एक साल पहले शायद ही किसी ने सोचा होगा कि उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव (UP Assembly Election 2022) इस तरह कांटे की टक्कर का होगा. लेकिन अब इस बात पर कोई विवाद नहीं है कि अखिलेश यादव के गठबंधन के पक्ष में समर्थन बढ़ा है और 2022 का चुनाव पहले के विधानसभा चुनावों और दोनों लोकसभा चुनाव से ज्यादा कड़ा मुकाबला वाला है.
मुख्य सवाल ये है कि : क्या एसपी और सहयोगी दलों ने इतना काम कर लिया है कि वो इस चुनाव में कोई बड़ा उलटफेर कर पाएं ?
समाजवादी पार्टी के आलोचकों और समर्थकों दोनों ने ही, पार्टी के सामने जो बड़ी चुनौती है उस पहलू की अनदेखी की है.
जहां समर्थक इस बात को समझने में नाकाम हैं कि NDA को हराना कितना मुश्किल है , वहीं आलोचक ये बात भांप नहीं पाए हैं कि कैंपेन के दौरान SP और उसके सहयोगीकिस तेजी से आगे बढ़े हैं.
सपा गठबंधन के सामने चुनौतियां तीन तरफ से हैं
समाजवादी पार्टी के लिए क्या है रिक्वायर्ड रेट ?
साल 2017 में , इसने कांग्रेस के साथ मिलकर चुनाव लड़ा जबकि इस बार राष्ट्रीय लोकदल, सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी, प्रगतिशील समाज पार्टी (लोहिया), महान दल, जनवादी पार्टी (समाजवादी) और राष्ट्रीय कांग्रेस पार्टी के साथ है.
साल 2017 में पार्टी का ओवरऑल वोट शेयर 21.82 % था लेकिन 403 सीट में से पार्टी 311 पर चुनाव लड़ी थी. कांग्रेस के साथ मिलकर इसका वोट शेयर 28 फीसदी था.
साल 2017 चुनाव के सीट दर सीट विश्लेषण के लिए हम कांग्रेस और समाजवादी पार्टी को एक मानते हैं क्योंकि इन्होंने गठबंधन में चुनाव लड़ा था. इसका मतलब ये हुआ है कि सपा ने कांग्रेस के लिए जो सीट छोड़ी थी, कांग्रेस को जो वोट मिले उसे हम समाजवादी पार्टी के बेस में शामिल कर लेते हैं.
वो सीट जहां दोनों पार्टी दोस्ताना मुकाबला लड़ रहे थे वहां सिर्फ हम सपा के वोट को शामिल कर रहे हैं , कांग्रेस का नहीं.
ये पूरी तरह से ठीक भले ही ना हो लेकिन साल 2017 की तुलना में हर सीट पर जिस स्विंग की जरूरत सपा को है उसके आकलन का सबसे अच्छा तरीका है.
इसके मुताबिक , हम यूपी के 403 सीटों में से एसपी को जो कम सीटें मिली उन्हें चार वर्गों में रख सकते हैं
सपा + जिन सीटों पर 20 फीसदी से ज्यादा मार्जिन से हारे- (कुल: 129)
सपा + जिन सीटों पर 10-20 फीसदी की मार्जिन से हारे- 124 . इन सीटों पर जीत हासिल करने के लिए सपा को अपने पक्ष में करीब 10 फीसदी तक स्विंग चाहिए और इतना ही स्विंग जीतने वाली पार्टी के खिलाफ भी चाहिए.
सपा + जिन सीटों को 10 फीसदी की कम मार्जिन से हारी (कुल 96). इन सीटों पर जीत हासिल करने के लिए सपा को अपने पक्ष में 5 फीसदी की स्विंग चाहिए और 5 फीसदी की स्विंग जीतने वाली पार्टी के खिलाफ चाहिए.
54 सीटों में 47 पर सपा जीती थी जबकि सहयोगी कांग्रेस को 7 सीटें मिली थी.
ये साफ दिखाता है कि अगर सपा अपनी पुरानी 47 सीटों को बचा लेती है और अपने पक्ष में 5 फीसदी का स्विंग करा लेती है और जीतने वाली पार्ट के खिलाफ 5 फीसदी का तो ये 150 सीटों तक पहुंच सकती है। लेकिन 150 से 202 तक पहुंचना काफी मुश्किल होगा. क्योंकि इसका मतलब होगा कि पार्टी. जिन 124 सीटों पर 10-20 फीसदी की मार्जिन से चुनाव हारी थी वहां कम सीटें जीतने की उम्मीद है. इनमें से पार्टी को 50-60 सीटों पर 10 फीसदी का स्विंग चाहिए होगा.
अब एसपी को जो फायदा होगा वो बसपा, कांग्रेस और कुछ बीजेपी की कीमत पर होगा क्योंकि चुनाव दो ध्रुवीय हो जाएगा. इसलिए पूरा 5 फीसदी का सपा का फायदा पूरी तरह बीजेपी की कीमत पर नहीं होगा. अब इस हालत में 150 सीटों के नंबर तक पहुंचने के लिए सपा को 5 परसेंट से ज्यादा की स्विंग चाहिए.
इंडिया टुडे के लिए राहुल वर्मा और वैभव पारीक के प्रोजेक्शन के मुताबिक
अगर सपा को वोट शेयर में आधा बढ़त बीजेपी की कीमत पर मिलती है तो इनको बहुमत का आंकड़ा हासिल करने के लिए 9.4 फीसदी वोट शेयर की जरूरत होगी.
अगर सपा की एक तिहाई बढ़त बीजेपी की कीमत पर है तो बहुमत के लिए 8.1 फीसदी वोट शेयर चाहिए.
अगर सपा को एक चौथाई बढ़त बीजेपी की कीमत पर मिलती है तब बहुमत के लिए 11.2 फीसदी चाहिए.
इससे साफ है कि सपा को जो बढ़त है वो किस पार्टी की कीमत पर कितनी है. लेकिन ग्राउंड रिपोर्ट बताती है कि मुस्लिम वोट का बड़ा हिस्सा जो सपा को जा रहा है वो बसपा और कांग्रेस की कीमत पर है . इसलिए ये आसान नहीं होगा कि सपा को तीन चौथाई ग्रोथ बीजेपी की कीमत पर मिले। मोटा मोटी ये लगता है कि बीजेपी को हराने के लिए सपा को वोट शेयर में कम से कम 9-10 फीसदी की बढ़त चाहिए.
अब क्या ऐसा होना संभव है ? चलिए कुछ पुराने ट्रेंडस पर नजर डालते हैं .
साल 2012 , एक मात्र चुनाव जिसमें सपा ने साफ बहुमत हासिल किया था , पार्टी ने अपने पिछले चुनावों की तुलना में 4 फीसदी वोट स्विंग किया था. अब कम से कम इससे दोगुना करना होगा। ऐसा स्विंग मुश्किल है लेकिन यूपी चुनाव में पहले ऐसा हुआ भी है.
साल 2007 में बसपा को आसानी से बहुमत मिला था क्योंकि 7 फीसदी का स्विंग पार्टी ने अपने पहले के चुनावों की तुलना में हासिल किया था.
निश्चित तौर पर जो दो बड़े ड्रामैटिक स्विंग पिछले तीन दशक में यूपी में हुए हैं वो बीजेपी ने किए.
1989 से 1991 चुनाव के बीच बीजेपी का वोट शेयर 11.6 फीसदी से बढ़कर 31.5 फीसदी हो गया. वहीं साल 2012 से 2017 के बीच पार्टी का वोट शेयर 15 परसेंट से बढ़कर 39.7 परसेंट हो गया है.
दोनों ही बहुत खास हालात में हुए। पहला राम जन्मभूमि आंदोलन में तो दूसरा मुजफ्फरनगर हिंसा के बाद हुए ध्रुवीकरण से, इसके साथ ही नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद बदले चुनावी समीकरण से.
साल 2007 में बसपा का जो उत्थान हुआ था वो साल 2022 में सपा पर लागू नहीं होता है.क्योंकि साल 2014 से जिस तरह एक पार्टी का वर्चस्व राजनीति पर है वैसा तब नहीं था.
बसपा ने 30 फीसदी वोट शेयर हासिल कर चुनाव जीत लिया था जबकि इसका मुख्य प्रतिद्वंदी सपा को 25 फीसदी वोट मिले थे. साल 2012 में लगभग ये उल्टा हो गया.
साल 2022 में राजनीतिक परिदृश्य बहुत अलग है और एक पार्टी का साफ वर्चस्व है.
सपा अभी उस NDA से लड़ रही है, जिसे पिछले चुनाव में 42 फीसदी वोट मिले थे. वास्तव में साल 1985 से 1989 का समय एक दिलचस्प केस स्टडी बताता है. कांग्रेस ने साल 1985 में अपने 39.3 फीसदी वोट शेयर हासिल किया जो गिरकर 1989 में 27.9 फीसदी पर आ गया. वहीं दूसरी तरफ जनता दल ने 1989 में 29.87 फीसदी वोट शेयर हासिल किया जो अपनी पुरानी पार्टी लोकदल के 1985 में 21.4 फीसदी था. वोट शेयर में जनता दल की इस तेजी ने ही मुलायम सिंह यादव को मुख्यमंत्री बनाया. लेकिन अहम बात ये है कि जनता दल सिर्फ अकेली पार्टी ने नहीं थी जिसने कांग्रेस के वोट शेयर को हासिल किया. बीजेपी ने भी ऊंची जाति का वोट हासिल किया और नई बनी बसपा को दलितों के वोट मिले. सीख ये है कि यूपी में 40 फीसदी वोट शेयर रखने वाली पार्टियों को भी नीचे लाया जा सकता है, अगर ये वोट शेयर अलग अलग पार्टियों में जाता है , अकेली किसी एक पार्टी में नहीं. इसके साथ ही ये तब हुआ जब 1985- 89 के बीच राष्ट्रीय पार्टी के तौर पर कांग्रेस कमजोर होने लगी थी, मंडल और कमंडल आंदोलन भी इसी अवधि में हुआ था. 2022 की बीजेपी कांग्रेस की तरह लुंजपुंज तो नहीं है जैसी 1989 में कांग्रेस थी. इसने बड़ा सामूहिक आंदोलन – मोदी सरकार के किसान कानून (2020-21) के खिलाफ किसानों के आंदोलन का सामना किया है . लेकिन इसका असर यूपी के पश्चिमी गन्ना बेल्ट तक की ही सीमीत है. मंडल और मंदिर आंदोलन की तरह इसका पूरे राज्य में अपील नहीं है.
3. सामाजिक गठबंधन
एसपी 9-10 प्रतिशत का स्विंग हासिल करने में सफल होती है या नहीं, ये अखिलेश यादव के सामाजिक गठबंधन की कोशिशों की सफलता पर निर्भर करेगा. लेकिन कमोबेश ये अब पक्का है कि मुस्लिम मतदाताओं का एक बड़ा हिस्सा बसपा और कांग्रेस से सपा नेतृत्व वाले गठबंधन में चला गया है.
सपा को अब मुसलमानों का 50 प्रतिशत से अधिक वोट मिल सकता है जो उसे 2012 की अपनी जीत के दौरान भी नहीं मिला था. फिर रालोद गठबंधन से भी उसे पश्चिम यूपी में जाट वोटों का एक बड़ा हिस्सा मिल सकता है.
मुख्य सवाल ये है कि गैर-यादव ओबीसी को जीतने में वो कामयाब हुए हैं या नहीं ?
सपा ने गैर यादव ओबीसी वोट को जीतने के लिए स्वामी प्रसाद मौर्य, दारा सिंह चौहान, राम अचल राजभर, लालजी वर्मा और ओम प्रकाश राजभर जैसे नेताओं को अपने साथ जोड़ा है.
हालांकि, अभी इसकी कामयाबी स्पष्ट नहीं है. यह पूरे राज्य में असर दिखाने की जगह सीट दर सीट पर ज्यादा असर दिखाने वाला लगता है.
रिपोर्टों से पता चलता है कि कुछ इलाकों में ना सिर्फ उच्च जाति के लोग बल्कि दूसरे समुदाय वाले OBC भी यादवों के वर्चस्व को लेकर चिंतित हैं. इससे कुछ पॉकेट्स में सपा की उम्मीदों पर पानी फिर सकता है.
दरअसल कुछ इलाकों पार्टी किस्मत वाल बतायी जा रही है जहां गैर-यादव ओबीसी की तुलना में मध्य और पूर्वी यूपी के कुछ हिस्सों में पासी वोट ट्रांसफर हो सकता है. लब्बोलुआब ये कि कि मुस्लिम वोटों की एकजुटता, जाट वोट का ट्रांसफर और उम्मीदवारों के आधार पर अन्य समुदायों में लोकप्रियता का फायदा सपा को मिल सकता है. इससे पार्टी कुल मिलाकर 30 प्रतिशत वोट शेयर को पार कर सकती है लेकिन ये भाजपा को हराने के लिए पर्याप्त नहीं होगा.
एसपी का उभार क्यों बड़ी बात है
हमने पहले ऐतिहासिक उदाहरणों के बारे में बात की और वे इस बात का संकेत देते हैं कि सपा के लिए ये कितना मुश्किल काम है. हालांकि, पार्टी को कमोबेश यकीन है कि वो पुरानी मिसालों को तोड़ेगी. 1996 के बाद से उत्तर प्रदेश में कोई भी नंबर टू पार्टी 100 सीटों को पार नहीं कर पाई है. दूसरे नंबर की पार्टी पिछले 25 सालों में लगातार 100 सीटों से नीचे रही है.
चुनाव पूर्व सर्वेक्षण दिखाते हैं कि बीजेपी और सपा दोनों 100 सीटों से ऊपर रहेंगी.
अपने 30 साल के इतिहास में, सपा ने 1993, 2003 और 2012 में सत्ता में आने के बाद भी कभी भी उत्तर प्रदेश में 30 प्रतिशत वोट शेयर को पार नहीं किया है. सर्वेक्षण फिर से संकेत देते हैं कि ये बदल सकता है.
ऐसे समय में जब भाजपा हिंदी पट्टी में विपक्षी दलों को पछाड़ रही है, तो ये कोई छोटी उपलब्धि नहीं.
सियासी हालात में महत्वपूर्ण ये भी है कि एसपी-बीजेपी को पीछे धकेलने में कामयाब रही है.
पूरे अभियान के दौरान, भाजपा और मीडिया के एक हिस्से ने अखिलेश यादव को राम मंदिर और हिंदुत्व की बहस में खींचने की कोशिश की, लेकिन वो चतुराई से इन बारूदी सुरंगों से बचने में कामयाब रहे.
अखिलेश यादव को इस बात का श्रेय है कि कम से कम अपने इंटरव्यू और भाषणों में उन्होंने रोजगार और इकोनॉमी को चुनावी मुद्दा बनाया. लेकिन भाषणों के सिवा ये साफ नहीं है कि अखिलेश ने अपने कैंपेन को क्या नैरेटिव दिया. देर से चुनावी कैंपेन शुरू करने से भी सपा थोड़ी मुश्किल में हैं. एक खामी जिसका सपा को जमीन पर सामना करना पड़ रहा है, वह यह है कि जहां कई मतदाता नौकरियों की कमी, COVID-19 लॉकडाउन के दौरान नुकसान, आवारा मवेशियों के खतरे और महंगाई से लोग बीजेपी से परेशान हैं लेकिन उनको अभी भरोसा नहीं है कि सपा इन परेशानियों को दूर करने में सक्षम है. कुछ लोग मानते हैं कि चुनाव में सपा और अच्छा कर सकती थी अगर कोविड की दूसरी लहर जिसने यूपी को तबाह कर दिया उसके तुरत बाद ये एक्टिव हो गए होते . मतदाताओं का एक बड़ा वर्ग मानता है कि रोजगार के लिए से अखिलेश एक बेहतर विकल्प हो सकते हैं लेकिन एक वर्ग आरोप लगाता है कि सपा के राज में कानून-व्यव्स्था खत्म हो जाती है.
हर कोई इस बात से सहमत नहीं हो सकता लेकिन इसमें कोई नहीं है कि सपा को इस चुनाव में जीतने के लिए जिस तरह की उछाल की जरूरत थी, उसे रोकने में इसने भूमिका निभाई है.
इन बाधाओं के बीच, यदि सपा 47 सीटों से बढ़कर 140 या इससे अधिक हो जाती है, तो इसका मतलब यह होगा कि पार्टी ने तीन गुना ज्यादा सीटें हासिल की. और अगर वह 30 प्रतिशत वोटों को पार कर जाती है, तो उसे अपना अब तक का सबसे अधिक वोट शेयर हासिल होगा.
यह पार्टी के लिए कोई छोटी उपलब्धि नहीं है. लेकिन बहुमत हासिल करना एक बहुत कठिन टास्क है.यह असंभव नहीं है, लेकिन चुनौतियों और बाधाओं को कबूल करने की जरूरत है.
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