सावधान, आगे फिल्म के बारे में कई खुलासे हो सकते हैं. मैं शुरुआत में ही कह देना चाहता हूं- ओम राउत निर्देशित ‘तानाजी, द अनसंग वॉरियर’ हाल के वर्षों में बॉलीवुड से निकली इस्लामोफोबिक दौर की नई फिल्म है.
अब मैं खुद को समझाने की कोशिश करता हूं कि किस तरह फिल्म में एक राजपूत और हिन्दू उदयभान राठौर मुख्य खलनायक या बागी है. तो क्या यह वही इस्लामोफोबिया है जिस बारे में मैं बात कर रहा हूं?
जो लोग वास्तव में इस पर विचार करना चाहते हैं आगे पढ़ें. बाकी लोग टिप्पणियां करते हुए आगे बढ़ सकते हैं.
पीरियड फिल्म का आधुनिक संदर्भ
फिल्म के सशक्त लिखित दृश्यों में एक है शिवाजी का सहयोगी तानाजी मालुसरे का (यह भूमिका अजय देवगन ने निभाई है) मुगलों के वफादार हिन्दू ग्रामीणों के एक समूह के सामने बेचैनी भरा एकतरफा जोशीला भाषण.
वह बताता है कि किस तरह उनके जानवरों को ‘उन लोगों’ ने चुरा लिया है, जिस तरह से वे जी रहे हैं (बाहरी लोगों की सेवा में) वह मौत के समान है और यहां तक कि उल्लेख करता है कि “खुल के जय श्री राम भी नहीं बोल सकते”.
अब ऐसा क्यों लगता है कि हमने हाल ही में कहीं यह सब सुना है?
हां...मुझे याद आता है जब कहा जाता है “बीजेपी नेता ख़बर में हैं.”
फ़िल्म में हिन्दू-मुसलमान का संदेश लगातार कभी जोर देकर तो कभी-कभी रहस्यमय बनाकर दिया गया है. लेकिन क्या 1670 में कोंढणा की लड़ाई वास्तव में धर्म के आधार पर (जिस बारे में तकरीबन पूरी फिल्म है) लड़ी गयी थी? या कि यह लड़ाई इस इलाके के दो शासकों (सेनाओं) के बीच थी जिसका विश्वास से शायद ही कोई लेना देना था? आखिरकार दोनों तरफ के सेनानायक (उदयभान और तन्हाजी) खुद हिन्दू थे.
तन्हाजी का ट्रेलर रिलीज होने के बाद द क्विन्ट के एक आर्टिकल में इस ओर ध्यान दिलाया गया था, “पोस्टर खुद कहता है देवगन अभिनीत तानाजी देखने में तिलक के साथ हिन्दू लगता है जबकि सैफ अली ख़ान अभिनीत उदयभान एक मुसलमान की तरह दिखता है जिसकी दाढ़ी है और कोई धार्मिक चिन्ह नहीं है. ऐसा तब है जब दोनों हिन्दू है.”
लेखक और एक्टिविस्ट राम पुनियानी ने 2015 में एक आलेख में इस घटना के बारे में विस्तार से लिखा है, “यह महसूस करने की जरूरत है कि शिवाजी के इर्द-गिर्द हुई लड़ाई में सांप्रदायिक राजनीति और जातीय संघर्ष को देखा जा सकता है. वास्तविक शिवाजी को समझने की जरूरत है ताकि हम इन संकीर्णताओं को नजरअंदाज कर सकें.”
धार्मिक गीतों का उपयोग
गीतों में पात्रों के धर्म प्रमुखता से नज़र आते हैं. ‘माया भवानी’ से ‘शंकरा रे शंकरा’ तक सारे गीत तानाजी और उनकी पत्नी सावित्री बाई मालुसरे (काजोल अभिनीत) पर फिल्माए गए हैं जो धार्मिक सकारात्मकता को बगैर किसी बाधा के मजबूत बनाती हैं. इसी संबद्धता की वजह से तानाजी और उनके साथ के योद्धाओं को दर्शकों का दिव्य समर्थन मिलता है. वे धार्मिक हैं. वे अच्छाई के लिए लड़ने वाले लोग हैं. युद्ध में एक के पक्ष में मानकों को झुकाने की यह तकनीक वास्तव में धूर्ततापूर्ण है क्योंकि इससे स्क्रीन पर दिखाए जा रहे धर्म आधारित विवाद का स्वरूप भी निर्धारित होता है.
हिन्दुस्तान के लिए स्वंत्रता संघर्ष?
पूरी फिल्म ऐसे दिखलायी गयी है मानो यह हिन्दुस्तान की स्वतंत्रता का संघर्ष हो. हमें बार-बार बताया गया कि यह इस ‘मिट्टी’ के लोगों का ‘स्वराज’ के लिए संघर्ष है.
1600 ईस्वी के उत्तरार्ध में शायद कोई लड़ाई हिन्दुस्तान के लिए संघर्ष के तौर पर ब्रांडेड नहीं हो सकती थी.
लेकिन कोंढाणा जैसे युद्ध को हिन्दुस्तान के लिए स्वतंत्रता संघर्ष के रूप में दिखाया जाना, भगवा को इस धरती से जोड़ना और मुस्लिम शासकों को दूसरा बताकर दिखाना- कहने की जरूरत नहीं कि यह निश्चित विचारधारा के हिसाब से ही उपयुक्त लगता है.
जैसा कि स्वरा भास्कर ने द क्विंट के मंच पर टिप्पणी की थी (हालांकि उन्होंने खास तौर पर तानाजी के बारे में नहीं कहा था), “बॉलीवुड से जिस तरीके का ऐतिहासिक इतिहास बीते कुछ सालों से निकलकर आ रहा है, मुझे लगता है कि वे लोग हिन्दुत्व विचारधारा के हाथों खेल रहे हैं और यह इतिहास का हिन्दुत्व लेखन या पुनर्लेखन है. हम ऐसे दौर में हैं जब समूचे मुगल काल को खराब बताया जा रहा है और यह सब तथ्यात्मक रूप से गलत है. मैं समझती हूं कि हमारे इतिहासकार नहीं बचेंगे अगर वे चुप रहे और सामने आ रही इन ‘ऐतिहासिक’ फिल्मों को देखते रहेंगे.”
सही और गलत का चरित्र, संदेह की कोई गुंजाइश नहीं
वह बात जिस पर मैं जोर देना चाहता हूं. ऐसा नहीं है कि उदयभान और तानाजी के बीच लड़ाई के बारे में बनी फिल्म पर मैं आपत्ति दर्ज कराना चाहता हूं. मेरी आपत्ति दो कमांडरों के सही और गलत चित्रण पर है. एक राक्षस का रूप है और दूसरा ऐसा है जो गलत कर ही नहीं सकता.
उदयभान राठौड़ के मांस खाने के तरीके से लेकर नाचने तक खलनायक अपनी शरीर की भाषा और जो कुछ वह करता है उससे दूर नजर आता है. यह उस रणवीर सिंह की याद दिलाता है जो पद्मावत में अलाउद्दीन खिलजी की भूमिका निभाते वक्त ऐसे मांस भक्षण कर रहा था मानो वह राक्षस हो. और हमें अच्छी तरह से उस फिल्म में रणवीर सिंह का नाचना याद है. अगर हमें अच्छे से पता नहीं होता तो हम खिलजी की भूमिका निभाते रणवीर सिंह के प्रति श्रद्धांजलि स्वरूप सैफ के कुछ कदमों को भूल जाते.
मेघना गुलजार निर्देशित ‘राज़ी’ हाल की फिल्मों में एक अच्छा उदाहरण है जिसमें एक-दूसरे के विरुद्ध चरित्रों के बीच संदिग्ध का चित्रण हुआ है. पाकिस्तानी सैन्य अफसर के तौर पर विकी कौशल याद है?
तो बगैर किसी निरपेक्षता का सहारा लिए एक मजबूत प्लॉट के साथ फिल्म से दर्शकों को बांधे रखना बिल्कुल सम्भव है. हम बॉलीवुड की हालिया फिल्मों में ऐसी चीजें देखने के आदी हो गये हैं.
दबे हुए संवाद, दोबारा डब हुए बिट्स और हटायी गयी मातृहत्या
- फिल्म के दौरान पहले डिस्क्लेमर में कहा गया है कि हालांकि फिल्म प्रख्यात इतिहासकारों के साथ मशविरा के बाद बनायी गयी है लेकिन यह ऐतिहासिक रूप से सही होने का दावा नहीं करता.
- फिल्म में मराठाओं के बारे में जानकारी देते वक्त एक अन्य डिस्क्लेमर में कहा जाता है कि यहां संदर्भ पूरी सेना का है और किसी खास समुदाय या हिस्से का नहीं है.
- सीबीएफसी के निर्देशों के अनुसार एक दृश्य जहां उदयभान को अपनी ही मां की हत्या करते दिखाया गया है, उसे फिल्म से बाहर कर दिया गया.
- कई संवाद ऐसे भी हैं जिनकी आवाज़ गुम कर दी गयी है जिनमें उदयभान को एक राजपूत के तौर पर बताया गया है.
सीबीएफसी ने जो बदलाव किए हैं उसकी पूरी लिस्ट यह है.
ट्रेलर लॉन्च के बाद की निम्न आलोचनाएं हुईं, कई अन्य चीजें भी फिल्म में संपादित की गयी हैं.
- ट्रेलर में सावित्री बाई मालुसरे का विवादास्पद संवाद था जिसे दोबारा डब किया गया जो कम आपत्तिजनक है. ट्रेलर में उसने कहा था, “जब शिवाजी राजे की तलवार चलती है तो औरतों का घूंघट और ब्राह्मणों का जनेऊ सलामत रहता है.” शुक्र है कि तानाजी के निर्माताओं ने यह समझा कि वह संवाद क्यों समस्या पैदा करने वाला था.
- मराठा झंडे पर ओम का संकेत ट्रेलर में दिख रहा था. उसे निर्माताओं ने फिल्म से हटा दिया. द क्विंट को एक साक्षात्कार में प्रोड्यूसर अजय देवगन ने इसे हटाने का कारण विस्तार से बताया था, “तकनीकी रूप से यह गलत था. इसलिए नहीं कि हम दबाव में आ गये. हमने कुछ इतिहासकारों से बात की और उन्होंने कहा कि कभी (झंडे पर) ओम का चिन्ह नहीं था. इसलिए हमने हटा दिया.”
सर्जिकल स्ट्राइक
विडम्बना यह है कि आधुनिक संदर्भ को खुद एक्टर प्रोड्यूसर अजय देवगन ने अपने उस ट्वीट से चिन्हित किया है जिसमें तानाजी के ट्रेलर को रिलीज होने के बाद वे प्रमोट कर रहे थे.
देवगन ने लिखा था, 4 फरवरी 1670 : वह सर्जिकल स्ट्राइक जिसने मुगल साम्राज्य को हिला दिया! इतिहास गवाह है ऐसा पहले कभी नहीं हुआ.”
मुगलों के खिलाफ मराठाओं के संघर्ष का वर्णन करने के लिए पाकिस्तान पर भारत के हमले के संदर्भ को ‘सर्जिकल स्ट्राइक’ जैसे मुहावरे से व्यक्त करना दुर्भाग्यपूर्ण है और यह उस बारे में बताता है जिसे हम फिल्म में देखते हैं और उसके संदेश को आगे बढ़ाता है.
फिल्म के जरिए कई तरीकों से बढ़ाया गया है इस्लामोफोबिया
अगर आपने हाल में हमारी फिल्म एंड पॉलिटिक्स राउन्डटेबल देखी है (प्रमोशन के लिए सॉरी लेकिन मैं वास्तव में देखने की सिफारिश करता हूं), फिल्म निर्माता नीरज घायवान फिल्म में इस्लामोफोबिया को चित्रित करने के लिए शानदार तरीके से कई बिन्दु बताते हैं.
घायवान खास तौर पर तानाजी के बारे में नहीं, आम तौर पर इस्लामोफोबिक फिल्मों के बारे में बता रहे थे. वे कहते हैं, “यह बारीक तरीके से बढ़ता है. आप रंगी जाने वाली दीवार देखते हैं या फिर यह कि किस तरह से प्रोडक्शन डिजाइन किया गया है. (जब मुसलमानों को दिखाया जा रहा हो) यह ज्यादातर काला है, अधिकांशत: धुंधला है, इसे इसके प्रभाव को खत्म करने के लिए न्यूनतम कोण पर फिल्माया गया है. लेकिन जब आप दूसरे पक्ष को देखते हैं तो यह पूरी तरह खिलता हुआ और चमकता हुआ दिखता है और दृश्य भी आंखों के स्तर पर साफ-साफ दिखने योग्य होते हैं.”
आपने इसे पद्मावत में देखा कि कैसे महारावल रतन सिंह (शाहिद कपूर) और अलाउद्दीन खिलजी (रणवीर सिंह) को विपरीत तरीके से चित्रित किया गया और अब आप इसे तानाजी में भी देखेंगे.
और इन कारणों से यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि 'तानाजी द अनसंग वॉरियर' में काफी कुछ जरूरी बातें छूट गयी हैं और इसका अंत कुछ ऐसे होता है जैसा आज का भारत है न कि ऐसे जैसा भारत को होना चाहिए.
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