ADVERTISEMENTREMOVE AD

Avatar 2 Film Review: पैन्डोरा कोई काल्पनिक ग्रह नहीं, ये हमारे आसपास ही है

Avatar 2 Film Review -पैन्डोरा हम सबके भीतर ही कहीं खोया हुआ सा है, जिसे हम नजरअंदाज करते हैं या मिटा रहे हैं

story-hero-img
i
छोटा
मध्यम
बड़ा
Hindi Female

“हैप्पीनेस इज सिंपल”. ‘पैन्डोरा’ पर ‘खुशियां सामान्य बातों में है’. बड़ी चीजें अनुपयोगी और अमानवीय अधिक हैं- इसका आम आदमी और उसकी जरूरतों से अधिक लेना-देना नहीं. और इन खुशियों से जुडी चीजें हमारे आसपास ही हैं- हमारे चारों तरफ- हमारे पर्यावरण में- हमारे परिवेश में- हमारे सोचने के तरीके में. निर्भर करता है कि हम अपने परिवेश से, अपने पर्यावरण से कैसे जुड़ पाते हैं. कैसे उनसे एक संवेदनशील रिश्ता बना पाते हैं. ‘अवतार’ ऐसे ही केन्द्रीय विषय वस्तु को आगे बढाते हुए अपने दूसरे भाग ‘अवतार-2’ में आई है.

ADVERTISEMENTREMOVE AD

यह फिल्म मात्र मनोरंजन नहीं, बल्कि आधुनिक सभ्यता और इसकी सीमाओं से आगाह करनेवाला एक बड़ा विमर्श है. इलाहाबाद के एक सिनेमा हॉल में इसे देखते हुए हमने अनुभव किया कि दर्शक बड़ी खामोशी और विस्मय से जीवन के एक नए रूप को देख रहे थे. दर्शक- चाहे किसी भी धर्म, मजहब, वर्ग या लिंग से रहे हों सब कुछ ही घंटों के लिए ही सही लेकिन एक अनोखी दुनिया की सैर कर रहे थे. उनका पैन्डोरा ग्रह से खास आकर्षण और ‘नावी’ बनने की आकांक्षा यह बता रही थी कि लोगों में वर्तमान आधुनिक सभ्यता से कोई बड़ा मोह नहीं रह गया- यह उनकी मज़बूरी है- पैन्डोरा ही उनकी प्रकृति है- जहां वे जाना चाहते हैं- जीना चाहते हैं.

यह फिल्म ‘तकनीक-केन्द्रित विश्व-दृष्टि’ और ‘प्रकृति-केन्द्रित विश्व-दृष्टि’ के बीच के अंतर्द्वंदों को दिखलाती है. यह जीवन के उस दर्शन की वकालत करती है जिसे आधुनिक विज्ञान और तकनीक ने पिछड़ा हुआ और अंधविश्वासी घोषित कर रखा है. जिसे आधुनिक विज्ञान ने पिछड़ा हुआ माना वह और कुछ नहीं बल्कि जीवन को देखने का और उससे एक सम्बन्ध विकसित करने का एक अलग जीवन दर्शन मात्र है.

0

आधुनिक विज्ञान से पोषित सभ्यता व लोग जहां प्रकृति को पराजित कर उसके संसाधनों का निर्मम उपभोग किया जाता है- इसमें आदमी के साथ दो ही बातें होती हैं- पहला कि आदमी उपभोग करता है, और दूसरा कि फिर वह मर जाता है. तो दूसरी तरफ वैसे समुदाय या लोग हैं जो प्रकृति के साथ एक आत्मीय सम्बन्ध बनाकर प्रकृति के साथ-साथ जीते हैं, और चुंकि वे मरते नहीं इसलिए वे उसी प्रकृति की उर्जा में मिल जाते हैं.

आज जनजातीय और ग्रामीण सन्दर्भों में देखें तो यह फिल्म उनपर सटीक बैठती है. आज भी मृत्यु उनके लिए ‘देहांत’ है जहां अंत केवल देह का होता है- आत्मा का नहीं. उनके जीवन दर्शन में मरना नहीं होता. विज्ञान की नजर में मरी हुई चीजों में भी वे चेतना देखते हैं. और इस अर्थ में पैन्डोरा कोई काल्पनिक ग्रह नहीं, बल्कि यह हमारे आसपास ही है जिसे हम लगातार मिटा रहे हैं. या यूं कहें कि पैन्डोरा हम सबके भीतर ही कहिं खोया हुआ सा है. जिसे हम महसूस नहीं कर पाते उसे ख़ारिज कर देते हैं. आधुनिक सभ्यता की यही विडंबना है और यही इसकी सीमा भी है.

पहले भाग में फिल्म ने जंगल के दर्शन को सामने रखा था. जिसमें जंगल के संवेदनशील जीव और पेड़-पौधे, और झूलते जीवंत पहाड़ों की भव्यता के बीच आदमी के अस्तित्व की सुन्दर कल्पना की गई थी. दूसरे भाग में निदेशक ने जंगल के दर्शन के बाद जल के दर्शन को दिखाने का बेहतरीन प्रयास किया है. और उसमें एक हद तक उसने सफलता भी पाई है. फिल्म में इस दर्शन की काव्य प्रस्तुति भी है जो नेपथ्य में सुनाई पड़ती है.

ADVERTISEMENTREMOVE AD

“जल के प्रवाह का

कोई अंत नहीं

कोई प्रारंभ नहीं,

समंदर तुम्हारे चारों तरफ है

और तुम्हारे भीतर भी.

समंदर तुम्हारा घर है

तुम्हारे जन्म से पहले

और तुम्हारी मृत्यु के बाद भी.

हमारा हृदय धडकता है

विश्व की कोख में,

हमारी साँसे जलती है

इसकी गहनता की छाया में.

समंदर देता है और फिर

समंदर ले लेता है.

जल में सब है-

जीवन भी, मृत्यु भी

अंधकार भी और प्रकाश भी”.

(अनुवाद: केयूर पाठक)

फिल्म को देखते हुए लगता है इसपर भारतीय दर्शन का भी प्रत्यक्ष या परोक्ष प्रभाव है. जीव-अजीव सबमें जीवन और संवेदना को तलाशती हुई यह फिल्म उपनिषदों की ऋचाओं की याद दिला दे रही थी. खासकर जल का जीवन से की गई तुलना तो बिल्कुल ही भारतीय जनमानस में बसे ‘जल ही जीवन’ जैसे मन्त्रों की अभिव्यक्ति जैसी है. जल का दर्शन लोकतान्त्रिक समाज का दर्शन है- जिसमें निर्मलता होगी, समरसता और सबके साथ मिल जाने का बोध होगा वह लोकतान्त्रिक होगा.

ADVERTISEMENTREMOVE AD

“दिस इज नॉट स्क्वाड. इट इज फॅमिली”. वैश्विक सामाजिक संस्था के रूप में जब परिवार लगातार अपना महत्व खोता जा रहा है ऐसे में इसकी मजबूत उपस्थिति भी इस संवाद के माध्यम से समझी जा सकती है. पश्चिम और कमोबेश एशियाई समाजों से भी लुप्त या टूटते इस संस्था पर निदेशक द्वारा ध्यान खींचने का एक विशेष प्रयास किया गया है. फिल्म में परिवार और उसके सदस्यों को बचाने और सुरक्षित रखने के अनगिनत दृष्टान्त हैं या एक अर्थों में देखें तो यह फिल्म के केन्द्रीय विषय वस्तु में से एक है- इसे फिल्म के मुख्य किरदार जैक सली के मामलों में देखा जा सकता है. जब वह कई बार अपने और समुदाय के परिवारों को बचाने के लिए युद्ध को टालता है.

अगर परिवार उसके लिए एक भावनात्मक इकाई नहीं होता तो कोई आश्चर्य नहीं कि वह ‘आकाश’ से हुए हर आक्रमणों का हर बार जवाब देता. नावियों का भावनात्मक बंधन उनके लिए कमजोरी नहीं थी, बल्कि इससे वे बेशुमार ताकत पाते थे और अपने पारंपरिक हथियारों और तकनीकों से भी वे आधुनिक और प्रोफेशनल माने जाने वाले विपक्षियों को पराजित कर पाते थे.

पारंपरिक समाजों में ऐसे बंधन हमेशा से रहे हैं- और केवल मनुष्यों के साथ ही नहीं, बल्कि जानवरों, पेड़ों और पहाड़ों, नदियों और झीलों के साथ भी. इन भावनात्मक संबंधों से वे प्रकृति का ज्ञान सहजता से प्राप्त कर लेते हैं और बिना किसी प्रतिरोध के वे प्रकृति से सबकुछ पा लेते हैं जो वे चाहते हैं.

ADVERTISEMENTREMOVE AD

आदमी इस अनियंत्रित विकास से उकता चुका है. उसे विकल्पों की तलाश है. हिंदी सिनेमा आज भी उन विकल्पों पर कोई विमर्श दे पाने में असफल रही है. यह अब भी लेफ्ट-राईट, भगवा और लाल या ब्लू या हरा का खेल खेल रही है. लेकिन पश्चिम का सिनेमा उद्योग वैकल्पिक दर्शन पर इतना आगे जा चुका है कि वहां हिंदी सिनेमा का अभी पहुंचना लगभग नामुमकिन दिखता है. अवतार इसका सबसे बेमिशाल उदाहरण है. यह फिल्म विकल्पहीन नहीं है दुनिया की अवधारणा को जोरदार तरीके से स्थापित करती है. पैन्डोरा का यह भी साफ़ संवाद है कि नरक और स्वर्ग कहीं और नहीं है. यह धरती भी स्वर्ग हो सकती है अगर हम बनाना चाहे. लेकिन हम बाजारू विकास के नाम पर दुनिया को लगातार नरक बनाने पर तुले हैं. हम जब सजग होंगे तो यह धरती भी पैन्डोरा की तरह होगा.

(हैलो दोस्तों! हमारे Telegram चैनल से जुड़े रहिए यहां)

सत्ता से सच बोलने के लिए आप जैसे सहयोगियों की जरूरत होती है
मेंबर बनें
अधिक पढ़ें
×
×