की BJP की चाह न हो पाई पूरी

Etawah में एक बार फिर समाजवादी पार्टी का प्रभाव देखने को मिला है.

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उत्तर प्रदेश (Uttar Pradesh) की राजनीति में इटावा जिले को मुलायम परिवार का गढ़ माना जाता है और यहां एक बार फिर समाजवादी पार्टी का प्रभाव देखने को मिला है. इटावा की तीन विधानसभा सीटों में से 2 पर समाजवादी पार्टी के प्रत्याशियों ने भारी अंतर से जीत दर्ज की है. वहीं एक सीट बीजेपी के खाते में गई है. पूरे प्रदेश की तरह यहां के लोग भी मोदी-योगी हवा के बस में थे, उनके कामों की तारीफ कर रहे थे, बावजूद इसके मुलायम जंक्शन कहे जाने वाले इस जिले को पूरी तरह जीतने की BJP की ख्वाहिश नाकाम ही रही

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किस सीट पर क्या रही स्थिति

इटावा सदर

इटावा सदर सीट से बीजेपी उम्मीदवार सरिता ने 3984 मतों के अंतर से जीत दर्ज की है. उन्होंने एसपी के सर्वेश कुमार शाक्य को हराया.

  • जीते- सरिता (BJP)- वोट 98150

  • दूसरे- सर्वेश शाक्य (SP)- 94,166

  • तीसरे- कुलदीप गुप्ता (BSP)- 46,525

  • चौथे- सत्य प्रकाश (निर्दलीय)- 1,751

भरथना

इस सीट से एसपी नेता राघवेंद्र कुमार सिंह 7559 वोटों के अंतर से चुनाव जीत गए हैं. उन्होंने बीजेपी उम्मीदवार सिद्धार्थ शंकर को मात दी है.

  • जीते- राघवेंद्र कुमार सिंह (SP)- 103,676

  • दूसरे- सिद्धार्थ शंकर दोहरे (BJP)- 96,117

  • तीसरे- श्रीमती कमलेश (BSP)- 37,599

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जसवंत नगर

इस सीट से समाजवादी पार्टी के नेता और अखिलेश यादव के चाचा शिवपाल सिंह यादव ने 84088 वोटों के भारी अंतर से जीत दर्ज की है. उन्होंने बीजेपी उम्मीदवार विवेक शाक्य को मात दी है.

  • जीते- शिवपाल सिंह यादव (SP)- 159,718

  • दूसरे- विवेक शाक्य वोट (BJP)- 68,739

  • तीसरे- ब्रजेंद्र प्रताप सिंह (BSP)- 17,515

इटावा में समाजवादी पार्टी की जीत के प्रमुख कारण

  • इटावा जिले की सबसे चर्चित सीट जसवंतनगर सीट की बात करें जहां शिवपाल सिंह यादव जीते हैं. यहीं से 1967 में पहली बार मुलायम सिंह यादव जीते थे. उनका चुनावी करिअर यहीं से शुरू हुआ. बाद में 1996 से मुलायम सिंह यादव के भाई और प्रसपा के अध्यक्ष शिवपाल यादव इसका प्रतिनिधित्व कर रहे हैं. इस बार के चुनाव में शिवपाल यादव भारी अन्तर से चुनाव जीते. उनकी जीत का कारण ही उनकी जमी जमाई शख्सियत रही. शुरुआती स्तर पर वे कई छोटे पदों को भी संभाल चुके हैं. वे 1988 से 1991 और 1993 में जिला सहकारी बैंक, इटावा के अध्यक्ष चुने गए थे. 1995 से लेकर 1996 तक इटावा के जिला पंचायत अध्यक्ष भी रहे. इसी बीच 1994 से 1998 तक उत्तरप्रदेश सहकारी ग्राम विकास बैंक के भी अध्यक्ष का दायित्व संभाला. उनका यहां काफी डीप लेवल पर परिचय है, जिससे जीतने में दिक्कत नहीं आई.

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  • इटावा शुरुआत से ही समाजवादी पार्टी का गढ़ रहा है. लेकिन मोदी के आने के बाद यहां के वोटरों का मन 2017 में बीजेपी की ओर डायवर्ट हुआ था. यहां 3 सीटें बीजेपी ने जीती थीं. चूंकि यहां पर जात-पात की राजनीति हावी रहती है इसलिए फिर से जनता का रुख समाजवादी पार्टी की ओर मुड़ गया यह भी कारण रहा कि 2022 में 3 मे 2 सीटें समाजवादी पार्टी को गईं.

  • अगर इटावा में किसका पलड़ा भारी रहा इस पर बात का विश्लेषण किया जाए तो जसवंतनगर सीट छोड़कर बाकी सभी सीटों पर मुकाबला रोचक रहा. बीजेपी के खिलाफ लोगों में कई मुद्दों पर नाराजगी थी, लेकिन दलित वोटर और गैर यादव ओबीसी यहां बीजेपी के पक्ष में दिख रहे हैं. हालांकि, एसपी की तरफ भी उसके वोटरों की लामबंदी जबरदस्त थी.

  • विकास कार्य पर जब लोगों से बात की गई तो कइयों ने कहा कि मौजूदा योगी सरकार में यहां काफी विकास हुआ है, सरकार की नीतियां ही विकास करने की है. सड़कें बेहतर हुईं हैं, बिजली, पानी, साफ-सफाई की व्यवस्था काफी बेहतर हुई हैं लेकिन उनमें से एसपी के हार्डकोर वोटर यही कहते रहे कि वोट एसपी को ही करेंगे.

जिले में ये रहा चुनावी मुद्दा

इटावा जिले के लोगों का भी कहना है कि एसपी के संरक्षक मुलायम सिंह यादव चार बार मुख्यमंत्री रहे, अखिलेश यादव भी मुख्यमंत्री रहे, इटावा इन दोनों का घर है. इसके बावजूद यहां कोई इंडस्ट्री नहीं लगाई गई, क्या यहां भ्रष्टाचार खत्म हो गया है, अवैध कब्जे की गुंडागर्दी खत्म हो गई है ?

आलोक दीक्षित ने कहा कि कोई विकास नहीं हो रहा है. कोरोनाकाल में व्यापारियों की कमर टूट गई, अपराध चरम पर रहे. जिन लोगों से हमने बात की उनमें से बड़ी संख्या में लोगों ने योगी सरकार के कामकाज से खुशी जताई तो, कुछ लोगों ने सरकार खामियों को भी उजागर किया.

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इटावा के वरिष्ठ पत्रकार दिनेश शाक्य कहते हैं कि...

इस इलाके में खासतौर पर ग्रामीण इलाकों में बीजेपी का प्रभाव अभी भी समाजवादी पार्टी की तुलना में नगण्य सा है. उनके मुताबिक बीजेपी के पास कोई आधार नहीं था. योगी-मोदी के नाम पर ही वोट मांग रहे थे. आम आदमी ने उसे नकार दिया. दरअसल यहां, बीजेपी कभी प्रभावी रही ही नहीं. ग्रामीण क्षेत्रों में तो आज भी उसके पास कायदे के नेताओं की कमी है. शहरी क्षेत्रों में भले ही अपना आधार कुछ बढ़ाया हो लेकिन ग्रामीण क्षेत्रों में उसका प्रभाव यहां ज्यादा नहीं है. यादव परिवार में सेंध लगाने की बीजेपी की कोशिश भी नाकाम रही.

इनपुट- विवेक मिश्रा

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