नवंबर, 2012 की बात है. नामचीन डायरेक्टर 'आंग ली' की चर्चित फिल्म ‘लाइफ ऑफ पाई’ भारत में रिलीज होने वाली थी. मुझे पता चला कि सिनेमाघरों में रिलीज से पहले उसका प्रीमियर गोवा फिल्म फेस्टिवल में होगा. एक असाइनमेंट का बहाना बनाकर मैं गोवा जा पहुंचा.
प्रीमियर के वक्त एक्टर इरफान और तब्बू भी हॉल में मौजूद थे. शो खत्म होने के बाद भीड़-भड़क्के के बीच मैं इरफान के करीब गया. मुस्कुराहटों के आदान-प्रदान के बाद मैने कहा- ‘मैं आपको एनएसडी (नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा) के जमाने से फॉलो करता हूं.’ वो एक पल के लिए शून्य में गए और फिर आसपास खड़े लोगों में मशगूल हो गए.
इरफान के साथ ‘वो’ मुलाकातें!
इरफान के साथ आमने-सामने की वो मेरी पहली और आखिरी मुलाकात थी. लेकिन अंधेरे सिनेमाघरों में, टीवी की आवाज से गूंजते अपने कमरे में और ‘नेमसेक’ जैसे उपन्यास के पन्नों में मैने इरफान के साथ सैंकड़ों मुलाकातें की हैं.
‘पान सिंह तोमर’ में पिघलती हुई आइसक्रीम को बचाने मैं भी इरफान के साथ दौड़ा हूं. ‘द लंचबॉक्स’ में लोकल ट्रेन में सवार होने से पहले हर बार मैने भी इरफान के साथ सिगरेट पी है. ‘मकबूल’ में पुलिस इंस्पेक्टर का तमाचा सिर्फ इरफान ने नहीं, मैने भी खाया है.
हर किरदार असरदार
साहबजादा इरफान अली खान. जी हां.. यही पूरा नाम था इरफान का. लेकिन अपने नाम के साथ लगे एक सामंती विशेषण को उन्होंने उसी तरह अलग कर दिया था जैसे वो पर्दे पर अपनी स्टार-शख्सियत को किरदार से अलग कर दिया करते थे.
‘पान सिंह तोमर’ फिल्म में इरफान की डॉयलॉग डिलीवरी के क्लास का अंदाजा वो लोग बेहतर लगा सकते हैं जो उत्तर प्रदेश के मैनपुरी, इटावा जैसे इलाकों में घूमे हैं. वहां के लोग अपनी जुबान में एक मामूली सी तुतलाहट रखते हैं. पर्दे पर इरफान ने उस अंदाज को इस दक्षता से पकड़ा कि खुद उन इलाकों के लोग हैरान रह गए.
किसी एक किरदार की बात क्या करें. ‘नेमसेक’ का ‘अशोक गांगुली’ हो, हैदर का ‘रूहदार’ हो, ‘अंग्रेजी मीडियम’ का ‘चंपक बंसल’ हो, ‘हासिल’ का ‘रणविजय’ हो, ‘साहब, बीवी और गैंगस्टर’ का ‘इंद्रजीत’ हो या फिर कोई भी रोल. पर्दे पर इरफान नाम का एक्टर दिखता ही नहीं. दिखता है तो सिर्फ वो किरदार जिसे इरफान उस वक्त निभा रहे हैं.
इरफान-तिग्मांशु, जोड़ी बेमिसाल
इरफान ने डायरेक्टर तिग्मांशु धूलिया के साथ ‘हासिल’, ‘चरस’, ‘पान सिंह तोमर’, ‘साहब बीवी और गैंगस्टर’, ‘साहब बीवी और गैंगस्टर रिटर्न्स’ जैसी शानदार फिल्में कीं. मुझे इन दोनों की जुगलबंदी 'रॉबर्ट डी नीरो- मार्टिन सकोर्सिज', 'एलेक गिनीस- डेविड लीन' और 'अमिताभ बच्चन- हृषिकेश मुखर्जी' जैसी दिग्गज एक्टर-डायरेक्टर जोड़ियों की याद दिलाती है.
इरफान दिल्ली के नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा से 1987 में पासआउट हुए थे और तिग्मांशु 1989 में. तभी से इन दोनों की दोस्ती थी जो मायनगरी के रूपहले पर्दे पर भी खूब खिली.
बॉलीवुड से हॉलीवुड तक
साल 2009 में आई थी आदित्य चोपड़ा की ‘न्यूयॉर्क’. उस फिल्म में कैटरीना कैफ, जॉन अब्राहम और नील नितिन मुकेश सरीखे कलाकारों के साथ कास्टिंग में इरफान का नाम कुछ यूं आया था- ..and Irrfan.
कास्टिंग में किसी कलाकार के नाम का इस तरह से आना उसके स्टारडम का प्रतीक माना जाता है. जैसे 70-80 के दशक के दौर में आता था ..और प्राण. एक नामी पत्रिका ने ‘न्यूयॉर्क’ को इरफान के स्टारडम की शुरुआत कहा भी था लेकिन उसके बाद भी वो उसी सूफी अंदाज में अलग तरह के बिना तड़क-भड़क वाले रोल और फिल्में करते रहे.
इरफान शायद अकेले भारतीय कलाकार हैं जिन्हें ब्रिटिश और हॉलीवुड सिनेमा में भी उतने ही सॉलिड रोल मिले. सईद जाफरी, रोशन सेठ और ओम पुरी के नाम उस लिस्ट में आते हैं लेकिन इरफान हर फलक पर मुकम्मल हैं और यही उनकी खासियत है.
फिल्म ‘हैदर’ के एक सीन में रूहदार कहता है-
दरिया भी मैं, दरख्त भी मैं.. झेलम भी मैं, चिनार भी मैं.. दैर भी हूं, हरम भी हूं.. शिया भी हूं, सुन्नी भी हूं.. मैं हूं पंडित.. मैं था, मैं हूं और मैं रहूंगा.फिल्म ‘हैदर’ का एक डायलॉग
जी हां इरफान. आप मकबूल हैं. आप थे, आप हैं और आप रहेंगे.
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