ADVERTISEMENTREMOVE AD

क्या #MeToo मूवमेंट को कमजोर करने की कोशिश है फिल्म सेक्शन-375

शिक्षा को बढ़ावा देने वाली फिल्में

Published
story-hero-img
i
छोटा
मध्यम
बड़ा
Hindi Female

अध्याय 1: देसी वीन्सटीन की बातचीत

[होटल का एक पुराना कमरा. कम रोशनी वाले कमरे में दो लोग हैं. एक शख्स परेशान होकर अपनी घड़ी देखता है और ड्रिंक लेता है.]

तो देसी वीन्सटीन 2...? आखिरकार तुमने देख ही लिया?

हां, देसी वीन्सटन 1, मैंने देखा.

ADVERTISEMENTREMOVE AD

और ?

और क्या ?

ये हमारे लिए कितना बुरा है? मेरा मतलब, ये मूवी एक बॉलीवुड डायरेक्टर पर बनी है, जिसपर रेप का आरोप है. MeToo मूवमेंट को अभी ज्यादा दिन नहीं हुए. लोगों के जेहन में अभी उसके उदाहरण ताजा हैं. ऐसी फिल्म हमारे लिए नुकसानदेह हो सकती है ना?

हाहाहाहाहाहाहाहाहा *आंख पोंछता है *

हाहाहाहाहाहाहाहाहा *हंसना तेज होता है *

हाहाहाहाहाहाहाहाहा *हंसी धीरे होती है *

तुम ठीक तो हो?

हां- *10 सेकेंड तक लगातार खिसियानी हंसी हंसता है* - हां, हां, मैं ठीक हूं. उफ, तुमने तो मुझे मार ही डाला था.

हंसने की बात नहीं है देसी वीन्सटीन 2!

हमारे सामने काफी कुछ करने को है. शिक्षा को बढ़ावा देने वाली फिल्में. स्टार अभिनेता, जिनपर यौन शोषण के आरोपों के कारण पहले उनके साथ प्रोजेक्ट्स छोड़ते हैं और फिर उन्हीं के साथ फिल्म करके हैं. ऐसी फिल्में, जिनमें हम यौन शोषण के मुकदमे की सुनवाई करने वाले जज का किरदार निभाते हैं. हमारी विचित्र लोक कला का प्रदर्शन है.

अगर ये ‘सेक्शन 375’ हिट हो गया, तो हमारा जीना हराम हो जाएगा. लोग हमारे खिलाफ हो जाएंगे. हो सकता है कि हमारे स्टूडियो में चल रहे प्रोजेक्ट्स से हाथ खींच लें.

मैं समझता हूं, समझता हूं. ये वाकई हमारे लिए परीक्षा की घड़ी है. आखिरकार हममें से ऐसे कितने हैं, जिनपर आरोप लगा और फिर उन्हें काम मिलना शुरु हुआ? है कि नहीं?

जानते हो, तुमने ठीक समझा. ये ‘सेक्शन 375’ हमारे लिए बुरी है. ये सच को सामने लाती है.

0

रुको, क्या? एक फिल्म, जिसका पूरा शीर्षक है – ‘सेक्शन 375: मर्जी या जबरदस्ती’ – स्पष्ट है कि सबकुछ मर्जी से हुआ, तो ये हमारे लिए सही हो सकता है?

हां देसी वीन्स्टीन 1. वही तो मैंने भी सोचा है. सही है. ट्रेलर से ही हिंट मिल जाता है कि ये मुकदमा झूठा है. तो इसमें अचरज की कोई बात ही नहीं. लेकिन जब मैंने पूरी फिल्म देखी, तो अंत यही नहीं है. पूरी फिल्म इस बारे में है कि हम ऐसे रेप और यौन शोषण के आरोपों की सच्चाई पर शक करने के लिए दर्शकों का नजरिया तैयार करें.

अध्याय 2: इसे खत्म कैसे किया जाए फाफ?

तुम्हारा मतलब क्या है?

सबसे पहले सीन से ये अनुमान लगना शुरु होता है. प्रोसेक्यूशन वकील के साथ इसकी शुरुआत होती है, जो किरदार ऋचा चड्ढा का है. वो आरोप लगाने वाली सहमी हुई लड़की को देख रही है. लड़की उसे देखती है, फिर चली जाती है और चड्ढा के चेहरे पर बेबसी दिखती है.

ADVERTISEMENTREMOVE AD

हमें उसे देखकर खुश नहीं होना चाहिए. दर्शकों को कैसे पता चलेगा कि वो सहमी हुई क्यों है? दर्शक तो ये देख रहे हैं कि वकील केस हारने के कारण दुखी है. ये नहीं कि वो लड़की झूठ बोल रही है.

चड्ढा का किरदार सिर्फ दुखी होना नहीं दिखाता. ओपनिंग सीन में ही पता चलता है कि उसका भरोसा टूटा है. इसके अलावा जैसे-जैसे मूवी आगे बढ़ती है, चीजें हमारे पक्ष में होती दिखती हैं.

उदाहरण के लिए, उस सीन की बात करते हैं, जिसमें उसके साथ रेप होता दिखाया जाता है. गौर करने वाली बात है कि वो ‘प्रतिरोध’ तो करती है, लेकिन रेपिस्ट को रोकने के लिए कुछ बोलती नहीं.

ये बात ध्यान देने लायक है. क्योंकि बाद में उसका कहना है कि वो चिल्लाई थी. लेकिन फिल्म में जब भी ये घटना दिखाई जाती है, फिल्म के शुरू में या उसके बयान के दौरान, उसे चिल्लाते हुए नहीं दिखाया जाता है.

तो दर्शकों के सामने ये साफ है कि वो सच नहीं बोल रही.

ओह, ये अच्छी बात है यार. दर्शकों को ये भी नहीं बताना होगा कि वो झूठ बोल रही है, क्योंकि वो शुरू से ये बात जानते हैं.

वाकई. और पूरी मूवी में यही पैटर्न बना रहता है. अक्षय खन्ना, तरुण सलूजा के किरदार में है. दोषी के वकील के रूप में एक के बाद एक तर्क देता है कि किस प्रकार पीड़ित लड़की झूठ बोल रही है. किस प्रकार घटनाओं पर उसके बयान मेल नहीं खाते और फिर अपना पक्ष बताता है कि आखिरकार हुआ क्या था.

कई बार साबित करने के लिए सबूत नहीं मिलते कि लड़की झूठ बोल रही है. फिर भी वो मजबूती से अपना पक्ष रखता है, जिसका कोई सबूत नहीं. उदाहरण के लिए वो काल्पनिक बात कहता है कि उसके पास उस लड़की और आरोपी के बीच पहले सहमति से हुए यौन संबंध का वीडियो है. जबकि उसके पास ऐसा कोई वीडियो नहीं होता. जब लड़की उसे कोर्ट में वीडियो चलाने से मना करती है, तो वो इस मनाही को सबूत के रूप में पेश करता है कि लड़की झूठ बोल रही है.

एक और उदाहरण है, जब वो दावा करता है कि लड़की की जांघों पर चोट आरोपी ने नहीं पहुंचाए हैं. उसने जोर देकर कहा किया कि लड़की ने सीढ़ियों पर एक ऐसी जगह खुद को जानबूझकर चोट पहुंचाया, जहां सीसीटीवी कैमरा नहीं लगा है और इसे फिल्म में ग्राफिकली दिखाया गया. इस घटना का कोई फुटेज या चश्मदीद का बयान या स्वीकार करने वाला बयान नहीं था, जिसके मुताबिक इसे सही बताया जाता. लेकिन ऐसा जोर देकर निश्चित रूप से होता बताया गया, कि वास्तव में यही हुआ होगा. जज और दूसरे दर्शकों से उम्मीद की जा रही थी कि वो खुद चोट पहुंचाने के अक्षय की कल्पना को सच मान लें.

ADVERTISEMENTREMOVE AD

हम्म. लेकिन कोर्ट पर इससे कोई फर्क नहीं पड़ता. ठीक है? जज सिर्फ इसी बात से नहीं मान सकते कि लड़की ने वीडियो दिखाने से मना कर दिया. इसका मतलब है कि आपसी सहमति से यौन संबंध स्थापित हुए. लड़की को चोट लगने के बारे में भी जज सलूजा की दलील नहीं मान सकते, क्योंकि वो ऐसा होने की कल्पना कर रहा था.

यही तो इस बात की खूबसूरती है: दर्शकों को इस बात से कोई मतलब नहीं कि जज क्या कहते हैं या कोर्ट क्या फैसला करती है. शुरू से ही खन्ना का किरदार कहता रहा है कि जरूरी नहीं कि कानून इंसाफ दिला दे. अब ये बात तुम अक्सर वकीलों के मुंह से सुना करोगे. जबकि ये कोई नई बात नहीं है.

लेकिन चूंकि वो बार-बार उस सीन को दिखाते रहे कि वास्तव में क्या हुआ था, तो दर्शक इस बात से बेपरवाह हैं कि जज क्या सोचते हैं. क्योंकि वो ये मानने लगते हैं कि उन्हें सच्चाई और वास्तविकता मालूम है.

इस बात और इस आइडिया से कि कानून सही नहीं करता, दर्शकों की सहानुभूति पीड़ित लड़की के साथ हो जाती है.

तो तुम मुझे ये कह रहे हो कि दर्शक फिल्म में आरोपी के खिलाफ होंगे? क्या देसी वीन्सटीन 2, ये कैसे हो सकता है?

कुछ ऐसा ही. कई दूसरी बातें भी हैं, जो प्रोसेक्यूशन के खिलाफ आपका मन बनाती हैं.

एक तो चड्ढा का किरदार, दूसरा हीरल गांधी को एक महत्त्वाकांक्षी महिला के रूप में पेश किया जाता है, जो एडवोकेट जनरल बनना चाहती है. वो अपने तर्कों की शुरुआत बेवजह भाषण के साथ करती है कि भारत दुनिया का रेप कैपिटल बनता जा रहा है और जिसका सलूजा एक कट्टर देशभक्त की तरह विरोध करता है.

सुनवाई के दौरान वो अपने मुवक्किल से कहती है कि वो कोर्ट को कुछ जानकारियां न दे, बार-बार ब्लाइंडसाइडेड होती है और भावनाओं में बहकर “ऑब्जेक्शन, ऑब्जेक्शन” चिल्लाती है, जबकि सलूजा शांति से अपनी नई दलीलें पेश करता रहता है.

सलूजा शांत और सौम्य तरीके से पेशेवरों की तरह कानूनी कार्यवाही करता है. जब वो गलत बातें कहता है तो कोई उसका विरोध नहीं करता. उदाहरण के लिए वो कहता है कि रेप मामलों में 25 फीसदी आरोपियों को दोषी ठहराया जाता है. इसका मतलब है कि 75 फीसदी आरोपी बेगुनाह हैं.

ADVERTISEMENTREMOVE AD
साथ फिल्म देखने वाले मेरे वकील दोस्त ने कहा कि अगर कोर्ट आपको दोषी करार नहीं देती, तो इसका मतलब ये नहीं कि वो आपको बेगुनाह ठहरा रही है. लेकिन सलूजा को कोई दुरुस्त नहीं करता, कोई 2016 के NCRB की रिपोर्ट का जिक्र नहीं करता कि उस साल जांच किए गए 2.25 फीसदी मामले ही झूठे पाए गए थे.  

अध्याय 3: कानून बेहूदा है

तुमने एक वकील के साथ मूवी देखी? बहुत झेलना पड़ा होगा तुम्हें.

ओह गॉड. हां. वो बार-बार कहता रहा कि ये गलत है, वो गलत है. मैं तुमसे क्या कहूं भाई, एक समय तो मन कर रहा था कि या तो उसका गला घोंट दूं या अपना.

पहले तो मैंने सोचा कि ये कोई ऐरा-गैरा चिन्दी टाइप का वकील होगा. लेकिन मुझे ये भी लगा कि दरअसल सारी बातें आरोपी के पक्ष में हैं.

सबसे पहले, हम जो कोर्ट रूम सीन देख रहे थे, कहानी के मुताबिक वो बॉम्बे हाईकोर्ट का अपील कोर्ट था, क्योंकि निचली अदालत पहले ही उसे दोषी ठहरा चुकी थी. इसका मतलब उसे साबित करना था कि निचली अदालत का फैसला गलत है. सूबूतों की सही तरह से जांच नहीं की गई, इत्यादि. जबकि ये तो दोबारा सुनवाई हो रही थी, जिसमें प्रोसेक्यूशन को हर बात फिर से साबित करनी पड़ रही थी.

इसके बाद मुकदमे या अपील के बीच में ही सलूजा डिफेंस की पूरी रणनीति बदल देता है. ये घटना हुई ही नहीं- ये दलील देने के बजाय वो इस बात पर जोर देने लगता है कि सहमति से यौन संबंध बनाए गए. आमतौर पर ट्रायल कोर्ट के बाद अपील कोर्ट में इस तरह डिफेंस बदलने की इजाजत नहीं दी जाती. अगर महमूद फारूकी जैसे केस में ये मुमकिन भी हो, तो भी आपको मुकदमे के बीच में ट्रैक बदलने की इजाजत नहीं मिलती.

फिल्म में जज ने भी कोर्ट में कुछ भी दिखाने की इजाजत दे दी. ये OJ Simpson स्टाइल है ‘if-the-glove-doesn’t-fit-you-must-acquit’ जीन्स उतारना और फिर फेक हार्ड डिस्क. वास्तव में इनमें कुछ भी मुमकिन नहीं. लेकिन चूंकि ऐसा होता है तो दर्शकों को भरोसा होने लगता है कि दोषी बेगुनाह है, कोर्ट चाहे जो भी कहे.

ये सब तो ठीक है, लेकिन लगता है कि मूवी ने पूरे MeToo मामले को एकबारगी नजरंदाज कर दिया है. याद है, किस प्रकार सोशल मीडिया और टीवी के धुरंधर हमारे खून के प्यासे हो रहे थे? उन्होंने तो हमें दोषी साबित करके ही छोड़ा था. उन्होंने एक ऐसा माहौल बना दिया था, कि किसी के लिए भी हमारा साथ देना मुश्किल हो रहा था.

अरे देसी वीन्सटीन 1, उसका भी ख्याल रखा गया है. उन्होंने हिंसा पर उतारु भीड़ और कोर्ट के बाहर बेकार के प्रदर्शन दिखलाए हैं. उन्होंने इस केस को लेकर सोशल मीडिया पर भी रैन्डम हैशटैग के साथ लोगों को गुस्सा उतारते दिखाया है.

चूंकि दर्शकों को मालूम है कि वास्तव में क्या हुआ था, तुम भी इन लोगों को शक की निगाहों से देखने लगे हो. फिल्म ये भी पूछती है कि ऐसे मामलों में जिस प्रकार लोगों का गुस्सा उतरता है, उन्हें आखिर कैसे मालूम चलता है कि दरअसल हुआ क्या है. ठीक है?

ADVERTISEMENTREMOVE AD

इस नजरिये से देखें तो पूरा MeToo मूवमेंट लोगों का बेवजह गुस्सा लगेगा.

यही तो हमें चाहिए! ये बेहद जरूरी है. देसी वीन्सटीन 2, इस बात पर तो एक और पैग बनता है. मैं तो इन ट्विटर टाइप लोगों से थक गया हूं, जो अच्छे देसी वीन्सटीन की हमारी छवि बर्बाद कर देने पर तुले हैं.

मैं समझता हूं. ठीक है? और बात यहीं खत्म नहीं होती. ये फिल्म पूरी कानूनी प्रक्रिया पर सवाल ही खड़े नहीं करती, तुम्हें ये भी लगने लगता है कि रेप से जुड़े नियम-कानून भी बेहद कमजोर हैं.

[देसी वीन्सटीन 2 दो पटियाला पैग बनाकर लाता है.]

क्या? कैसे?

वो दो बातें कहते हैं. *ड्रिंक देकर गिलास टकराता है*

पहली बात: वो कहते हैं कि अगर कोई आदमी अपने मातहत काम करने वाली महिला से सेक्स करता है और महिला दावा करती है कि उसकी मर्जी के बगैर सेक्स किया गया, तो आरोपी को साबित करना होता है कि वो बेगुनाह है. निश्चित रूप से ये गलत लगता है. लेकिन हकीकत में ऐसा नहीं होता. कानून कहता है कि ये सहमति का अनुमान है. लेकिन ये अनुमान सही भी हो सकता है.

दूसरी बात: वो कहते हैं कि रेप के आरोपी को सिर्फ आरोप लगाने वाली के इस बयान के आधार पर दोषी ठहरा दिया जाता है कि उसने सहमति नहीं दी थी. ये उसी हद तक ठीक है, जिसमें सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि अगर प्रोसेक्यूशन पर शक करने की कोई वजह नहीं है, तो पीड़िता के बयान को साबित करने के लिए सबूतों की आवश्यकता नहीं. लेकिन वो जो भी कह रही है, उसपर आप शक कर सकते हैं और इसका स्टैंडर्ड बेहद लो होता है.

याद रहे, महमूद फारूकी भाई के मामले में कोर्ट ने मान लिया कि महिला ने असहमति जताई थी, लेकिन उसकी ना बेहद कमजोर थी, तो क्या ये उसकी सहमति नहीं थी?  
ADVERTISEMENTREMOVE AD

लेकिन दर्शकों को ये सब नहीं बताया गया, है ना?

बिलकुल सही. उन्हें यही दिखाया गया कि रेप के बेचारे आरोपी के मामले में कानून में कितनी नाइंसाफी है. यहां कि सलूजा का एक पूरा भाषण है, जिसमें वो कहता है कि किसी इंसान की दौलत और शोहरत किसी काम की नहीं रहती, क्योंकि ऐसे आरोपों से उसकी साख मिट्टी में मिल जाती है.

*खीखी करके हंसता है*

[दोनों देसी वीन्सटीन अपने ड्रिंक खत्म करते हैं और नशे में दिखते हैं.]

नतीजा: इसमें कुछ नहीं रखा है, यारों

ये अद्भुत है. देसी वीन्सटीन 1, लगता है कि ये मूवी हम जैसों को बचाने के लिए ही बनाई गई है. हमें पीड़ित बताने और ये साबित करने के लिए बनाई गई है कि ज्यादातर रेप के आरोप झूठे होते हैं. यहां तक कि कोर्ट में जिन्हें दोषी ठहरा दिया गया, शायद वो भी.

‘लगभग’ यही बात सच है.

[देसी वीन्सटीन 1 दोनों के लिए एक और ड्रिंक तैयार करता है, सभी बत्तियां जलाता है और नशे में अपनी फीमेल असिस्टेंट को आवाज देता है.]

ADVERTISEMENTREMOVE AD

मेरा मतलब है, ऐसा नहीं है. वास्तव में ऐसा नहीं है. ऐसा नहीं है कि इंडस्ट्री एक ऐसी मूवी नहीं बनाएगी, जो शोषण और रेप के आरोपी धनी, रसूखदार लोगों के लिए फायदेमंद होगी. हमें ऐसी प्रोपेगंडा मूवी नहीं बनानी चाहिए, जो महत्त्वपूर्ण समय पर लोगों की सोच पर असर डाले.

धरती पर कौन होगा, जो ऐसा कहेगा. हुंह?

(हैलो दोस्तों! हमारे Telegram चैनल से जुड़े रहिए यहां)

सत्ता से सच बोलने के लिए आप जैसे सहयोगियों की जरूरत होती है
मेंबर बनें
अधिक पढ़ें