बॉलीवुड फिल्में अलग-अलग अवतार में दिखाई देती हैं. जोया अख्तर भी एक ब्रांड है और करण जौहर भी. फिल्मों में कभी कुछ मिल जाता है कभी कुछ भी नहीं मिलता. हम इसे कुछ इस तरह भी समझ सकते हैं कि एयरपोर्ट पर ड्यूटी फ्री स्टोर होने के बावजूद समय की कमी की वजह से सामान न खरीद पाना.
ऐसी बहुत सी चीजें होती हैं जिन्हें फोटोशॉप नहीं किया नहीं जा सकता. सुंदर लोकेशन, कल्चर, स्टार कास्ट, भाषा इस सब को देसी फ्लेवर में पकाना. दर्शक ये सब तभी पसंद कर सकते हैं जब ये सही तरीके से बनाया गया हो. आखिरकार एक अच्छी फिल्म सिर्फ अच्छी लोकेशन से नहीं बनती बल्कि उसमें काम कर रहे लोगों से बनती है.
अगर पर्दे पर किरदार अपनी कहानी कहने और फिल्म के खत्म होने तक दर्शक को बांधे रखने में कामयाब होते हैं तो ये कहा जा सकता है कि वो एक अच्छी फिल्म है. बरेली की बर्फी अपने स्वीट मैसेज के साथ ऐसा करने में कामयाब रहती है.
निल बटे सन्नाटा के डायरेक्टर अश्विनी अय्यर तिवारी ने एक बार फिर से सिंपल और ईमानदार कोशिश की है. फर्क सिर्फ इतना है कि फिल्म बनाते वक्त बाजार का कुछ ज्यादा ही ध्यान रखा गया है. ये एक स्मार्ट पहल है.
फिल्म की हीरोइन कृति सैनन पहली बार बिना किसी मेकअप के बरेली की बिट्टी के किरदार में दिखाई देती हैं. जो मिठाई की दुकान चलाने वाले पिता (पंकज त्रिपाठी) और स्कूल टीचर मां (सीमा पाहवा) की इकलौती बेटी है.
बिट्टी की जिन्दगी तब बदल जाती है जब वो बरेली की बर्फी किताब के लेखक की खोज में निकलती है. और बिट्टी की तलाश खत्म होती है आयुष्मान खुराना पर. पूरी फिल्म तब बदल जाती है जब फिल्म में राजकुमार राव की एंट्री होती है.
फिल्म में ऐसा कुछ खास नहीं है. लेकिन सीधी-सादी, आसान सी कहानी के साथ जबरदस्त परफॉरमेंस और कड़क डायलॉग डिलीवरी फैन्स का दिल जीत लेगी.
2 घंटे की ये फिल्म लंबी नहीं लगती और फिल्म में मौजूद राजकुमार राव की बेहतरीन अदाकारी ने फिल्म को दिलचस्प बनाने में कोई कमी नहीं छोड़ी है.
इसे मिल रहे है 5 में से 3.5 कि्ंवट
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