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Review: ‘ठाकरे’ में डायरेक्टर साहब ने 2 बड़ी बातें क्यों छिपा लीं?

बाल ठाकरे का किरदार निभाने वाले नवाजुद्दीन ने इस पावरफुल किरदार को उतने ही दमदार तरीके से निभाया है

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'ठाकरे' फिल्म कैसी है... फिल्म देखने के बाद मेरे पास इसके दो जवाब हैं. एक जवाब शिवसेना के कार्यकर्ताओं और मुंबईकर के लिए और दूसरा जवाब मुंबई से बाहर रहने वालों के लिए. शिवसेना वालों के लिए फिल्म में सबकुछ परफेक्ट है. लेकिन बहुत सी ऐसी घटनाओं को डायरेक्टर साहब गोल कर गए जो बाला साहेब के व्यक्तित्व को कमजोर करती थीं.

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'ठाकरे' के ट्रेलर ने फिल्म को लेकर जबरदस्त उत्साह और उत्सुकता जगा दी थी. लेकिन फिल्म को देखने के बाद लगता है कि फिल्म के डायरेक्टर अभिजीत पानसे की फिल्म काफी हद तक बालासाहेब ठाकरे की डाक्यूमेंट्री है. हालांकि इसमें कई विवाद वाले मुद्दों को बिंदास तरीके से दिखाया गया है, लेकिन कई मुद्दों की अनदेखी भी हुई है.

लेकिन एक बात में कोई कंफ्यूजन नहीं है कि बाल ठाकरे का किरदार निभाने वाले नवाजुद्दीन सिद्दीकी ने इस पावरफुल किरदार को उतने ही दमदार तरीके से निभाया है. बालासाहेब के बात करने के अंदाज से लेकर उनके सेंस ऑफ ह्यूमर तक, हर डायलॉग में नवाजुद्दीन ने बालासाहेब के किरदार को जिया है.

फिल्म की कहानी शुरू होती है बालासाहेब की उत्तर प्रदेश के लखनऊ कोर्ट में जोरदार एंट्री से. 1992 में हुए बाबरी मस्जिद विध्वंस मामले में बालासाहेब की कोर्ट में पेशी हुई थी. इस एंट्री का पिक्चराइजेशन इतना बेहतरीन है कि देखने वालों को लगता है कि बालासाहेब खुद लखनऊ कोर्ट पहुंचे हैं.

इसके बाद मामला शुरू होता है और फिल्म पहुंच जाती है फ्लैशबैक में, यानी कि 1960 के बॉम्बे में जब बालासाहेब फ्री प्रेस जर्नल में बतौर कार्टूनिस्ट काम किया करते थे.

मराठी मानुस पर उस वक्त होने वाले दबंगई और इससे होने वाली परेशानियों से बाल केशव ठाकरे किस तरह परेशान थे, ये फिल्म में दिखाया गया है. खुद की मार्मिक नाम के साप्ताहिक की स्थापना से लेकर बाल केशव ठाकरे से बालासाहेब ठाकरे बनने तक का सफर फिल्म में बड़ी बखूबी दिखाया है.

19 जून 1966 शिवसेना की स्थापना को जिस अंदाज में पर्दे पर दिखाया गया है, उसने दर्शकों की जमकर तालियां बटोरीं. बालासाहेब के एक आदेश पर कैसे मुंबई का मराठी मानुस जान देने तक तैयार हो जाता था, इसे भी प्रमुखता से फिल्म में दिखाया गया है.

बालासाहेब का व्यक्तित्व बिंदास रहा है और विवादों को लेकर हमेशा से ही वे सुर्खियों में रहे हैं. फिल्म में भी मोरारजी देसाई का विरोध हो या आजादी के बाद महाराष्ट्र में हुई पहली पॉलिटिकल हत्या कहानिया हों. हम बात करते कृष्णा देसाई हत्याकांड की या शिवसेना पर लगने वाले वसंत सेना के आरोपों की, हर बात को बड़े ही बिंदास अंदाज में फिल्म में दिखाया गया है.

फिल्म राजनीतिक इतिहास के पुराने पन्ने भी पलटती है और बड़ी ऐतिहासिक घटनाओं की याद दिलाती है. इमरजेंसी के बाद इंदिरा गांधी और बालासाहेब की मुलाकात हो या पाकिस्तानी क्रिकेटर जावेद मियांदाद का बालासाहेब से मुलाकात करना हो या मुंबई में हुए दंगों की कहानी, हर एपिसोड को बखूबी दिखाया है.

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‘ठाकरे’ फिल्म से गायब ये दो बड़ी बातें


  1. जैसे 1980 के दशक में बॉम्बे में मिल कामगारों में हड़ताल, जिसमें बाला साहब की भूमिका पर सवाल उठे थे. ये बात इसलिए अहम है कि बालासाहेब ने कामगारों के आंदोलन को समर्थन देने का वादा किया था लेकिन ऐन वक्त पर मिल कामगारों की स्ट्राइक से उन्होंने हाथ खींच लिए, तब बालासाहेब पर मिल मालिकों के साथ साठगांठ का आरोप भी लगा था.
  2. इसी तरह बाला साहेब के लंबे वक्त तक करीबी रहे छगन भुजबल की पार्टी से बगावत को भी फिल्म में कोई जगह नहीं दी गई है.

फिल्म दरअसल बाल ठाकरे के इर्द-गिर्द ही घूमती है तो गानों की गुंजाइश कम है, निर्देशन MNS नेता के हाथ में था, तो परफेक्शन की उम्मीद कम ही थी.

डायरेक्टर ने इसे फिल्म से ज्यादा डॉक्यूमेंट्री का फील दिया है. असल में ऐसा है की 90 और उसके बाद के दशक में पैदा हुए युवाओं को ठाकरे और उनके व्यक्तित्व के बारे में बहुत सारी चीज सुनी-सुनाई ही पता हैं.

ऐसे में इस फिल्म का मकसद लगता है नई जेनरेशन को ठाकरे से उस अंदाज में रूबरू कराना जिस अंदाज में शिवसेना चाहती है. बाद बाकी फिल्म तो फिल्म ही होती है. चाहे वो संजय दत्त पर बनी 'संजू' हो या बालासाहेब पर बनी 'ठाकरे'.

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