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उत्तराखंड: देवस्थानम बोर्ड रद्द, BJP राज्य में सिर्फ चुनावी फायदा नहीं देख रही

उत्तराखंड चुनाव से कुछ महीने पहले मुख्यमंत्री बनाए गए पुष्कर सिंह धामी लगातार लोकलुभावन घोषणाओं की झड़ी लगा रहे हैं

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उत्तराखंड (Uttarakhand) ने पिछले पांच साल में एक ही सरकार के तीन मुख्यमंत्री देख लिए हैं. बीजेपी के तीसरे मुख्यमंत्री चुनावों से पहले घोषणाओं का पिटारा खोल रहे हैं, इतना ही नहीं वो खुद इसका जोर-शोर से प्रचार भी कर रहे हैं. देवस्थानम बोर्ड (Devasthanam Board) को भंग करना भी ऐसी ही लोकलुभावन घोषणाओं में शामिल है. इसी सरकार ने इस बोर्ड का गठन किया था और इसके फायदे गिनाए थे, लेकिन अब चुनाव से ठीक पहले इसे भंग कर दिया है और हैरानी की बात ये है कि अपने ही फैसले को पलटने का क्रेडिट भी लिया जा रहा है.

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अपने ही फैसलों को पलटकर वाहवाही लूटने की कोशिश

बीजेपी ने अपने बहुचर्चित फॉर्मूले के तहत उत्तराखंड में एक के बाद एक दो मुख्यमंत्रियों को कुर्सी से उतार दिया, चुनाव से ठीक पहले एंटी इनकंबेंसी को कम करने के लिए पार्टी पंडितों ने इसे रामबाण उपाय बताया. नए और युवा मुख्यमंत्री के तौर पर पुष्कर सिंह धामी को पिक्चर में लाया गया, जिसके बाद अब ठीक वैसा ही देखने को मिल रहा है जैसे सरकार बदलने पर होता है.

जब कोई सरकार बदलती है तो वो पुरानी सरकार के लिए गए 'गलत' फैसलों को ठीक करके जनता को मैसेज देते हैं कि आपने गलत लोगों को चुना था, हम अब उनकी गलतियां सुधार रहे हैं. लेकिन उत्तराखंड में पहले बीजेपी सरकार अपने ही मुख्यमंत्री बदलकर ये सब करने की कोशिश की और अब अपनी ही सरकार के फैसलों को पलटकर जनता की वाहवाही लूटने की कोशिश हो रही है. चौंकाने वाली बात ये है कि इसमें कहीं न कहीं पार्टी कामयाब भी होती नजर आ रही है.

नए सीएम ने लगाई घोषणाओं की झड़ी

चुनाव से ठीक पहले कुर्सी में बैठने के बाद कुछ महीनों के लिए मुख्यमंत्री बने पुष्कर सिंह धामी ने सिर्फ घोषणाएं करने का काम किया है. लोगों और अलग-अलग समुदायों को खुश करने के लिए योजनाओं की ऐसी झड़ी लगी है, जो शायद चुनावों तक भी खत्म न हो. हालांकि उनके पास इसके अलावा ज्यादा विकल्प भी नहीं बचे हैं, क्योंकि उन्हें इस चुनावी टी-20 के आखिरी ओवर में उतारा गया है. खुद सीएम धामी ने ये स्वीकार किया है कि वो अब तक 500 से ज्यादा ऐसे फैसले ले चुके हैं. उन्होंने कहा,

"मैंने 4 जुलाई 2021 से मुख्यमंत्री के तौर पर काम करना शुरू किया है, तब से लेकर अब तक पिछले 4 महीने में 400 नहीं बल्कि 500 से भी ज्यादा फैसले लिए हैं. आज यहां पर बहुत योजनाओं का लोकार्पण और शिलान्यास हुआ है."
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देवस्थानम बोर्ड भंग होने से सरकार को कितना फायदा?

अब इसमें तो दो राय नहीं है कि चुनाव नजदीक देखते हुए देवस्थानम बोर्ड को भंग करने का फैसला लिया गया है. लेकिन सवाल ये है कि आखिर उत्तराखंड सरकार को इससे कितना फायदा होगा? राज्य में पंडितों यानी ब्राह्मण समुदाय के वोट बैंक की अगर बात करें तो ये करीब 25 फीसदी तक है. जबकि ठाकुर वोट 35 फीसदी से ज्यादा है. ऐसे में हमेशा यहां सरकारें ठाकुर-ब्राह्मण का बैलेंस बनाकर चलती हैं. देवस्थानम बोर्ड को लेकर ब्राह्मणों का एक छोटा वर्ग विरोध कर रहा था, जिसमें मुख्य तौर पर चारों धामों के तीर्थ पुरोहित शामिल थे. ऐसे में उत्तराखंड के चुनावों में इसका बहुत बड़ा फायदा तो पार्टी को मिलता नहीं दिख रहा.

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लेकिन बीजेपी सरकार का ये फैसला सिर्फ राज्य के चुनाव तक ही सीमित नहीं है, इससे पूरे देशभर में हिंदुत्व समर्थक पार्टी वाला मैसेज देने की भी कोशिश की गई है. जो पार्टी हिंदुत्व के नाम पर हर बड़े चुनाव में उतरती है और मंदिरों को लेकर राजनीति करती हो, उसी के खिलाफ बद्रीनाथ, केदारनाथ, गंगोत्री और यमुनोत्री जैसे धामों के पुरोहित प्रदर्शन कर रहे थे.

ये बीजेपी की हिंदुत्ववादी इमेज के खिलाफ जा रहा था. पीएम मोदी के दौरे से ठीक पहले देवस्थानम बोर्ड को लेकर उनका विरोध होना पार्टी के लिए एक बड़े संकेत के तौर पर था. इसीलिए बीजेपी ने दूर की सोच रखते हुए बोर्ड को भंग करने का फैसला किया. इसे यूपी जैसे बड़े राज्य में चुनाव के परपेक्ष में भी देखा जा सकता है.
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देवस्थानम बोर्ड को लेकर पहले क्या था सरकार का रुख?

अब आपको बताते हैं कि यही सरकार देवस्थानम बोर्ड को लेकर क्यों आई और इसके क्या-क्या फायदे गिनाए गए. नवंबर 2019 में उत्तराखंड सरकार ने देवस्थानम बोर्ड को मंजूरी दी थी. दिसंबर 2019 में विधानसभा से विधेयक पारित किया गया. तब त्रिवेंद्र सिंह रावत बीजेपी के मुख्यमंत्री थे. त्रिवेंद्र सिंह ने इस बोर्ड को लेकर ये तक कहा था कि उत्तराखंड की स्थापना के बाद ये फैसला सबसे सुधारात्मक फैसलों में से एक है.

चारों धामों के साथ कुल 51 मंदिरों को इसमें शामिल किया गया. इस बोर्ड को वैष्णो देवी श्राइन बोर्ड की तर्ज पर बनाया गया था. मकसद था कि मंदिरों और चारों धामों में श्रद्धालुओं को मिलने वाली सुविधाओं को बेहतर किया जाए. इन तमाम मंदिरों में आने वाले करोड़ों रुपये के चढ़ावे का इस्तेमाल इन सुविधाओं के लिए किया जाए.

खुद मुख्यमंत्री ने कहा था कि, ऐसे बोर्ड के गठन के बाद हर जगह सुधार देखने को मिले हैं और जिसे शक है वो इसकी स्टडी कर सकते हैं. उन्होंने ये भी कहा था कि हर बड़े फैसले का विरोध होता है, इसीलिए हमें विरोध स्वीकार करना चाहिए.
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यानी इन तमाम दलीलों के साथ बीजेपी की सरकार ने इस बोर्ड का गठन किया और इसे लागू भी किया था. तब भी यही विरोध था और अब भी वही विरोध है. बस फर्क इतना है कि तब प्रचंड बहुमत से उत्तराखंड की सत्ता में आई बीजेपी सरकार के कानों तक ये विरोध की आवाज नहीं पहुंची और अब चुनाव से पहले जब सरकार बड़ी एंटी इनकंबेंसी का सामना कर रही है तो उसे तीर्थ पुरोहितों का हित और पारंपरिक व्यवस्था का खयाल आया है.

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