ADVERTISEMENTREMOVE AD

‘शिकारा’ में कश्मीरी पंडितों का दर्द दिखा, विधु विनोद चोपड़ा नहीं 

कश्मीरी पंडितों के पलायन को दिखाने के लिए शायद किसी और दमदार फिल्म की जरूरत है

Updated
story-hero-img
i
छोटा
मध्यम
बड़ा
Hindi Female

ऐ वादी शहजादी बोलो कैसी हो

इक दिन तुमसे मिलने वापिस आऊंगा

कुछ बरसों से टूट गया हूं खंडित हूं

वादी तेरा बेटा हूं मैं...पंडित हूं...

ADVERTISEMENTREMOVE AD

विधु विनोद चोपड़ा की बहुप्रतीक्षित ‘शिकारा’ को कश्मीर का कश्मीर के लिए एक प्रेम पत्र के तौर पर दिखाया गया है. दुर्भाग्य से चोपड़ा न तो उस भावना को व्यक्त कर पाए हैं जो नायक डॉ शिव कुमार धर अमेरिकी राष्ट्रपति को लिखे अपने पत्रों में व्यक्त करते हैं, न ही वे फिल्म के संदेश को स्पष्ट कर सके हैं.

बहरहाल फिल्म यह बताने में कामयाब है कि कश्मीर से पंडितों का पलायन किस दबाव और निराशा में हुआ. मगर, तरीका ऐसा है कि यह शरणार्थी जैसा चित्रण नहीं करता.
0

क्यों विधु विनोद चोपड़ा ने पूरा जोर नहीं लगाया?

फिल्म के कथानक में खो जाने के बावजूद डायरेक्टर कुर्बानी देता है और वह नाटकीयता परोसने के लोभ से बचता है.पंडित समुदाय को जब इस्लामिक लोगों ने निशाना बनाना शुरू किया तो कश्मीर घाटी छोड़ने वाले हज़ारों परिवारों में से चोपड़ा का परिवार भी एक था.उनके परिवार का नेतृत्व करने वाली उनकी मां शांति थीं जिनके नाम फिल्म समर्पित की गई है.

चोपड़ा का संयम जहां सराहनीय है, वहीं यह अनावश्यक भी है. पंडितों का पलायन भारतीय इतिहास पर सबसे गम्भीर धब्बों में से एक है. मसले से निपटने का उनका तरीका प्रभावशाली है और यह दर्शकों को सामंजस्य बिठाने और यहां तक कि मसले को खत्म समझ लेने का अवसर भी देता है. वे एक सर्जन की तरह पेश होते हैं और इसके लिए सिनेमैटिक इफेक्ट की कुर्बानी भी देते हैं.

हां, चोपड़ा ने पंडितों के पलायन के मुद्दे को सनसनी बनाने की जरूरत नहीं समझी है.बाहरी प्रभाव से बच पाने की क्षमता के लिए उन्हें धन्यवाद दिया जाना चाहिए. लेकिन उनके अंदर जो फिल्म निर्माता है उसका खुलासा वे स्टोरी में क्यों नहीं करते? यहां वे बेरहम हैं. बगैर किसी नाटकीय तनाव या आश्चर्य के साथ कहानी आगे बढ़ती है.

ADVERTISEMENTREMOVE AD

शिकारा में चरित्र साधारण, मगर कलाकार सक्षम

यह बिल्कुल अक्षम्य लगता है कि पलायन की कहानी से पहले ‘शिकारा’ हमें विभिन्न चरित्रों के बारे में नहीं बताती. शिव कुमार धर और शांति सप्रू आखिरकार हैं कौन? किस दौरान वे पले-बढ़े? शिव की कविताओं और शांति की कुकिंग को किसने प्रेरणा दी? लतीफ लोन के परिवार के साथ उनके पिता के अलावा वे कौन लोग थे? वे कश्मीरी महिलाएं कहां थीं, जो कभी शांति की मित्र और पड़ोसी हुआ करती थीं?

शिकारा के पात्रों को ईएम फ्रॉस्टर फ्लैट कैरेक्टर यानी सामान्य पात्र बताते हैं. ऐसे पात्र जिनसे कुछ नया नहीं निकलता. कलाकारों ने निर्विवाद रूप से सटीक प्रदर्शन किया है लेकिन वे और बहुत कुछ कर सकते थे. सादिया और आदिल खान ने नायक-नायिका के दर्द और नुकसान को बयां किया है. खान की प्रभावशाली आंखें भविष्य में उनकी बड़ी दौलत साबित होने वाली हैं.

ADVERTISEMENTREMOVE AD

शिकारा में चमकते दृश्य

चूंकि शुरुआती कुछ मिनटों के बाद चरणबद्ध तरीके से कहानी आगे बढ़ती है इसलिए नाटकीयता या किसी अन्य प्रभाव वाले क्षण नहीं आते. हालांकि कई दृश्य जरूर सामने आते हैं जो सूक्ष्मता और गहनता को बयां करते हैं. शांति फिल्म में दो बार रोगन जोश बनाती हैं : पहली बार अपने श्रीनगर स्थित खुबसूरत घर में और बाद में जम्मू की रिफ्यूजी कॉलोनी के 8 बाई 8 क्वार्टर में.पहले उदाहरण में बर्तन मांस से भरा होता है जबकि दूसरे उदाहरण में मांस की मात्रा घट जाती है जो कश्मीरी विनम्रता के साथ गरीबी दिखाती है. (छोटी शिकायत यह है कि शांति श्रीनगर में भोजन परोसने के लिए जिन बर्तनों का उपयोग करती हैं, वे 90 के दशक में भारतीय बाज़ारों में नहीं मिला करते थे।)

कश्मीरी पंडितों के पलायन को दिखाने के लिए शायद किसी और दमदार फिल्म की जरूरत है
शिकारा खूबसूरत फिल्म है लेकिन कश्मीरी पंडितों के पलायन को दिखाने के लिए शायद किसी और दमदार फिल्म की जरूरत है
(फोटो-ट्विटर)

एक अन्य मार्मिक दृश्य है जिसमें माता से बिछड़ चुका बछड़ा है. उसे भागता पंडित परिवार न चाहते हुए भी छोड़ जाता है. अकेला छोड़ दिया गया बछड़ा यह सवाल उठाता दिखता है कि जो लोग अपनी ज़िन्दगी बचाने के लिए भाग गये, क्या उनकी निर्वासित जिन्दगी बेहतर रही? सबकुछ के बा भी कुछ पंडित परिवार वहीं रह गये और कश्मीर घाटी के अलग-अलग हिस्सों में जीने लगे. शायद हम इस मसले को कभी हल न कर पाएं. जम्मू वेडिंग सीन से पता चलता है कि किस तरह निर्वासित जीवन जीते लोग अपनी पहचान और संस्कृति से जुड़े रहते हैं और इधर-उधर भटकते रोते-गाते आम जीवन में रम जाते हैं.

ADVERTISEMENTREMOVE AD

बेहतर परोसी जा सकती थी पंडितों के पलायन की कहानी

जब सिनेमा की बात आती है तो बढ़िया से बढ़िया कहानी भी खराब ट्रीटमेंट की वजह से बेकार हो जाती है. यहां शिव और शांति की कहानी हिंसा, पलायन और गम - आम तौर पर दर्शकों को पता है. विवाद और व्यक्तिगत नुकसान की कहानियां पटकथा विकसित करने के लिए कई अवसर पैदा करती हैं. अपनी प्यारी कोट या टीवी पर बेनजीर भुट्टो के सांप्रदायिक भाषण जैसे ईजाद किए गये दृश्यों में भी बारीकियां दिखती हैं.

साउंड ट्रैक भी संतोषजनक नहीं है. कई बार यह झकझोरता भी है. वादी शहजादी जैसी श्रेष्ठ कविता के अनुकूल इरशाद कामिल का बोल नहीं है.

अपने ट्रेलर के लिए शिकारा पहले ही विवाद में आ चुका है. एक तरफ यह डरा हुआ भी दिखता है दूसरी तरफ ईमानदार भी नजर नहीं आता. दोनों किस्म की आपत्तियों को इसने खारिज किया है चाहे वह 90 के दौर की राजनीति हो या फिर वर्तमान परिवेश. शिकारा निराश करती है क्योंकि चोपड़ा ने कलात्मक विकल्प चुना. लाइसेंस से परहेज किया और इसे अच्छी तरह अंजाम नहीं दिया.

(हैलो दोस्तों! हमारे Telegram चैनल से जुड़े रहिए यहां)

Published: 
सत्ता से सच बोलने के लिए आप जैसे सहयोगियों की जरूरत होती है
मेंबर बनें
अधिक पढ़ें
×
×