उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनावों (Uttar Pradesh Election) के पहले चरण के मतदान के लिए पर्चे भरे जाने की प्रक्रिया शुरु हो गई है. राजनीतिक दलों के उम्मीदवीरों की पहली लिस्ट आ गई है. कुछ सीटों पर ये साफ हो गया है कि मुकाबला किनके बीच है. ज्यादातर सीटों पर उम्मीदवारों के नाम आने अभी बाकी हैं. इस चुनाव में जहां बीजेपी के सामने अपनी सत्ता को बचाने की बड़ी चुनौती है, वहीं विपक्षी दलों के लिए उसे सत्ता से उखाड़ने की बड़ी चुनौती है.
2022 के विधानसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश के मुस्लिम बहुल जिलों की विधानसभा सीटें महत्वपूर्ण भूमिका निभाएंगी. जो पार्टी इनमें से ज्यादा सीटें जीतेगी, सत्ता की चाबी उसी के हाथ लगेगी. पिछले दो विधानसभा चुनावों के आंकड़े तो यही बताते हैं.
मुस्लिम बहुल जिलों की विधानसभा सीटों के पिछले दो चुनावों के आंकड़े काफी हैरान करने वाले हैं. इनके विश्लेषण से आसानी से अंदाजा लगाया जा सकता है कि आने वाले चुनाव में इन जिलों में क्या परिस्थितियां हो सकती हैं और उनका चुनावी नतीजों पर क्या असर पड़ेगा.
इन जिलों में जिस पार्टी का पलड़ा जितना भारी होगा, वो सत्ता के उतनी ही नजदीक होगी. पिछले चुनाव में बीजेपी ने इन जिलों की ज्यादातर सीटें जीती थीं. लिहाजा सत्ता की चाबी उसके ही हाथ लगी थी. तब बीजेपी के 300 का आंकड़ा पार करने में इन जिलों में मिली सीटों की अहम भूमिका थी. उससे पिछले चुनाव में समाजवादी पार्टी ने इन जिलों की ज्यादातर सीटों पर कब्जा किया था. इन्हीं की बदौलत वो पहली बार अपने दम पर 200 का आंकड़ा पार करके पूर्ण बहुमत से सत्ता हासिल करने में कामयाब रही थी.
क्या है मुस्लिम बहुल जिलों का मतलब
वैसे तो उत्तर प्रदेश में सिर्फ एक जिले को ही मुस्लिम बहुल कहा जा सकता है. वो है रामपुर. यहां मुसलमानों की आबादी 50% से ज्यादा है. लेकिन उत्तर प्रदेश की राजनीतिक भाषा में उन जिलों को मुस्लिम बहुल कहा जाता है जहां जातीय समीकरण के हिसाब से मुसलमानों की आबादी ज्यादा है.
आमतौर पर यह माना जाता है कि मुसलमान बीजेपी को हराने के लिए किसी एक पार्टी को एक मुश्त वोट देते हैं. इसलिए 20% या इससे ज्यादा आबादी वाले जिलों को मुस्लिम बहुल मान लिया जाता है. उत्तर प्रदेश में राजनीति पूरी तरह जाति समीकरणों पर आधारित है.
किसी भी एक जाति की आबादी का आंकड़ा मुस्लिम आबादी से कहीं कम है इसलिए 20% मुस्लिम आबादी वाले जिलों और विधानसभा सीटों को मुस्लिम बहुल माना जाता है. इन सीटों पर मुस्लिम वोट हार-जीत में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं. लिहाजा हर पार्टी यहां उम्मीदवारों के चयन से लेकर चुनाव प्रचार तक के लिए खास रणनीति बनाती है.
यूपी में कितने जिले हैं मुस्लिम बहुल
2011 की जनगणना के अनुसार उत्तर प्रदेश में मुसलमानों की आबादी 19.26% है. प्रदेश में 29 जिलों में मुसलमानों की आबादी इस औसत से ज्यादा है. मुसलमानों की आबादी रामपुर में सबसे ज्यादा 50.57% है.
मुरादाबाद और संभल में 47.12% बिजनौर में 43.03 सहारनपुर में 41.95 मुजफ्फरनगर व शामली में 41.30 और अमरोहा में 40.78% है. इनके अलावा 5 जिलों में मुसलमानों की आबादी 30 से 40% के बीच है. और 12 जिलों में मुसलमानों की आबदी 20 से 30%के बीच है.
कुछ जिले ऐसे भी हैं जहां मुसलमानों की आबादी 19% से ज्यादा और 20% से कम है. सीतापुर में मुस्लिम आबादी 19.93%, अलीगढ़ में 19.85%, गोंडा में 19.76% और मऊ में 19.43% है. इन 29 जिलों में विधानसभा की कुल 163 सीटें हैं. इनमें से 31 अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित हैं. जो पार्टी इनमें से ज्यादा सीटें जीतेगी सत्ता पर उसी का कब्जा होगा. पिछले दो विधानसभा चुनाव के नतीजे तो कम से कम यही बताते हैं.
क्या था 2017 में इन जिलों का गणित
2017 के विधानसभा चुनाव में मुस्लिम बहुल इन 29 जिलों की 163 विधानसभा सीटों में से बीजेपी ने 137 सीटें जीती थी. दलितों के लिए आरक्षित 31 सीटों में से बीजेपी ने 29 सीटें जीती थी. समाजवादी पार्टी इनमें से सिर्फ 21 सीटें जीत पाई थी. जबकि कांग्रेस को सिर्फ 2 सीटें मिली थीं. गौरतलब है कि 2017 के विधानसभा चुनाव में SP-कांग्रेस गठबंधन मुस्लिम बहुल जिलों में महज 23 सीटों पर सिमट कर रह गया था.
सबसे ज्यादा खराब हालत यहां BSP की हुई थी. उसे सिर्फ एक सीट पर ही जीत नसीब हुई थी. एक-एक सीट आरएलडी और अपना दल को मिली थी. अपना दल बीजेपी के साथ गठबंधन में था. इस हिसाब से देखें तो बीजेपी गठबंधन को कुल मिलाकर 138 सीटें मिली थीं. पूरे उत्तर प्रदेश में बीजेपी गठबंधन को मिली 325 सीटों में मुस्लिम बहुल जिलों में मिली सीटों का अहम योगदान था.
2012 में किसका रहा था दबदबा
2012 के विधानसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी को पहली बार पूर्ण बहुमत मिला था. उसे 225 सीटों पर जीत हासिल हुई थी. एसपी को मिली इस बड़ी जीत में मुस्लिम बहुल जिलों में मिली ज्यादातर विधानसभा सीटों का बड़ा योगदान था. तब इन 29 जिलों की 163 विधानसभा सीटों में से समाजवादी पार्टी को 90 सीटें मिली थी.
इसके अलावा बीएसपी को 30 और बीजेपी को महज 22 सीटें मिली थीं. कांग्रेस ने इन जिलों में 11 सीटें जीती थीं. बाकी बची 10 सीटों में से पांच RLD ने, तीन पीस पार्टी ने और एक-एक सीट इत्तेहाद मिल्लत काउंसिल और कौमी एकता दल ने जीती थीं. इन जिलों में दलितों के लिए आरक्षित 31 सीटों में से तब SP को 22 और बीएसपी को 3 सीटें मिली थी. जबकि बीजेपी, कांग्रेस और RLD के हिस्से में दो-दो सीटें आई थी. जाहिर है कि 2012 में मुस्लिम बहुल जिलों में मिली सीटों की बदौलत ही SP को सत्ता की चाबी हाथ लगी थी.
क्या रहेगा 2022 में यहां का गणित
पिछले दो चुनावों के नतीजे बताते हैं कि मुस्लिम बहुल जिलों की ज्यादातर सीटें जिसके पास होती हैं सत्ता पर उसी का कब्जा होता है. लिहाजा 2022 में भी ऐसा ही होने की पूरी संभावना है. पिछले चुनाव में बीजेपी इन सीटों पर मुस्लिम वोटों के बंटवारे की वजह से ज्यादातर सीटें कब्जाने में कामयाबी रही थी.
इस बार वो खुद करीब 50,000 बूथों पर कुछ मुस्लिम वोट हासिल करने की रणनीति पर काम कर रही है. उसकी कोशिश है कि मुस्लिम वोट SP, बीएसपी, कांग्रेस और ओवैसी की पार्टी के साथ-साथ बीजेपी को भी मिलें तो उसकी जीत का रास्ता आसान हो जाएगा.
वहीं SP मुसलमानों के बीच में संदेश देने की कोशिश कर रही है कि बीजेपी को सिर्फ वही टक्कर दे सकती है लिहाजा मुसलमान सिर्फ़ उसे वोट दें. SP को कुछ सीटों पर ओवैसी की पार्टी से खतरा महसूस हो रहा है. हालांकि 2012 के चुनाव में पीस पार्टी की मौजूदगी के बावजूद SP को मुसलमनों का भरपूर वोट मिला था.
कई हैं मुस्लिम वोटों के दावेदार
मुस्लिम बहुल जिलों में मुसलमानों के वोटों के दावेदार भी कम नहीं हैं. यह सही है कि चुनावों की तारीखों के ऐलान के बाद बीजेपी में मची भगदड़ से उसकी मुश्किलें बढ़ गई लगती हैं. इसे बीजेपी को टक्कर दे रही समाजवादी पार्टी खुश हो सकती है. लेकिन वो बीजेपी से आने वाले मंत्रियों और विधायकों की भीड़ की वजह से टिकटों के बंटवारे में अंदरूनी उठापटक से जूझ रही है.
SP ने छोटी पार्टियों के गठबंधन और मुस्लिमों के सहारे बीजेपी को पटखनी देने की रणनीति बनाई है. अंदरूनी उठापटक उसकी उम्मीदों पर पानी फेर सकती है. बीएसपी और कांग्रेस भी अपना वजूद बचाने की लड़ाई लड़ रही हैं. वहीं ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुसलेमीन भी अपना खाता खोलने के लिए मैदान में एड़ी चोटी का जोर लगा रही है. इनके अलावा पीस पार्टी और राष्ट्रीय ओलेमा कौंसिल का गठबंधन भी चुनाव मैदान में है. इन दोनों के सामने भी अपना वजूद बचाने का संकट है.
इस लिहाज से देखें तो मुस्लिम वोटों के इतने दावेदारों की मौजूदगी की वजह से इन जिलों में पिछले चुनाव वाली स्थिति भी दोहराई जा सकती है. तमाम चुनावी सर्वेक्षण यूपी में बीजेपी और समाजवादी पार्टी के बीच ही मुख्य मुकाबला दिखा रहे हैं. सूबे की जनता के पसंदीदा मुख्यमंत्री के लिए भी योगी आदित्यनाथ और अखिलेश याद के बीच ही मुख्य मुकाबला है.
सर्वेक्षणों में सत्ता पर कब्जे के लिए बीजेपी और SP के बीच सीटों का अंतर काफी कम रह गया है. लिहाजा वोटों में थोड़ा सी भी उलटफेर चुनावी नतीजों के प्रभावित कर सकता है. दोनों पार्टियां अपनी-अपनी रणनीति को अमली जामा पहनाकर जीत हासिल करने की कोशिशों में जुटी हुई हैं. दोनों में से जिस की रणनीति काम कर जाएगी, सत्ता पर उसी का कब्जा होगा.
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