हम एक स्त्री के चरित्र के बारे में निर्णय कैसे कर सकते हैं? उसकी स्कर्ट की लंबाई से? वह किस समय घर से निकलती और कब वापस आती है, इससे? उसके काम से ? उसकी लिपिस्टिक के रंग से ? कितने लड़के उसके दोस्त हैं, इससे ? या फिर उसकी पीने की पसंद से?
हमारे देश के रुढ़िवादी कहेंगे, हां बिल्कुल, इन सभी के आधार पर. हममें से अधिकतर जो रोज इन्हीं मानकों पर जांचे जाते हैं, वो भी इसकी सहमति में गर्दन हिला देंगे. आखिरकार हम सभी इसी धारणा में पले-बढ़े हैं कि अकेली लड़की तो खुली तिजोरी जैसी होती है!
‘पिंक’ इन सभी से बनाई गई है. रोजाना, नियमित, हर तरह की रुढ़िवादिता, स्त्री द्वेष और पितृसत्ता, जिन्हें हम अच्छी तरह जानते हैं, जो हमें बिना सवाल किए सब कुछ स्वीकार करा देते हैं.
दिल्ली की लड़कियों की कहानी है ‘पिंक’
इस तरह की कहानी के लिए दिल्ली एक बेहतरीन जगह है. देश की ‘रेप कैपिटल’ होने के कारण हम महिलाओं की सुरक्षा के बारे में एक या दो चीजें ही समझते हैं- ‘अब ऐसी लड़कियों के साथ ऐसा ही होगा’.
दक्षिणी दिल्ली की पॉश इलाके में रहने वाली तीन लड़कियां एक खतरनाक गड़बड़ी में फंस जाती हैं. वास्तविक घटना का खुलासा बिल्कुल अंत तक नहीं किया जाता, हमें बस मिलता है कुछ विज्ञापन और साउंड बाइट्स. लड़कियां शिकायत करती हैं कि पुरुष ने उनके साथ जबरदस्ती की है. पड़ोसी हमसे कहते हैं कि लड़कियों के यहां अक्सर पुरुष आते हैं. मर्द कहते हैं कि ये लड़कियां शराब पीती हैं और बहुत मजे करती हैं.
अभियोजन पक्ष का वकील कहता है कि जो कानून महिलाओं की सुरक्षा के लिए बनाया गया है, उसका ही अब महिलाएं सभ्य पुरुषों को ब्लैकमेल करने के लिए दुरुपयोग कर रही हैं.
एक पुरुष चिल्लाता है, ‘लड़की को उसकी औकात बतानी पड़ती है.’ कुछ वैसा ही जब सामान्य तौर पर एक छेड़छाड़ का मामला दर्ज कराया जाता है और ‘पतित’ लड़की के चरित्र की चीर-फाड़ की जाती है.
यही है जो ‘पिंक’ को दमदार बनाता है. यह हमें गुस्से के गहरे लाल रंग के साथ छोड़ जाता है, क्योंकि यह सब बिल्कुल सच लगता है.
तीनों लड़कियों की बेहतरीन अदाकारी
जैसा कि हम कोशिश करते हैं और उस दुर्भाग्यपूर्ण रात को हुई घटनाओं को जोड़ते हैं, जब तीन लड़कियां एक रॉक कॉन्सर्ट में लड़कों से मिली थीं और फिर घटनाएं कैसे आगे बढ़ती चली जाती हैं और हम बिना पलकें झपकाए देखते रहते हैं.
‘पिंक’ आपको पूरी तरह खुद में शामिल कर लेती है और खत्म होने के बाद भी आपसे जुड़ी रहती है. मिनल, फलक और एन्ड्रेआ बॉलीवुड फिल्मों में लंबे समय के बाद देखी गईं सबसे ज्यादा ‘वास्तविक’ लड़कियां हैं. वे शक्ति और साहस का अंतहीन भंडार नहीं हैं. वे ऐसी लड़कियां हैं, जिन्हें गुस्सा आता है, डर लगता है, घबराहट होती है, रोना आता है, चिल्लाहट आती है और जो जीवन की हर परेशानी के लिए जिंदा हैं. तापसी पन्नू, कीर्ति कुलकर्णी और एंड्रेया तेरिआंग अपनी इन भावनाओं को बखूबी पर्दे पर उतार पाई हैं.
अमिताभ और पीयूष मिश्रा का भी जवाब नहीं
इसके बाद इस फिल्म को जो चाहिए वो मिल जाता है, बचाव पक्ष के एक विद्रेाही वकील दीपक सहगल का किरदार निभा रहे अमिताभ बच्चन के साथ एक रोमांचक अदालत का सिलसिला. अभियोजन पक्ष का वकील (पीयूष मिश्रा) कोई तरीका नहीं छोड़ता, जैसे कि अचानक ही वह अपना लिंगभेद सामने ले आता है.
वह चिल्लाता है कि उसका क्लाइंट राजवीर (अंगद बेदी) एक सभ्य पुरुष है, जिसे इन ‘गिरी हुई लड़कियों’ ने फंसाया है. अमिताभ बच्चन की तेजी से बढ़ती हुई आवाज कार्रवाई को भर देती है. अपने तर्कों को सही मात्रा में व्यंग्य के साथ प्रस्तुत करता है, जैसे की वह रूढ़िवादियों को तार-तार करता है, स्त्री द्वेषी दावों में फाड़ कर देता है.
पहले शूजित सरकार की ‘पीकू’ और एक निर्माता के तौर पर अब नई फिल्म में, अमिताभ बच्चन को देखना बेहतरीन है.
कसी हुई कहानी से बंधे रहेंगे आप
बिग बी का खुश कर देने वाले अभिनय के साथ रितेश शाह का लेखन दुर्भावनापूर्ण वर्चस्व पर गहन चिंतन है. निर्देशक अनिरुद्ध रॉय चौधरी ने कहानी पर अपनी पकड़ नहीं खोई है. बोधादित्य बैनर्जी के कसे हुए संपादन को धन्यवाद.
‘पिंक’ खास तौर पर बार-बार देखो! अगर पूरे साल में आप कोई फिल्म देखते हैं, तो ये वो जरूरी होनी चाहिए! इसे 5 में से 5 ‘क्विंट्स’. हमारे ढोंगी समाज के इस पीलियाग्रस्त नजरिए को इस गुलाबी छाया की जरूरत है.
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