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1947, सिर्फ आजादी का नहीं, फिल्मकारों की अभिव्यक्ति की आजादी का भी साल था

आजादी के दौर में फिल्ममेकर्स ऐसा कोई काम नहीं करना चाहते थे, जिससे उन्हें ब्रिटिश सरकार का एहसान लेना पड़े.

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1947 का साल बहुत यादगार है. भारत और पाकिस्तान के बंटवारे ने कहर बरपाया था. लाख डेढ़ लाख लोगों की मौत हुई थी. डेढ़ करोड़ लोग अपनी सर जमीन से कट गए थे, लेकिन हैरानी की बात यह थी कि 1947 में ही बंबई में 114 फिल्में बनी थीं. यह साल ब्रिटिश राज की 300 साल की गुलामी से आजादी का साल था.

फिल्म सेंसरशिप धीरे धीरे बेरहम हो गई थी. वह कानून जिसे ब्रिटिश सरकार के हितों को साधने के लिए 1918 में बनाया गया था. आंकड़े बताते हैं कि 1943 के दौरान करीब 25 फिल्मों को रिलीज किए जाने से पहले कांटने-छांटने के लिए कह दिया गया था. किसिंग सीन्स जिनकी पहले मंजूरी थी, पर मनाही थी.

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बंटवारे ने कई नामचीन लोगों को पाकिस्तान पहुंचाया

इत्तेफाक से हिंदुस्तानी यानी हिंदी और उर्दू में बनने वाली बंबइया फिल्में लाहौर फिल्म इंडस्ट्री से जुड़ी हुई थी. बंटवारे के बाद लोग यहां से वहां हुए. एक्टर सिंगर नूरजहां, लेखक-निर्देशक जिया सरहदी, म्यूजिक कंपोजर्स गुलाम मोहम्मद, ख्वाजा खुर्शीद अनवर, जी.ए.चिश्ती और लेखक-पटकथाकार सआदत हसन मंटो पाकिस्तान चले गए.

गुलजार, जी.पी.सिप्पी, गोविंद निहलानी, बी.आर.चोपड़ा और यश चोपड़ा और गीतकार-शायर साहिर लुधियानवी भारत आ गए.

लेकिन इस तूफान ने हिंदुस्तानी फिल्म निर्माण का ढांचा नहीं टूटा. उस समय परंपरागत और दौलतमंद स्टूडियो बैनर्स का जमाना था. सभी मानते हैं कि उस दौरान मुसलिम फिल्मी हस्तियां काफी घबराई हुई थीं. मिसाल के तौर पर बंटवारे की दहशत में यूसुफ खान ने दिलीप कुमार जैसा स्क्रीन नेम अपना लिया था.

सेंसर की कैंची से बची फिल्में

जाहिर सी बात है, आजादी की लड़ाई पर देशभक्ति से भरी फिल्में बनाना मना था. फिर भी कुमार मोहन की '1857' (1947) जैसी फिल्म किसी तरह प्रदर्शित हो गई थी. फिल्म बगावत की पृष्ठभूमि पर बनी एक लव स्टोरी थी जिसमें सुरैय्या और सुरेंद्र थे.

इसी तरह ज्ञान मुखर्जी की 'किस्मत' (1943) का गाना ‘दूर हटो ऐ दुनिया वालों, हिंदुस्तान हमारा है’ सेंसर की कैंचीं से बच निकला था. फिल्म में अशोक कुमार चोर बने थे. यह फिल्म गांधी जी के भारत छोड़ो आंदोलन के छह महीने बाद रिलीज हुई थी. फिल्म के इस गाने को इतनी लोकप्रियता मिली थी कि इसके गीतकार प्रदीप को अंडरग्राउंड होना पड़ा था, ताकि देशद्रोह के जुर्म में उन्हें गिरफ्तार न कर लिया जाए.

1946 में चेतन आनंद की 'नीचा नगर' में ब्रिटिश शासन के दौरान अमीरों और गरीबों के बीच की खाई को दर्शाया गया था. मक्सिम गोर्की के नाटक द लोएस्ट डेप्थ्स पर आधारित इस फिल्म में चेतन आनंद की अभिव्यक्तिवादी शैली खास नजर आती है. यह कांस फिल्म समारोह में प्रतिष्ठित पाल्मे डी'ओर पुरस्कार पाने वाली एकमात्र भारतीय प्रविष्टि बनी हुई है.

इससे पहले वी. शांताराम की 'स्वतंत्रयाचा तोरन' (आजादी का ध्वज, 1931) में मराठा सम्राट शिवाजी का राजनीतिकरण किया गया था और बताया गया था कि उन्होंने सिंहगढ़ किले में जीत की पताका लहराई थी. फिल्म सेंसर में उलझ गई. सेंसर को ‘आजादी’ जैसे शब्द से दिक्कत थी. फिर फिल्म के टाइटिल को उद्याकल किया गया. कई बदलाव किए गए. तब जाकर फिल्म को प्रदर्शन के लिए मंजूरी मिली.
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तब का फिल्मी फार्मूला था- राजनीतिक टिप्पणियों से बचा जाए

ऐसी बहादुरी कम ही देखने को मिलती थी. शो बिजनेस में टिके रहने का फार्मूला था- रोमांस, आठ से दस गाने, फीयरलेस नाडिया के स्टंट, माइथोलॉजी, सोशल ड्रामा और फैंटेसी. साफ तौर से उस दौर के फिल्मकार ऐसा कोई काम नहीं करना चाहते थे, फिल्में नहीं बनाना चाहते थे, जिनके लिए उन्हें ब्रिटिश सरकार का एहसान लेना पड़े. क्योंकि दर्शक उन्हें नकार सकते थे. और सभी को महसूस हो रहा था कि उपनिवेशवादियों के दिन गिने-चुने ही हैं.

क्या आज भारतीय सिनेमा में वह हिम्मत और अपनी बात पर डटे रहना का माद्दा है? इसमें शक ही है.

ब्रिटिश राज के दौरान यह जुमला चलता था. राजनीतिक अस्थिरता का फिल्मों में कोई जिक्र नहीं होगा. सिर्फ निर्दोष मनोरंजन किया जाएगा. करिश्माई कलाकार, मेलोडी भरा संगीत, उत्तेजक संवाद और प्रेम कहानियां- दो तरफा या एकतरफा- टिकट खरीदने वाले दर्शकों को लुभाने वाले सारे पैंतरे. खोया-पाया, पारिवारिक रिश्तों में दरार और दौलतमंद और गरीब के बीच त्रिकोणीय प्रेम- इन सभी का इस्तेमाल दशकों बाद भी किया गया है.

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1947 की पांच सुपरहिट फिल्में

1947 की पांच सबसे ज्यादा कमाई करने वाली फिल्मों से यही साबित होता है. 'जुगनू', दिलीप कुमार की पहली बड़ी हिट, जिसमें नूरजहां भी थीं. इसका निर्देशन नूरजहां के पति शौकत हुसैन रिजवी ने किया था और उसमें मोहम्मद रफी का एक कैमियो भी था.

दूसरी बड़ी हिट फिल्में थीं पी.एल.संतोषी की 'शहनाई' (रेहाना और नासिर खान), मुंशी दिल की 'दो भाई' (कामिनी कौशल और राजन हक्सर), ए. आर. कारदार की 'दर्द' (मुनव्वर सुल्ताना, सुरैय्या और नुसरत) और के. अमरनाथ की 'मिर्जा साहिबान' (नूरजहां और त्रिलोक कपूर).

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इसी साल 23 साल के राजकपूर और 16 साल की मधुबाला ने किदार शर्मा की 'नील कमल' के जरिये फिल्मी परदे पर कदम रखा. फिल्म फ्लॉप हुई, लेकिन इससे पता चल गया था कि सिनेमा के दो चमकते सितारों ने जन्म ले लिया है.

उस साल की पांच सफल फिल्मों में 'जुगनू' एक त्रिकोणीय प्रेम कहानी थी, जिसमें अमीर गरीब का भेद भी साफ झलकता था. 'शहनाई' में चार मजबूत लड़कियों की कहानी थी. ये जेन ऑस्टन जैसा ड्रामा था, जिसमें लड़कियां अपने लिए मुफीद शख्स को चुनती हैं. दो भाई सामंती ठाकुरदारी व्यवस्था की कहानी थी. दर्द में एक औरत का बलिदान था जो एक डॉक्टर से बेपनाह मोहब्बत करती है. 'मिर्जा साहिबान' एक मसखरे के प्रेम की कहानी थी जो सच्चा प्यार खोज रहा है.

इनमें से किसी भी कहानी से आज के दर्शक शायद ही जुड़ पाएं. ये तो सिर्फ विंटेज सिनेमा के प्रेमियों का शगल है. इन्हें देखिएगा तो पाएंगे कि ये कहानियां बीते दौर की हैं, लेकिन चालीस के दशक से एकदम मेल खाती हैं. उनकी सबसे खास बात थी, उनका उत्कृष्ट संगीत.

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अमर गीतों ने भी फिल्मों को शोहरत दिलाई

फिल्म कमंटेटर भाईचंद पटेल कहते हैं, “'शहनाई' ने देश में जादू कर दिया था... सी रामचंद्र अपने गोवा के असिस्टेंट चिक चॉकलेट की मदद से नई वेस्टर्न बीट लेकर आए थे. लोग नहीं चाहते थे कि उनके बच्चे इसके गीत गुनगुनाएं, ‘आना मेरी जान मेरी जान संडे के संडे’. इस गाने को शमशाद बेगम, मीना कपूर और खुद कंपोजर ने चितलकर के नाम से गाया था.”

अब 'जुगनू' फिल्म के संगीत के बारे में भी. इसके लिए फिरोज निजामी के गीत ‘हमें तो शाम ए गम’ को नूरजहां ने गाया था. 'दो भाई' के गीत ‘मेरा सुंदर सपना बीत गया’ के संगीतकार थे एस. डी. बर्मन और इसे गीता दत्त ने गाया था. 'दर्द' में नौशाद के संगीत से सजे ‘अफसाना लिख रही हूं’ को गाया था, उमा देवी ने (जो बाद में कॉमेडियन टुनटुन बनीं). 'मिर्जा साहिबान' के ‘हाय उड़ उड़ जाए मोरा रेशमी दुपट्टा’ को पंडित अमरनाथ के संगीत सजाया था और इसे गाया नूरजहां, शमशाद बेगम और जोहरा अंबालेवाली ने था. 1947 के ये कुछ अमर गीत हैं.

इसी साल महबूब खान की 'ऐलान' भी रिलीज हुई थी, जिसमें सुरेंद्र और मुनव्वर सुल्ताना थे. इस फिल्म में शिक्षा की जरूरत पर जोर दिया गया था. वी शांताराम की 'मतवाला शायर रामजोशी' (मराठी और हिंदुस्तानी में एक साथ बनी) में बाबूराव पेंटर, जयराम शिलेदार और हंसा वाडेकर थे और इसमें एक ब्राह्मण कवि की कहानी थी जो लोक कला और लावणी नृत्य की तरफ आकर्षित है. तब तक कठोर सामाजिक ढांचे के बीच रूढ़िवादिता की आलोचना करने वाले सुधारवादी विषयों ने दखल देनी शुरू कर दी थी.

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स्टार सिस्टम और छवियों ने जन्म लिया

धीरे धीरे हिंदुस्तानी सिनेमा के दर्शकों ने ऐसे निर्देशकों को पहचानना शुरू कर दिया था जो कई कलाओं में माहिर थे. साथ ही स्टार सिस्टम को भी बढ़ावा मिलने लगा था. अभिनेत्रियों की भी इमेज बनने लगी थी. जैसे स्वर्ण लता शुरुआती ट्रैजिडी क्वीन थीं. मुनव्वर सुल्ताना को अपनी फिल्मों में अक्सर व्यभिचारी पतियों से निपटना पड़ता था. गायक अभिनेता के. एल. सहगल राष्ट्रीय उन्माद यानी नैशनल क्रेज बन गए थे.

उनकी आखिरी फिल्म जे. के. नंदा की 'परवाना', जिसमें उनके साथ सुरैय्या थीं, एक रोमांस ड्रामा था. यह फिल्म 1947 में रिलीज हुई थी, लेकिन उससे पहले ही सहगल की मौत हो चुकी थी.

इस बीच आजादी के बाद के दशक की स्टार ट्रिनिटी अपने रास्ते पर चल पड़ी थी. दिलीप कुमार 'जुगनू' और राजकपूर 'नीलकमल' के जरिए मंच पर आ चुके थे. इसके अलावा देव आनंद जैसा सितारा भी उभरने लगा था. 1946 में पी.एल. संतोषी ने देव आनंद को हम एक हैं में पेश किया था. फिर उसके अगले साल अनादिनाथ बनर्जी की मोहन और यशवंत पिथकर की आगे बढ़ो में उनके कई दूसरे रंग देखने को मिले थे.

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इन तीनों में दिलीप कुमार तब खूब चर्चा में आए जब 1948 में रमेश सहगल की 'शहीद' रिलीज हुई. यह आजाद भारत की पहली राष्ट्रवादी फिल्म थी.

चालीस के दशक की पृष्ठभूमि वाली 'शहीद' एक स्वतंत्रता सैनानी की कहानी थी, जिसे उसके पिता और एक पुलिस वाले से जबरदस्त विरोध झेलना पड़ता है. पुलिस वाला नायक की प्रेमिका (कामिनी कौशल) से प्यार करता है और नायक का विरोधी है. यह फिल्म उस साल की सबसे ज्यादा कमाई करने वाली फिल्म थी. इसका श्रेय फिल्म के उस गीत को भी दिया जाना चाहिए जिसकी संगीत रचना गुलाम हैदर ने की थी. यह गाना था, ‘वतन की राह’.

दरअसल, 1947 ऐसी फिल्मों का वर्ष था जो ब्रिटिश सरकार की बेड़ियों में जकड़ी हुई थीं और साफ बात कहने में डरती थीं, लेकिन पचास के दशक के भारतीय सिनेमा के सुनहरे दौर के लिए जमीन तैयार हो रही थी. अनजाने में ही सही, नेहरूवादी युग का आदर्शवाद हिंदुस्तानी सिनेमा में साफ तौर से नजर आने लगा था. न सिर्फ मनोरंजन, बल्कि उद्देश्यपूर्ण सिनेमा भी फलने फूलने लगा था. ब्लैक एंड व्हाइट ही नहीं, रंगीन फिल्मों में भी. और यह आजादी के अगले दशक की ही कहानी है.

(लेखक फिल्म क्रिटिक, फिल्ममेकर, थियेटर डायरेक्टर हैं. इस आर्टिकल में छपे विचार उनके अपने हैं. इसमें क्‍व‍िंट की सहमति होना जरूरी नहीं है.)

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