कद्दावर मंत्री स्वामी प्रसाद मौर्य (Swami Prasad Maurya) के समाजवादी पार्टी में जाने से उत्तर प्रदेश (Uttar Pradesh) में बीजेपी को कुछ हद तक झटका लगा है. यह सूबे के उपमुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य के ट्वीट से भी स्पष्ट था जिसमें स्वामी प्रसाद मौर्य से बैठकर बात करने और जल्दबाजी में कोई निर्णय नहीं लेने का आग्रह किया गया.
स्वामी प्रसाद मौर्य के साथ मुलाकात के बाद एसपी प्रमुख अखिलेश यादव ने ट्वीट किया कि ''सामाजिक न्याय और समता-समानता की लड़ाई लड़ने वाले लोकप्रिय नेता श्री स्वामी प्रसाद मौर्या जी एवं उनके साथ आने वाले अन्य सभी नेताओं, कार्यकर्ताओं और समर्थकों का सपा में ससम्मान हार्दिक स्वागत एवं अभिनंदन”.
अब यहां दो सवालों के जवाब को खोजने की जरूरत है.
स्वामी प्रसाद मौर्य ने बीजेपी छोड़कर SP में शामिल होने का फैसला क्यों किया?
आगामी उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों में, विशेष रूप से SP की राजनीतिक संभावनाओं के समीकरणों को यह कैसे बदलेगा?
स्वामी प्रसाद मौर्य ने बीजेपी क्यों छोड़ी?
स्वामी प्रसाद मौर्य ने अपने इस्तीफे में कहा है कि उन्होंने योगी आदित्यनाथ सरकार की "दलितों, पिछड़ों, किसानों, बेरोजगार नौजवानों, छोटे-लघु और मध्यम व्यापारियों के प्रति घोर उपेक्षात्मक रवैया" के विरोध में इस्तीफा दिया है.
मौर्य और उनके वफादारों को बीजेपी राजनीतिक ढांचे में किसी तरह के मिसफिट के रूप में देखा जाता था. मौर्य के करीबी लोगों का कहना है कि उन्होंने कभी भी बीजेपी की हिंदुत्व की राजनीति, खासकर यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की राजनीति को लेकर भरपूर गर्मजोशी नहीं दिखाई.
मौर्य ने भी अपने त्याग पत्र में लिखा है कि " विपरीत परिस्थितियों और विचारधारा रहकर भी अपने उत्तरदायित्व को निभाया".
हालांकि दूसरी तरफ यह भी सच है कि कई बार मौर्य ने भी हिंदुत्वावादी राजनीति की है जैसे कि जब उन्होंने कहा कि "मुसलमान अपनी वासना को पूरा करने के लिए तीन तलाक का उपयोग करते हैं".
बीजेपी के एक सूत्र का कहना है कि स्वामी प्रसाद मौर्य को डर था कि 2022 में बीजेपी के सत्ता में वापस आने पर उनका और उनके वफादारों के लिए राजनीतिक स्थान सिकुड़ जाएगा. यूपी में बीजेपी के एक पदाधिकारी का कहना है कि
"जब वह (मौर्य) बीजेपी में शामिल हुए , उन्होंने कुछ जाति समूहों को बीजेपी के पाले में लाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी. उन जाति समूहों ने 2017 में और फिर 2019 में बीजेपी को वोट दिया. अब जबकि पार्टी को अपने दम पर सरकार बरकरार रखने का भरोसा है शायद उन्हें डर है कि उनका दबदबा कम हो जाएगा"
दूसरी तरफ मौर्य के समर्थक भी इसी लाइन पर बोलते हैं, लेकिन वो इसका श्रेय "सिद्धांत" को देते हैं, न कि "दबाव" या "सत्ता का लालच", जैसा कि बीजेपी संकेत दे रही है.
स्वामी प्रसाद मौर्य के एक समर्थक ने कहा कि "भले ही उन्होंने बीजेपी के साथ पांच साल काम किया, लेकिन वे अनिवार्य रूप से सामाजिक न्याय की पृष्ठभूमि से आने वाले राजनेता बने रहे और बीजेपी में उस ब्रांड की राजनीति के लिए कोई जगह नहीं है"
जब मौर्य 2016 में बीजेपी में शामिल हुए थे, तो इसे SP में यादवों और बीएसपी में जाटवों के वर्चस्व के खिलाफ विद्रोह के हिस्से के रूप में देखा गया.
मौर्य और ओपी राजभर जैसे नेताओं को उम्मीद थी कि उनके समुदायों को SP और BSP की तुलना में बीजेपी में बेहतर सौदा मिलेगा. हालांकि ऐसा प्रतीत होता है कि बीजेपी ने कुछ प्रतिनिधित्व तो दिया है, लेकिन सत्ता की शक्ति में एक हद से अधिक हिस्सा नहीं दिया.
इसके साथ ही एक धारणा यह भी है कि इन समुदायों के भीतर भी, बीजेपी आखिरकार अपने स्वयं के वैचारिक पृष्ठभूमि वाले नेताओं को आगे रखना चाहेगी.
मौर्य के इस्तीफे के बाद उनके समर्थन में इस्तीफा देने वाले बांदा जिले के तिंदवारी विधानसभा सीट से विधायक ब्रजेश प्रजापति के त्याग पत्र में यह भावना स्पष्ट है.
प्रजापति ने लिखा कि , "बीजेपी की प्रदेश सरकार द्वारा अपने पांच वर्षो के कार्यकाल के दौरान दलित, पिछड़ों और अल्पसंख्यक समुदायों के नेताओं और जनप्रतिनिधियों को कोई तवज्जों नहीं दी गयी और न ही उन्हें उचित सम्मान दिया गया.”
ऐसा लगता है कि मौर्य और उनके समर्थकों को लगता है कि जाति जनगणना और सामाजिक समानता के लिए अपने यादव-मुस्लिम आधार से आगे बढ़ने की कोशिश कर रही SP उनकी राजनीति के लिए सबसे अच्छी वाहन हो सकती है.
चुनावी समीकरणों पर कैसा असर? मौर्य के आने से SP को कितना फायदा?
मौर्य के साथ चार विधायक इस्तीफा दे चुके हैं:
रोशन लाल वर्मा - तिलहर (शाहजहांपुर जिला)
ब्रजेश प्रजापति - तिंदवारी (जिला बांदा)
भगवती प्रसाद सागर - बिल्हौर (कानपुर जिला)
विनय शाक्य - बिधुना (औरैया जिला)
स्वामी प्रसाद मौर्य खुद कुशीनगर जिले की पडरौना सीट का प्रतिनिधित्व करते हैं. कम से कम ऊपर लिखे इन पांच सीटों पर चुनावी समीकरण बदलने की संभावना तो है, लेकिन मौर्य के जाने का असर बड़ा हो सकता है क्योंकि वह अपने जाति समूह के सबसे कद्दावर नेता हैं.
मौर्य कुशवाहा समुदाय का ही हिस्सा है. यादवों, कुर्मियों और लोधों के बाद, उन्हें सबसे बड़ा ओबीसी समुदाय माना जाता है. दो बेल्ट हैं जहां कुशवाहा जाति समूह को सबसे प्रभावशाली कहा जाता है - पूर्वी यूपी के जिलों जैसे कुशीनगर, सिद्धार्थनगर और महाराजगंज में तथा फिर दक्षिण पश्चिम यूपी के इटावा, मैनपुरी, कन्नौज जिलों में - जहां कुशवाहों को शाक्य कहा जाता है.
दूसरे बेल्ट में शाक्य, यादवों के बाद सबसे बड़ी संख्या में समूह हैं. चूंकि यह समुदाय परंपरागत रूप से सब्जियां उगाने से जुड़ा हुआ है, इसलिए अक्सर सैनी या माली समुदाय पश्चिम यूपी के कुछ क्षेत्रों में उनके साथ जुड़ जाता है.
मौर्य का SP में आना पार्टी के लिए एक महत्वपूर्ण प्लस प्वाइंट है. अब तक, RLD के साथ गठबंधन के बाद कुछ जाट वोटों और SBSP के कारण राजभर के समर्थन में कुछ वृद्धि के अलावा, SP के लिए प्रमुख लाभ बीजेपी विरोधी वोटों के एकजुट होने के कारण आ रहे थे.
यही कारण है कि SP के लिए लाभ का एक बड़ा हिस्सा BSP और कांग्रेस के वोट तोड़ने पर था, खासकर मुस्लिम मतदाताओं के बीच. लेकिन अगर मौर्य के आने से प्रमुख जाति समूहों के वोटों का एक बड़ा भाग शिफ्ट करता है, तो इसका मतलब बीजेपी के वोटों पर SP का सेंध लगाना और उसके लिए एक महत्वपूर्ण लाभ होगा.
बावजूद इसके जाति वोटों का बीजेपी से SP की ओर यह एक आसान संक्रमण नहीं होगा. उदाहरण के लिए, कम से कम इटावा-मैनपुरी बेल्ट में, बीजेपी ने यादवों के वर्चस्व के खिलाफ शाक्य को सफलतापूर्वक खड़ा किया है. अब देखना यह होगा कि SP इन दोनों के बीच सुलह कर पाती है या नहीं.
नैरेटिव के लिहाज से SP के लिए एक बड़ा लाभ होगा. अखिलेश यादव और मौर्य का मंगलवार, 11 जनवरी को शब्दों का चुनाव महत्वपूर्ण है - अखिलेश यादव ने "सामाजिक न्याय और समानता के लिए लड़ाई" के बारे में ट्वीट किया, जबकि मौर्य और ब्रजेश प्रजापति ने भी अपने त्यागपत्र में "दलितों, पिछड़ों, किसानों, बेरोजगार नौजवानों और छोटे-लघु और मध्यम व्यापारियों के प्रति घोर उपेक्षात्मक रवैया” के लिए बीजेपी को दोषी ठहराया.
अगर SP इस नैरेटिव को आगे बढ़ाने में सक्षम रहती है, तो यह बीजेपी को चिंता करने का गंभीर कारण दे सकता है.
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